बसासत-बसासत
विलेज स्टडी टूर के समय एटीआई में इतनी राजनीति हुई जितनी कि शायद सन सैंतालीस के बाद देश भर में नहीं हुई होगी. कारण एक ही था. विलेज टूर असल में अलग-अलग ग्रुप में जाना था और राजनीति करने वालों का एकमात्र उद्देश्य अपनी पसंद के बंदे (या बंदी!!) को अपने ग्रुप में शामिल करवाना, या अगर ये संभव न हो तो खुद को उस ग्रुप में एडजस्ट करवाना जिसमे पसंद का बन्दा हो. भला हो बंशीधर जैसे उस्तादों का जिन्होंने महाराज-महाराज करके पूर्वी उत्तर प्रदेश का देसी तड़का लगाया. ध्यातव्य हो कि यहाँ लोग उत्तर प्रदेश-उत्तराखंड (तब उत्तरांचल), पहाड़ी-मैंदानी, कुमाउँनी-गढवाली, ठाकुर-बाभन, सवर्ण-अवर्ण, लमधोती-छोटी धोती जैसी परिपाटी बद्ध परिपक्व राजनीति में नहीं फंस रहे थे, नौसिखिए थे न इसलिए इन चीजों का ज्ञान नहीं था. अगर जानते होते तो जिससे बाकी की नौकरी- जिंदगी में दो-चार होना था उसकी थोड़ी प्रैक्टिस ही कर लेते.
राजनीति इतनी बढ़ गयी कि सारी कूटनीति फेल हो गयी कोर्स डाइरेक्टर्स की और यह निर्णय लिया गया कि तीसरे और चौथे आधारभूत कार्यक्रम के समूह अलग-अलग बनेंगे. इधर के समूहों में उधर के लोगों की मिक्सिंग नहीं होगी. ये एक बड़ी कूटनीतिक सफलता थी. दूसरी सफलता जो हाथ लगी वो और भी बड़ी थी. पर्चे पर नाम लिखकर लॉटरी से ग्रुप बने लेकिन जाने किस गणित से उन पर्चों में वही नाम निकले जिन्हें साथ जाना था. कमाल है. कोर्स डाइरेक्टर साहब ने खुरच-खुरच कर अपने माथे पर निशान बना लिया कि आखिर ये हुआ कैसे?
हमारे ग्रुप ने भी कुछ सोच रखा था. हमारे साथ कोई लड़की नहीं होनी चाहिए. इससे मस्ती में खलल पड़ सकता है. अब सोचता हूँ तो समझ नहीं आता कि आखिर ऐसी कौन सी मस्ती की तैयारी में थे हम जिसमें किसी महिला अधिकारी के आने से खलल पड़ता. हम (जो कि कालान्तर में ठलुआ गैंग के फाउंडर मेंबर बने), यानी कि चार लोग आनंद, अमित, कांडपाल और मैं. हममें से कोई भी ऐसा नहीं था जो छुट्टे लड़कों के तथाकथित एंजोयमेंट मदिरा सेवन या कोई अन्य सेवन का व्यसन रखता हो. फिर भी प्रण तो प्रण. हमारे हिस्से में दो और ठलुए आए. शशिकांत जो अपने करीबी मित्रों के `किन्हीं’ कारणों से दूसरे ग्रुप में जाने के कारण अकेला बच गया था और राजीव बलूनी जो शायद इसलिए हमारे ग्रुप का सदस्य बना क्योंकि हमारे यहाँ कोई लड़की नहीं थी. कम से कम कांडपाल ने यही कारण बताया था और उन्हें पीटे जाने के लिए उनका यह मजाक ही काफी था.
हमने एक और चीज चुनी. हम अलग हैं और हमारा काम भी अलग होना चाहिए. इसके लिए जो सभी समूहों से अलग चीज जो हमने की वो ये कि मॉल रोड जाकर अपने लिए एक-एक हैट ले आये. अब हमारा ग्रुप हैट ग्रुप था. हम हेडलेस जरूर थे हैटलेस नहीं.
कोर्स डाइरेक्टर के गंभीर शब्द हमारे कानों में पड़े जब हम अपनी गाड़ियों में बैठकर रवाना होने को थे. `विलेज स्टडी मजाक नहीं है इसे पूरी गंभीरता से लें.’ हमने लिया, खूब सीरियसली लिया, विलेज को, बस स्टडी लगाना भूल गए. इतना सीरियसली लिया कि बहुत जोर देने के बाद भी उस गाँव का नाम मुझे याद नहीं और वैसे भी नाम से होता क्या है, किसी भी पहाड़ी गाँव का नाम ले लो स्थितियां वैसी ही हैं. यहाँ बिजली सुन्दर पड़ोसन की तरह है कभी छत पर दिख जाती है तो भाग्य को सराह लो, यहाँ पानी मंदिर में पंडितजी द्वारा दिया गए चरणामृत के जैसा है हथेली पर लो, चाट लो, ये आशा मत करो कि पूरी लुटिया भर कभी नसीब होगा, यहाँ सड़क प्रोषित पतिका के पति की तरह है जो सालों के इन्तजार के बाद भी न खुद आता है न ही उसकी कोई खबर लेके आता है.
वो पिथौरागढ़ का एक छोटा सा गाँव था जहां हमें जाना था. सर्वसम्मति से भूपेंद्र कांडपाल को ग्रुप लीडर चुना गया. कारण स्पष्ट था बाकी सभी ऐसे किसी भी दायित्व से मुक्ति चाहते थे. कांडपाल ने वीरता पूर्वक मुस्कुराते हुए दायित्व ग्रहण किया, मुस्कुराते हुए एक संक्षिप्त सा भाषण दिया और पूरे भ्रमण कार्यक्रम में तब तक मुस्कुराते रहे जब तक वो दिन नहीं आया जब पूरे दिन की थकान के बाद हम गाँव की प्राथमिक पाठशाला (जो अब किसी की प्राथमिकता नहीं रहीं, न शिक्षकों की, जिन पर कहीं तो नर्सरी से लेकर पांचवी तक के छात्रों को अकेले पढ़ाने का भार है और कहीं दूरस्थ क्षेत्रों में बस तनख्वाह वाले दिन ही आने की जहमत उठानी पड़ती है, बाकी के दिन के लिए उन्होंने असिस्टैंट शिक्षक रख छोड़े हैं, जो संविदा पर हैं उनकी संविदा; न अभिभावकों की, क्योंकि ज्यादातर को मजदूरी में एक हेल्पिंग हैंड मिल जाता है, फिर वो उसे स्कूल जैसी अनुत्पादक जगह क्यों भेजें; न ही सरकार की !… उ.प्र. सरकारी सेवक आचरण नियमावली नियम- 03 के जानिब से निकला एक शब्द- चुप!) की एक कक्षा में लगी तख्तों पर आलू-पराठा खाकर लंबे होने की तैयारी में थे कि जिला कृषि अधिकारी अपने कार्यक्रमों की रूप रेखा और क्रियान्वयन की कुरूप रेखा के साथ उपस्थित हुए. जाहिर था ग्रुप लीडर ही वो शख्स था जिसकी गर्दन पतली थी. लगभग आधे घंटे के बाद की स्थिति यह थी कि हम पांच हनुमानजी की बूटी लाने वाली पोजीशन में लेटे खर्राटे भर रहे थे और कांडपाल कृषि अधिकारी के व्याख्यान और हमारे खर्राटों की मिली जुली सिम्फनी में ये ढूँढने की कोशिश कर रहे थे कि आखिर उन्हें झुंझलाहट किस चीज से ज्यादा हो रही थी. सुबह शशिकांत ने शरारत से जब ये पूछा कि कैसा रहा कैंडी कल रात का शेसन तो कांडपाल ने हमें ऐसे घूरा कि अगर उसका बस चले तो इस साल की गहत की फसल के साथ साथ हमारी मुंडियां भी काट ले.
जिस गाँव का नाम मुझे याद आ रहा है वो है `भुरमुड़ी’. ये भी पिथौरागढ़ का एक छोटा सा गाँव था जिससे होकर एक सड़क प्रस्तावित थी लेकिन गाँव के लोग उसे बनने नहीं दे रहे थे क्योंकि उनके कुछ खेत कट रहे थे और वो उसका अलाइनमेंट किसी और जगह से चाहते थे. साथ के गाँव वाले पिछड़ेपन की दुहाई देकर उसे बनाए जाने पर आमादा थे. जिलाधिकारी ने हमारी चार्टर ऑफ ड्यूटीज को बढ़ाते हुए गाँव की इस समस्या का अध्ययन और समाधान निकालने को कहा.
तीन घंटे की पदयात्रा और तीन पहाड़ों को लांघकर जब हम वहाँ पहुंचे तो जितनी शिद्दत से साथ के गाँव वाले सड़क बनाए जाने के लिए सोच रहे थे उससे तीन गुना ज्यादा हम सोचने पर मजबूर थे. हमने दोनों पक्षों के लोगों को बुलवाया और एक मंदिर के खुले अहाते में चबूतरे पर आसन जमाया. ऐसा लग रहा था कि कोई 6 सदस्यीय न्यायिक कमीशन आया हो. दोनों पक्षों को धैर्य पूर्वक सुना. (और उससे ज्यादा धैर्यपूर्वक ग्रामीणों ने हम जैसे नए नवेले अधिकारियों की बकवास सुनी जिसमे हमने 25 मिनट के भाषण में लगभग 50 बार `विकास- विकास’ कहा. इतनी बार कि उकडूं मुकडू बैठे बहुत से बच्चों में से एक उठकर हमारे पास आया और बोला `मेर नाम विकास छू’.) हमें दोनों पक्षों की बातें जायज लगीं. हम जबर्दस्त कन्फ्यूज हो गए. कन्फ्यूजन आज तलक है.8
हमारे पास कोई समाधान नहीं था लेकिन चूंकि हम सरकारी नौकर हो चुके थे इसलिए सरकार के पलड़े पर बैठकर उसे भारी करने में लग गए. मुझे नहीं मालूम कि हमारे तर्कों में जान थी या नहीं लेकिन अगर वहाँ सड़क बन गयी हो तो उसमे एक छोटा सा योगदान हमारा भी माना जाना चाहिए.
हमारे ट्रिप की एक और उपलब्धि रही. परमादेश. मेरे इस संस्मरण में भदेस के आरोप और सुरुचि से फिसल जाने के खतरे के बावजूद मैं कहूँगा कि डा. आनंद और अमित के बीच जो परमादेश का रिश्ता वहाँ कायम हुआ वो आजतक बरकरार है. आनंद अपनी चिर परिचित मुस्कान के साथ एक उंगली उठाकर कहते हैं `परमादेश’ और अमित तत्काल…! यहीं से लगने लगा था कि अमित ने पेट में मसक बाँध रखा है. वैसे कुछ बातें ढकी छुपी रहें तो बेहतर.
यही वो ट्रिप था जिसने हमें बसासत, तोक और मजरे का सैद्धांतिक मतलब समझाया जिसके व्यावहारिक अर्थोदघाटन के लिए ये शेर पढ़ा गया-
नजाकत नहीं है कोई इसमें नफासत नहीं है
कतई तोक या मजरा है ये बसासत नहीं है !
हमने पांच दिन खूब मेहनत की. सुबह-सुबह आलू के गुटके और पराठे खाने में और फिर दिन भर यहाँ वहाँ घूमकर उसे पचाने में. आख़िरी दिन हमें अपने किये गए अध्ययन की प्रस्तुति देनी थी जिले भर के अधिकारियों के सामने. हमारे पास इस एक शे`र के अलावा अगर कुछ और था तो बस हमारा मासूम सा आत्मविश्वास. हमने पूरे प्रस्तुतीकरण को छः भागों में बांटकर अलग-विषय लेकर बोलना निश्चित किया. सबसे ज्यादा डर हमें राजीव बलूनी से लग रहा था क्योंकि उसने गाँव में कृषि एवं पशुपालन जैसा कुछ विषय चुना था और बार-बार घूम फिरकर बैलों की नसबंदी पर आ जा रहा था.
जिलाधिकारी पि. ने एक दूसरा ग्रुप जो पिथौरागढ़ गया था और जिसका नेतृत्व रूचि मोहन रयाल कर रहीं थी, जिन्होंने जिले के अधिकारियों-कर्मचारियों को सहयोग न देने के लिए खूब खरी खोटी सुनाई थी, उसे भी अपना प्रस्तुतीकरण देने के लिए विकास भवन के उस हॉल में बुला लिया था. हमने पहले बोलने की पहल की क्योंकि हम हमेशा से ही बहादुर रहे हैं {क्योंकि अगले ग्रुप के पास उनके भ्रमण की रिकॉर्डेड वीडियो भी थी जिसे विनोद ने शूट किया था. विनोद जिनके आगे पीछे विधु-चोपड़ा नहीं बल्कि गिरी-गोस्वामी लगता था और अगड़मना (विनोदानुसार `अगर माना’) वो पहले बोलते तो ज्यादा अच्छा प्रभाव डाल सकते थे.}
शुरुआत मैंने की और टाइटिल ट्रैक सा चला कर पर्दा उठा दिया. उसके बाद कलाकारों ने अपने-अपने किरदार बखूबी निभाए और राजीव के तो क्या कहने. खूब बोला, तसल्लीबख्श बोला, तफसील से बोला. `गाँव में पशुओं की स्थिति ठीक नहीं है, जितनी निर्भरता जनता की पशुओं पर है उस लिहाज से देखें तो न तो अच्छे डॉक्टर हैं न ही…बैलों के नसबंदी की कोई व्यवस्था भी नहीं…’ कांडपाल, जिसने राजीव को ये कसम दिलाई थी कि वो बैलों के नसबंदी जैसी चीज पर ज्यादा प्रकाश नहीं डालेगा, अपना सर धुनते दिखाई दिए और हम उसके धुने जाने का इन्तजार.
ट्रिप से लौटकर जब प्रस्तुतीकरण की बारी आयी तो भी हमने बहादुरी के साथ अपने ग्रुप का नाम आगे किया (क्योंकि आज शाम जल्दी मॉल रोड जाकर मोमोज खाने का कार्यक्रम तय हुआ था) और हमें दूसरे नंबर पर बोलने का मौक़ा मिला. हमने चालाकी से अपना पूरा प्रेजेंटेशन भुरमुड़ी गाँव की समस्या की ओर मोड़ दिया आखिर वो हमारा स्पेशल टास्क था. अपने पॉवर पॉइंट प्रेजेंटेशन (शक्ति-बिंदु प्रस्तुतीकरण? हमारी राजभाषा की ऐसी तैसी ऐसे अनुवादों से ही हुई है) में हमने एक मानचित्र भी बनाकर जोड़ा था, नॉट टू स्केल, और भुरमुड़ी की समस्या को गाँव की अर्थव्यवस्था और गहराती राजनीति से चिपकाने का भरसक प्रयास किया था, अगेन नॉट टू स्केल.
हमने अपने-अपने पार्ट कस्बों में हर साल होने वाली रामलीला के पात्रों की तरह बखूबी निभाए जिसमें हर पात्र दूसरे का स्पेस छीनने के लिए इतना लाउड हो जाता है कि समझ नहीं आता कि ये हनुमान है या रावण. लेकिन अति उत्साह में हमने दूसरे का न तो स्पेस छीना न ही डायलॉग. तभी तो राजीव अपने व्याख्यान में पांच लाइनों तक बिलकुल ठीक चलता रहा `पशुओं की स्थिति…चारे की व्यवस्था…पशुपालन केन्द्र की जरूरतें…और और …यदि बैलों के स्वास्थ्य और जनसंख्या में संतुलन रखना है तो उनकी नसबंदी जरूरी है.’ इस बार सर के बाल नोचने की बारी शशिकांत की थी क्योंकि राजीव के ब्रेन वाश का जिम्मा उसने उठा रखा था और हम उसके गंजे होने का इन्तजार करते रहे.
मुझे आज तक नहीं समझ आया कि सामने बैठे उन एक्स्पर्ट्स को, जिन्होंने हमसे पहले प्रस्तुतीकरण के लिए आये ग्रुप की लगभग खाल ही खींच ली थी जिन्होंने पहाड़ी भांग9 की चटनी से ही यह निष्कर्ष निकाल लिया था कि पहाड़ों पर तो महिलाएं भी नशा करती हैं, हमारे निष्कर्ष कैसे पसंद आये. वो हम पर अजब सवाल दागते रहे हम गजब जवाबों से उन्हें संतुष्ट करते रहे. उन्होंने गाँवों की बदहाल अर्थव्यवस्था की बात की, जंगली जानवरों से चौपट हो रही खेती की बात की, लकड़ी-चारा-चूल्हा-चक्की-बर्तन और `सूरज अस्त पहाड़ी मस्त’ वाले मस्त पति को संभालने वाली महिलाओं की बात की, सेना के बैकग्राउंड की बात की, पनपते लेफ्ट विंग एक्सट्रीमिज़म के कारणों की बात की, मुझे कुछ याद नहीं कि इनमें से क्या-क्या बात की, मैं तो बस इस आधार पर कह रहा हूँ कि ऐसी अकादमिक बहसों में ऐसे ही निश्चित से प्रश्न होते हैं जिनके निश्चित से अकादमिक जवाब होते हैं. इन गला फाड़ वर्बल जिमनास्टिक से किसी गाँव का भला होता हो या न होता हो बहुतों की नौकरी जस्टीफाई हो जाती है, और हम जैसों का ग्राम-अध्ययन.
हमारा भला इस मायने में ज्यादा हुआ कि हमने रिटायर्ड मेजर महेश चन्द्र नेगी को निष्ठुर से लगने वाले पत्थरों पर उन सब्जियों को उगाते देखा जो पंतनगर कृषि विज्ञान केन्द्र के अधिकारियों ने `बहुत मुश्किल’ से `लगभग असंभव’ के बीच रखी थीं, हमने गेठी देवी की आँखों में संतुष्टि देखी जो इंदिरा आवास योजना में बने घर में हमें पानी पिलाते वक्त उभरी थी और जो अगले कमरे की ढह गयी दीवारों के बाद भी बरकरार थी, हम कक्षा चार में पढ़ने वाली नेहा से मिले जो स्कूल से घर जाते वक्त लकड़ी तोड़कर ले जाएगी, स्कूल जाने से पहले वो डालडा के पांच लीटर के डब्बे में दो बार नौले से पानी ला चुकी होगी और अब जब तक उसकी माँ खाना बनाएगी वो अपने छोटे भाई का मन बहलाएगी, तीस साल के संजय पुनेठा से भी मिले हम जो नौकरी के नाम पर बस आर्मी जानता था और अब ओवर एज होकर `रिटायर्ड बिफोर ज्वौइनिंग द सर्विस ब्रिगेड’ का मुखिया था और अपनी बाकी की उम्र खुद की व्यक्तिगत-समष्टिगत उपादेयता पर दो शब्द सोचने में बिता देने वाला था. हम इन सबसे मिले, हमने हाशिए पर पड़े उन चेहरों को देखा जो आजादी के लगभग पचास साल बाद और राज्य बनने के पांच साल बाद भी ये नहीं जानते थे कि ट्रेन क्या बला है, अल्ट्रा साउंड किस चिड़िया का नाम है, और साल के अंत में आईपीसी की धाराएं खत्म नहीं होतीं.
उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं. 6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी दो किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता)
(पिछली क़िस्त से आगे)
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