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75 वर्षों के हासिल पर बहस

कई बार सवाल उठाया जाता है कि एक देश की तरह हमने पिछले 75 वर्षों में क्या हासिल किया! बेशक, जानना चाहिए कि एक विकसित राष्ट्र की श्रेणी में पहुंचने के लिए क्या हम सर्वांगीण उन्नति कर रहे हैं, क्या विकास की गति संतोषजनक है? क्या हम औद्योगिकीकरण के क्षेत्र में अपेक्षित तरक्की कर पाए हैं? साथ ही शिक्षा और स्वास्थ्य से जुड़े ऐसे ही बड़े बुनियादी सवालों से हमारा सामना होगा. परंतु अन्याय से लड़ता हुआ एक आम आदमी जब सामने वाले से कहता है ‘तुझे कोर्ट में देख लूंगा’ या सत्ता को निरंकुश देखकर कोई लिखता है कि चुनाव आने पर तुम्हें बदल देंगे या अपने हक़ के लिए जूझते ट्रेड यूनियनों के धरना-प्रदर्शन जैसी लोकतांत्रिक प्रक्रियायें क्या मुल्क के विकास का सूचकांक नहीं हैं? क्या हमें प्रेस की स्वतंत्रता के इंडेक्स में निचली पायदानों पर जा टिकने या प्रसन्नता के इंडेक्स में पिछड़ने को विकास से जोड़कर नहीं देखना चाहिए?

पिछले स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री के मुख्य आर्थिक सलाहकार बिबेक देबरॉय साहब का लेख एक राष्ट्रीय समाचार पत्र में प्रकाशित हुआ था जिसमें देश के तीव्रतर विकास के लिए नए संविधान की आवश्यकता बताई गई. उनके विचार में संविधान में आमूलचूल परिवर्तन करके ही तेज़ी से विकसित भारत का निर्माण किया जा सकता है. लेख आज़ादी के बाद के 75 वर्षों में, लोकतंत्र के (व्यवस्था के रूप में) विकास, पंचायती राज व्यवस्था, सूचना के अति महत्वपूर्ण अधिकार या मनरेगा जैसे जनोन्मुखी क़ानूनों का प्रवर्तन, संघ के अंतर्गत क्षेत्रीय विशेषताओं और जनाकांक्षाओं के आधार पर बड़े राज्यों से तराश कर बनाये गये छोटे राज्यों का निर्माण और साथ-साथ सत्ता के विकेंद्रीकरण एवं लोकतांत्रिक संस्थाओं की मज़बूती के प्रयासों की भी अनदेखी करता है. उनका मानना है कि भारत की धीमी प्रगति के लिये इसका पुराना पड़ गया संविधान ज़िम्मेदार है. सच्चाई यह है कि बिबेक साहब मुख्य रूप से आर्थिकी के विशेषज्ञ हैं अतः मानवीय विकास की अन्य महत्वपूर्ण कसौटियों की सरसरी तौर पर चर्चा तो करते हैं परंतु अंततः एक केंद्रीकृत आर्थिक व्यवस्था की पैरवी करते दिखते हैं. बहस के लिए मान भी लिया जाए कि आर्थिकी के विशेष क्षेत्रों में दर्ज़ प्रगति के आधार पर ही विकास को आंका जाये; धरातल की सच्चाई से आंखें मूंद कर आंकड़ों की बाज़ीगरी से पैदा किया गया विकास कितना भ्रामक हो सकता है उसे निम्न उदाहरण से समझा जा सकता है.

विकास का महत्वपूर्ण सूचकांक माने जाने वाले जीडीपी के आंकड़ों पर पिछले दिनों तब बड़ा प्रश्नचिन्ह लगा जब हमारी औसत जीडीपी वृद्धि की दर 7.5 आंकी गई पर प्रिंसटन यूनिवर्सिटी के अर्थशास्त्री प्रोफ़ेसर अशोक मोडी ने अपने शोध के आधार पर इनकी सत्यता पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए. उनके अनुसार भारत की वास्तविक जीडीपी वृद्धि दर 7.5 न होकर 4.5 थी, जो प्रथम दृष्टया सरकारी आंकड़ों के सारे खेल को बेनकाब कर देती है. बात यहीं समाप्त नहीं होती, जीडीपी और अन्य दूसरे जनसंखिकीय आंकड़े जारी करने वाली भारत सरकार की संस्था एनएसओ द्वारा 2021 में अपेक्षित राष्ट्रीय सेंसस नहीं करवाने से अनुमानित आंकड़ों की बाढ़ सी आ गई है जिससे जीडीपी, प्रति व्यक्ति आय आदि समेत जनसंख्या के ठोस आंकड़ों की प्रमाणिकता संदिग्ध हो गई है. आंकड़ों की शुचिता के बिना विकास की सच्ची तस्वीर बेमानी होगी. आज ज़िम्मेदार लोगों के वक्तव्यों में भारत की जनसंख्या को सुविधानुसार 125 से लेकर 150 करोड़ और अर्थव्यवस्था को सर्वाधिक तीव्रता से विकसित हो रही अर्थव्यस्था बता दिया जाता है. यह लापरवाही चुनावी भाषणों में ही नहीं पिछली संसद में दिए गए वक्तव्यों में भी देखी गई. आंकड़ों की इस स्तर की बाज़ीगरी देश के विकास की सही तस्वीर पेश नहीं कर सकती. दूसरी ओर किसानों, बेरोज़गारों और हाल के परीक्षा घपलों के आंदोलन विकास के असंतुलन को उजागर करते दिख रहे हैं.

18वीं लोकसभा का अभी गठन हुआ ही है, नई सरकार का पहला महत्वपूर्ण आर्थिक दस्तावेज बजट के रूप में प्रस्तुत हुआ है. जिस तरह से विपक्ष ने शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, समेत सभी महत्वपूर्ण क्षेत्रों में बजट आबंटन में कमी का मुद्दा उठाया है, देखना होगा कि सरकार उसका जवाब कैसे देती है. जहां तक जनसांख्यकीय आंकड़ों के आधार पर बजटीय आबंटन का प्रश्न है सरकार के पास 2011 की जनगणना को आधार मानने के सिवा कोई अन्य रास्ता नहीं है क्योंकि 2021 में जनगणना हुई नहीं. 2024 के बजट में राष्ट्रीय जनगणना के लिए बजट में प्रावधान न होना चिंता का विषय है. भविष्य का प्रभावशाली नियोजन और अच्छी गवर्नेंस ज़मीनी स्थितियों के वस्तुनिष्ठ आकलन पर निर्भर है, जिसके लिए ठोस आंकड़े बेहद ज़रूरी हैं. अमीर-ग़रीब के बीच बढ़ती खाई, बढ़ती महंगाई, बेरोज़गारी के लिए संविधान की उम्र पूरी हो जाने जैसा भोंथरा तर्क स्वीकार नहीं किया जा सकता. हवा-हवाई दावे हेडलाइन तो बना सकते हैं पर ज़मीनी तस्वीर इससे जुदा हो तो देश की चुनौतियों में इज़ाफ़ा तय है.

ग़ौर से देखें तो यह पिछले 75 सालों का ही हासिल है कि संविधान पर ख़तरे की आहट से देश की जनता सत्ता के विरुद्ध लामबंद हो गई और 2024 के आम चुनावों में बीजेपी को अपेक्षा से बहुत कम सीटें मिलीं. संविधान में बदलाव का नेरेटिव विबेक देवराय के लेख से उठकर जब बीजेपी के चुनावी मंच पर ‘अबकी बार 400 पार’ के नारे के रूप में पहुंचा तो साढ़े सात दशकों से आरक्षण के माध्यम से सामाजिक बराबरी की जद्दोज़हद में लगा पिछड़ा वर्ग चौकन्ना हो गया.

हल्द्वानी में रहने वाले उमेश तिवारी ‘विश्वास‘ स्वतन्त्र पत्रकार एवं लेखक हैं. नैनीताल की रंगमंच परम्परा का अभिन्न हिस्सा रहे उमेश तिवारी ‘विश्वास’ की महत्वपूर्ण पुस्तक ‘थियेटर इन नैनीताल’ हाल ही में प्रकाशित हुई है.

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