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अस्कोट-आराकोट यात्रा के पीछे अवाम, आत्मसंतुष्टि या आत्ममुग्धता

पहली बार साल 2004 में अस्कोट-आराकोट यात्रा में जाने का मन हुआ था. निजी और आर्थिक कारणों से नहीं जा पाया. सोचा साल 2014 में इस यात्रा का हिस्सा अवश्य बनूंगा. तब नौकरी की व्यस्तता आड़े आ गई.

इस बार यात्रा में जा सकता था, लेकिन मन नहीं हुआ. मन नहीं होने के पीछे दिमाग में उपजे कई सवाल रहे? पहला सवाल तो यही था, दस साल में होने वाली इस यात्रा का प्रयोजन क्या है? पहाड़ के गांवों को जानना? पहाड़ की रिपोर्टिंग या फिर हर मोर्चे पर बर्बाद हो रहे पहाड़ के पक्ष में एक मजबूत दबाव समूह तैयार करना? ऐसा दबाव समूह जिसके अनुभव और शोध का असर सरकार की नीतियों पर दिखे? पहले दो सवालों के जवाब बहुत आसान हैं. पहाड़ के गांवों को जानना है तो उसके लिए दस साल का इंतजार करने की आवश्यकता नहीं. आप कभी भी यात्रा पर निकल सकते हैं और उसके लिए कोई प्रोपेगंडा की आवश्यकता भी नहीं. बड़ी संख्या में लोग ये काम कर भी रहे हैं. पहाड़ की रिपोर्टिंग की जहां तक बात है तो वह तहसीलों में तैनात मुख्यधारा के पत्रकार सालों से बखूबी कर रहे हैं. इस दौर में भी आम जन को ऐसे पत्रकारों पर जबरदस्त भरोसा है. इनकी रोज की रिपोर्टिंग ही है जिससे पता चलता रहता है कि महिला ने खेत में बच्चे को जन्म दे दिया, बुजुर्ग ने अस्पताल लाते वक्त डोली में दम तोड़ दिया. रोज के बदलाव और जख्म इनकी रिपोर्टिंग का हिस्सा हैं. ऐसे में दस साल में रिपोर्टिंग का कोई मतलब नहीं. हां, आने वाली पीढ़ियों के लिए अच्छी किताब जरूर लिखी जा सकती है. लेकिन ये काम भी कभी भी किया जा सकता है. इसके लिए भी हर दस साल में प्रोपेगंडा की आवश्यकता नहीं. आखिरी सवाल है एक मजबूत दबाव समूह बनने का? यात्रा के पांच दशकों को उत्तराखंड के हालात से जोड़कर देखेंगे तो इस सवाल का जवाब न में ही मिलेगा.

यदि यात्रा पहाड़ और पहाड़ के लोगों के जीवन में बदलाव के उद्देश्य से शुरू की गई थी तो मुझे ये कहने में कोई हिचक नहीं कि पचास साल में ये यात्रा प्रोपेगंडा से एक कदम आगे नहीं बढ़ पाई. यदि बढ़ी होती तो निश्चित तौर पर पहाड़ की दुर्दशा घटी होती. मेरे शब्दों के अलावा यात्रा पर निकल रहे लोगों को भौगोलिक रूप से भी इसके सबूत कदम दर कदम मिलेंगे.

अस्कोट से आराकोट तक अभी कुछ दिन पहले तक सुलग रहे जंगलों की राख की राफ कम नहीं हुई होगी. आग से जलकर मरे पांच लोगों की चीख भी जरूर जंगलों में महसूस की जा सकेगी. 1400 हेक्टेयर से ज्यादा जंगल उत्तराखंड में इस बार जला है. साल 2023 में ये आंकड़ा हजार के करीब था. इससे पीछे जाएंगे तो ये और कम होता जाएगा. लेकिन यात्राओं के दशक के साथ ये आंकड़ा भी बढ़ता गया. क्या हमारी यात्रा इन जंगलों को बचाने के लिए नहीं थी? यदि थी तो हमारी यात्राओं का अक्स सरकार की नीतियों पर क्यों नहीं दिखा? केवल किताब लिखकर या शोधपत्र पढ़कर यात्रा को सफल कहना तो बेमानी होगा.

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ताजी-ताजी आई बारिश ने आग की तपिश तो फिलहाल थाम दी है लेकिन पहाड़ों के दरकने के भयावह चित्र मानसून से पहले आने लगे हैं. यात्रा के बढ़ते साल इन चित्रों की संख्या कम करने में भी पूरी तरह असफल रहे हैं. पुराने अखबारों की कतरनें बताती हैं कि साल 2023 में ही पहाड़ दरकने की 1100 से अधिक घटनाएं हुईं. 2022 में ये आंकड़ा महज 243 था. हमारी यात्रा इन दरकते पहाड़ों को बांधने के लिए नहीं थी? पलायन आयोग की रिपोर्ट बताती है कि इस बार यात्रियों को पिछली बार से ज्यादा गांव ऐसे मिलेंगे जहां आवभगत करने वाला कोई नहीं होगा. हालांकि यात्रा में हर दशक यात्रियों की संख्या बढ़ रही है.

कुछ दिन पहले ‘डाउन टू अर्थ’ में छपा एक लेख पढ़ा. लेख में यात्रा को महिमा मंडित करते हुए बताया गया था – 2014 के पांचवें अस्कोट-आराकोट अभियान में नौ राज्यों और विदेशों के 260 से अधिक यात्रियों ने हिस्सेदारी की. यात्रियों ने अपने-अपने ढंग से अनुभवों को समेटा और प्रस्तुत किया. लेकिन इस अनुभव और प्रस्तुतिकरण से क्या हासिल हुआ? बेहतर होता हम बता पाते हमारी यात्राओं के दबाव में सरकार ने ऐसी कौन सी नीतियां बनाईं जिन्होंने घरों में घुसते जंगली जानवरों को रोका, सिंचाई संकट से जूझते खेतों तक पानी पहुंचाया, खेतों को खुलेआम रौंदते सुअर-बंदरों को रोकने का इंतजाम किया. दुर्भाग्य, हम ऐसा कुछ नहीं कर पाए और इन सब मुसीबतों के कारण पिछली यात्रा के बाद पहाड़ छोड़ने वालों का आंकड़ा और बढ़ता गया. अब उनमें से अधिकांश लोगों से मिलने के लिए किसी यात्रा की जरूरत नहीं. वे यहीं होटल, ढाबों और सिडकुल में आपको मिल जाएंगे. शायद अगली एक-दो यात्राओं के बाद वहां केवल इतिहास-भूगोल मिलेगा आवाम नहीं. फिर आप होते रहें अपनी यात्राओं से आत्मसंतुष्ट और आत्ममुग्ध.

डिस्क्लेमर – यह लेखक के निजी विचार हैं.

राजीव पांडे

राजीव पांडे की फेसबुक वाल से, राजीव दैनिक हिन्दुस्तान, कुमाऊं के सम्पादक  हैं.

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Sudhir Kumar

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  • चिंता पहाड़ की कब?
    जब सड़क बनने में डायनामाइट से छलनी होते गये पहाड़
    जब वन कानून के संशोधन से बर्बाद हुए वनवासी
    जब बेहिसाब पर्यटको की भीड़ बिगाड़ गई पर्यटक नगरी
    जब धार्मिक स्थलों में अजब बदहवासी उपजी
    जब गैर आबाद गावों में खंडहर में तब्दील हो गई घरकुड़ी
    तब कौन सी यात्रा ऐसी थी जिससे नीतियों में सुधार की मंशा बदली?
    ???

  • कौन सा इन अखबारों और पोर्टलों ने उत्तराखंड की दशा सुधार दी? इनको चलाने से कौन से प्रयोजन हल हो रहे? नीति निर्माताओं के विज्ञापनों पर नाचने वाले अखबारों ने ऐसा क्या भला कर दिया जो यात्राओं पर सवाल दागे जा रहे?

  • राजीव पांडे जी बधाई के पात्र हैं जिन्होंने इस यात्रा के बहाने उत्तराखंड की मूलभूत समस्याओं को फिर से पटल पर रखा । हालांकि हासिल तो किसी भी मंच, क्रिया कलाप, रिपोर्टिंग से कुछ भी नहीं हो रहा है । कारण व्यवस्था ही ऐसी बना दी गई है कि जन प्रतिनिधि नवाबों सा बर्ताव करते हैं और जनता भी गुलामों (राजनीतिक दलों के गुलाम) से कम नहीं रह गई है । फिर उपाय क्या हो ? क्योंकि ये समस्या सिर्फ उत्तराखंड की नहीं पूरे देश की है, हां उत्तराखंड की राजनीति में निकम्मों और भ्रष्टों का बोलबाला बाकी राज्यों से अधिक है ।

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