वनस्पति जगत के वर्गीकरण में बॉहीन भाइयों (गास्पर्ड और जोहान्न बॉहीन) के उल्लेखनीय योगदान को देखते हुए लीनियस जैसे जीनियस ने पादपों के एक कुल को इन भाइयों के नाम पर बॉहुनिया नाम दिया. यह कुल पादपों के फेबेसी परिवार से ताल्लुक रखता है. जाहिर है फेबेसी परिवार है तो इनमें फलियाँ आती होंगी, और यह भी कि यह नाइट्रोजन को प्रोटीनों में बदलने की क्षमता से लैस होते हैं.
(Article by Vinod Upreti Vagabond)
पक्का पता तो नहीं लेकिन अंदाजा है कि लीनियस ने शायद इस कुल के पत्तों को देखकर इन्हें बॉहीन भाइयों का नाम दिया होगा. इस कुल के पेड़ों में बीच के वृंत से दोनों तरफ लगभग पूरे पत्ते जितने फैले फलक, देखने में एक नहीं बल्कि दो पत्तों जैसे लगते हैं. अलग- अलग प्रजाति के आकार छोटे बड़े हो सकते हैं लेकिन पैटर्न एक जैसा होता है. ज्यादातर में पाँच पंखुड़ियों वाले फूल आते हैं जो परिपक्व होकर चौड़ी फलियों का रूप लेकर बीजों को सँजोते हैं. यह फलियाँ भी प्रजाति के अनुसार छोटी-बड़ी हो सकती हैं.
हिमालय के जिस क्षेत्र में मैं रहता हूँ वहाँ इस परिवार के दो सदस्य बहुतायत में पाए जाते हैं. न सिर्फ पाए जाते हैं बल्कि यहाँ के लोक और जन जीवन में इनकी महत्वपूर्ण जगह भी है. एक को हम टिहरी और अल्मोड़ा की सिंगौड़ी मिठाई के जरिए जानते हैं. जी हाँ ! सही पहचाना आपने मालू. लेकिन आज बात इसके एक और बिरादर की जिसे कुमाउनी और गढ़वाली में क्वेराल व ग्वीराल कहा जाता है. हिंदी में इसे कचनार और अंग्रेजी में माउंट एबोनी कहते हैं (जानकारी का स्रोत- इन्टरनेट).
(Article by Vinod Upreti Vagabond)
बसंत में इसके पेड़ों पर कलियाँ आनी शुरू होती हैं जो एक छोटी दरमियाना हरी मिर्च के बराबर होती हैं. इनका आकार भी लगभग मिर्च जैसा ही दिखता है लेकिन रंग में वैसा हरापन नहीं होता. मेहँदी जैसे हरे रंग की यह कलियाँ मानव के लिए बहुत काम की चीज रही हैं. तीन दशक पहले तक इनका महत्व और अधिक था जब पहाड़ों में मैदानी मंडियों से सब्जियों का आयात बहुत कम होता था. उस समय यह कलियाँ लगभग हर घर में सब्जी की तरह खाई जाती थी. यही नहीं सेमल, तिमुल, सानन आदि बहुत से जंगली पेड़-पौधे ऐसे थे जिनके फल-फूल हमारे भोजन का हिस्सा रहे और इस खाद्य विविधता ने जाने अनजाने हमें अनेक बहुमूल्य पोषक उपलब्ध कराए. यही नहीं दाद, खाज-खुजली, फोड़े-फुंसी आदि के लिए भी इसकी छाल का उपयोग किया जाता था. आज भी अनेक आयुर्वेदिक औषधियों में इसे उपयोग में लाया जाता है.
पहाड़ में सब्जियों को सुखाकर आगे के मौसमों के लिए सँजोने का चलन पुराना है इसलिए क्वेराल की कलियों को भी सुखाकर प्रिजर्व करके रखा जाता रहा है. जब जरूरत हो भिगोकर इस्तेमाल कर लिया. इसकी कलियों को न केवल सब्जी बल्कि रायते के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता है. भरपूर मात्रा में फ़ाइबर होने के कारण यह पाचन को दुरुस्त करने के लिए बहुत कारगर माना जाता है. इसके रायते को रायता कम और दवाई ज्यादा समझा जाता है. खाया भी इसी भाव से जाता है.
आगे चलकर क्वेराल के साथ एक प्रयोग किया गया, इसकी कलियों का अचार बनाकर. यह प्रयोग बहुत लोकप्रिय हुआ और आज लगभग पूरे पहाड़ की और नॉस्टैल्जिक पहाड़ियों की बाजारों में यह मिल जाता है, कहीं बहुत अच्छा तो कहीं औसत किस्म का. जो भी हो इसकी अच्छी खासी मांग है और बहुत से लोगों ने इसके जरिए रोजगार पाया है.
(Article by Vinod Upreti Vagabond)
क्वेराल की कलियों की भारी मांग के चलते कलियाँ निकलते ही काटकर बाजार में पँहुचा दी जाती है जहां अस्सी रुपये प्रति किलो तक के दाम में यह बिक जातीं हैं. नीति नियंताओं को इस बात की चिंता रहती है कि इसको व्यापक प्रचार मिले जिससे इसका बाजार और फैले. लेकिन बाजार को फैलाने की चिंता में यह कौन सोचे कि क्वेराल का फूल आएगा कहाँ से? यह तो क्वेराल के पेड़ में ही लग सकता है, चीड़ में तो लगेगा नहीं? तो कहाँ हैं क्वेराल के पेड़?
4 से 10 मीटर तक ऊंचा क्वेराल का पेड़ हिमालय की गर्म घाटियों में अधिक पाया जाता है. इसके पत्तों को चारे के रूप में इस्तेमाल किया जाता है और मजबूरी में लकड़ी को जलावन के रूप में. साल में एक बार इसके पेड़ में फूल आते हैं जिनको खिलने से पहले ही खाने में इस्तेमाल किया जा सकता है. इसलिए जो लोग इसे बेचकर कुछ कमान चाहते हैं वह इसकी कलियों को तोड़ लेते हैं. जो लोग थोड़ा ज्यादा कमाना चाहते हैं वह कलियाँ चुनने में समय नहीं गँवाते और टहनियाँ काट लेते हैं. बाजार की मांग और रोजगार की कमी के चलते लोग थोड़ी सी आमदनी की उम्मीद में पेड़ भी काट दें तो दोष किसे दिया जा सकता है?
लेकिन कलियाँ खत्म कर देने से फूल भी खत्म हो जाते हैं और फूलों के बिना फलियाँ और बीज होना संभव नहीं. लेकिन इस सबके बीच जीवन की एक महत्वपूर्ण कड़ी है जिसे हम नजरंदाज कर देते हैं, वह है इन फूलों पर आश्रित मधुमक्खियाँ, ततैया, झिमौड़ और अन्य कीट जो न केवल शहद बनाते हैं बल्कि जिनके होने से पेड़ पौधों में परागण हो पाता है और जीवन की गाड़ी सुचारु चल पाती है. हमारी चिंता में मधुमक्खियों की घटती संख्या तो कभी-कभी आ भी जाए लेकिन क्वेराल और च्यूर के फूल शायद ही आते होंगे. झिमौड़ और अंगरयाल शायद ही आते होंगे. हमारे लिए यह समझना बेहद जरूरी है कि यदि हमें क्वेराल की कलियों का रायता खाना है तो इसके नए पेड़ लगाने और पालने का जिम्मा भी उठाना होगा. हम मौरों और भौरों का हिस्सा छीनकर आर्गेनिक प्रेमी नहीं बन सकते.
इस तरफ दूसरी समस्या यह भी आ सकती है कि जंगलों में उगे क्वेराल पर किसका हक़ हो? क्या लीसे और झूले की तरह इसको भेषज की श्रेणी में रख कर इसके दोहन की कोई नीति है? या इसके बाजार के बढ़ने के साथ ही इसमें सरकारी पंजा बैठ जाय और फिर इसके दोहन के भी ठेके पड़ने लगें? यह तो काफल और बुरांश के साथ भी हो ही सकता है. इन सबके इस्तेमाल की सीमा क्या हो, हकों का बंटवारा कैसा हो इसपर सोचने का समय किसके पास होगा?
जिस दौर में बॉहीन बंधुओं ने वनस्पति जगत के वर्गीकरण और अध्ययन के महत्वपूर्ण काम किए उस दौर में अधिकांश वैज्ञानिकों का फोकस औषधीय पादपों पर रहता था. ज्यादातर खोजी इस बात से प्रेरित होकर काम करते थे कि उनकी खोज से क्या लाभ हो सकता है. सदियाँ बीत गई लेकिन दुनिया को देखने के हमारे नजरिए में खास बदलाव नहीं दिखता. लाभ हमारी सोच का सेंट्रल आईडिया बना हुआ है और क्वेराल किसी खेत के चाले में अकेला उदास बैठा है जिसकी डाल पर कोई न्योली अपनी उदासी का गीत गा रही है.
(Article by Vinod Upreti Vagabond)
पिथौरागढ़ में रहने वाले विनोद उप्रेती शिक्षा के पेशे से जुड़े हैं. फोटोग्राफी का शौक रखने वाले विनोद ने उच्च हिमालयी क्षेत्रों की अनेक यात्राएं की हैं और उनका गद्य बहुत सुन्दर है. विनोद को जानने वाले उनके आला दर्जे के सेन्स ऑफ़ ह्यूमर से वाकिफ हैं.
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