यकायक मुझे सब कुछ रहस्यमय लगने लगा. घर-आंगन. पेड़-पौधे. लोग. यहां तक कि अपने इजा (मां) और बौज्यू (पिता) भी. मैं घर की देहरी पर बैठा था और मेरी नजर आंगन पर थी. यह आंगन जैसा आंगन नहीं था. जगह-जगह से उखड़ा हुआ था और उसमें दूब जमी हुई थी.
(Arjanya Story by Hari Mridul)
माहौल कुछ ऐसा लग रहा था, जैसे कोई बड़ा अनुष्ठान शुरू होने जा रहा हो. गोठ (गोशाला) से बौड़ (बछड़ा) निकाल कर बाहर बांध दिया गया था. बौज्यू ही इसे खोल कर लाए थे. किसी और में इतनी हिम्मत नहीं थी कि इसे छू भी सके. बहुत मरखना था. कोई गलती से उसके नजदीक भी जाए, तो फूंऽऽऽफांऽऽऽ की ऐसी गुस्सैल आवाज निकाले कि सामने वाला एक पल के लिए सकते में आ जाए. जैसे जवान होते लड़कों की मसें फूटती हैं, ठीक वैसे ही उसके जूड़ा (डिल) फूटा था. उसके अंग-अंग में एक लहर सी उठती साफ दिखाई दे रही थी. वह किसी से भी भिड़ जाने को आतुर लगता था. खेतों में हल से जुते बैलों को जैसे हिकारत भरी नजर से देखता.
इतने में बच्चों का शोरगुल सुनाई पड़ा. ये गांव के बच्चे थे. गर्मियों की छुट्टियां शुरू हो चुकी थीं. स्कूल बंद थे. मैंने देखा कि बच्चों के बीच एक बहुत बूढ़ा आदमी था, जो इन सभी के लिए कौतुक बना हुआ था. वह बहुत छोटे कद का था, इसलिए दूर से देखने पर बच्चों के बीच वह भी बच्चा ही लग रहा था. उसके कपड़े बेहद गंदे थे और उनका रंग उड़ चुका था. लेकिन बूढ़े के चेहरे पर रंगत थी. एक बाल सुलभ हंसी. हालांकि उसके मुंह में एक भी दांत नहीं था. जब वह हंसता था, उसकी मिचमिची छोटी आंखें बंद हो जाती थीं. तब उसका मुंह ऐसी अजीबोगरीब आकृति में ढलता कि बच्चे बिना पलक झपकाए बस देखते ही रहते…
इस बूढ़े का पिछले दो घंटों से इंतजार हो रहा है… मैं चकित था. अर्जुन राम. यह नाम है बूढ़े का, बौज्यू ने बताया. लेकिन कोई उसे इस नाम से नहीं पुकार रहा था. छोटे हों या बड़े, सभी उसे अर्जन्या ही कह रहे थे. सिवाय बौज्यू के. वह बहुत सम्मानजनक ढंग से उसका नाम ले रहे थे. यूं नाम से तो लगता था कि यह गठीले शरीर का लंबा-चौड़ा नुकीली मूंछों वाला आदमी होगा, परंतु यहां तो एकदम उलट स्थिति थी…
लेकिन यह बूढ़ा निरीह नहीं लग रहा था. अपने काम में माहिर था. और उसका काम? यही तो मेरे लिए सबसे बड़ा कौतुक था. मुझे बताया गया कि अपने काम के लिए वह इलाके भर में जाना जाता है.
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इसका नाम अर्जन्या ही ठीक है. अर्जुन राम इसके व्यक्तित्व से कतई मेल नहीं खाता, मैं सोच रहा था. लेकिन यह आदमी है तो गजब. वरना ऐसी लोकप्रियता किसी मामूली इंसान को थोड़े ही मिलती है. अर्जन्या आ गया? हां, अर्जन्या आ गया… गांव भर में जैसे उसी के नाम की चर्चा थी. जैसे आज अर्जन्या के इंतजार में सुबह हुई हो… दोपहर और शाम उसी के नाम कटने वाली हो… मैं हैरत में था.
बौज्यू अर्जन्या के लिए हुक्के में तंबाकू भरकर ले आए थे. लेकिन उसने कहा, ‘पांडे ज्यू महराज, मैं सिर्फ अपने हुक्के में तमाख पीता हूं.’… और उसने अपने लिए लाया वह तंबाकू मय अंगार के अपने हुक्के में भर लिया था. उसने तेजी से दो-तीन कश लिये और गाढ़े धुंए की एक धारा ही जैसे उसके मुंह और नाक से निकल पड़ी. एकबारगी तो मुझे लगा कि उसकी आंख और कान से भी धुआं निकल रहा है. फिर मुझे महसूस हुआ कि यह अब बुरी तरह खांसने वाला है. ऐसी खांसी कि अंतड़ियां उलट जाएं. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. अर्जन्या ने कुछ और जोरदार कश लेने के बाद हुक्के को उलट दिया और फिर उस पर पानी छिड़क दिया.
तब तक बौज्यू उसके लिए पीतल के बड़े गिलास में चाय ले आए थे. साथ ही गुड़ की कटकी. लेकिन बूढ़े ने जैसे उन्हें नजरअंदाज किया और जा पहुंचा आंगन के किनारे बंधे उस बौड़ के पास. उसकी भरपूर नजर पता नहीं क्या तौल रही थी. बछड़े ने जब जोर से फूंऽऽऽ की, तभी बूढ़ा वहां से हटा और वापस अपनी जगह बैठ गया. बौज्यू से चाय ली और फूंक मारता हुआ सुड़क-सुड़क कर पीने लगा.
इतनी देर में बच्चों का रैला उसे पूरी तरह घेर चुका था. बच्चे उसे किसी अजूबे की तरह देख रहे थे और वह भी बच्चों के बीच मुग्ध था. बच्चे उसे लेकर किस्म-किस्म की दिलचस्प बातें कर रहे थे. मैं उनकी बातें ध्यान से सुन रहा था.
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‘बताओ अर्जन्या क्या खाता है?’
‘बौड़ के अंडुए.’
‘अंडुए मुंह में रखता है और दवाई की गोली की तरह निगल जाता है.’
‘इसके दांत नहीं हैं, वरना चबाकर खाता.’
‘चबाता नहीं, इसीलिए तो बौड़ के अंडुए सीधे इसके अंडुवों में फिट हो जाते हैं…’
मुझे पता नहीं था कि मेरे अलावा बौज्यू के कान भी इन बच्चों की बातों में लगे हैं. उन्होंने एक जोरदार हांक लगाई, ‘भागो यहां से. तुम लोगों का यहां क्या काम? कोई तमाशा चल रहा है क्या?’
कुछ बच्चे वहां से खिसके और कुछ जमे रहे.
मेरा ध्यान अर्जन्या की तरफ गया. सचमुच उसके अंडकोष काफी बड़े थे. निश्चित रूप से वह हाइड्रोसिल की बीमारी से पीड़ित था. उसने इन्हें अपनी छोटी धोती से ऐसे कस कर बांध रखा था, गोया कीमती गहनों की कोई पोटली हो.
इस बीच एक-दो बच्चे कुछ ज्यादा ही उद्दंडता पर उतर आए. उन्होंने कुछ कंकड़ उसकी इस अनोखी पोटली की ओर उछाले ही थे कि अर्जन्या ने फुर्ती से इनमें से एक बच्चे को पकड़ लिया और फिर उसकी टांगों के बीच उसका हाथ था. ओ बाबा हो… ओ इजा हो… कहकर उसने जो चीख पुकार मचाई कि सारे के सारे बच्चे उस जगह से दूर खड़े नजर आए. कई बार माफी मंगवाने के बाद ही अर्जन्या ने उसको छोड़ा. वह गिरफ्त से छूटकर ऐसे भागा, जैसे उसे दूसरी जिंदगी मिली हो. वह रोने लगा था. हालांकि कुछ दूर जाकर उसने अर्जन्या को मां-बाप की ऐसी और इतनी गालियां दीं कि बौज्यू को हस्तक्षेप करना ही पड़ा. उन्होंने सभी बच्चों को दूर खदेड़ दिया. उनके हाथ में भीमल की लपलपाती सांकड़ी थी.
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अब अर्जन्या ने इत्मीनान से अपना काम शुरू दिया था. उसने जगह-जगह से सिले थैले में से पत्थर का एक गोल मटोल बट्टा निकाला. क्या यह कोई मसाला पीसेगा, सिल तो कहीं नजर नहीं आ रही है? मैं मन ही मन सोच रहा था. तभी बूढ़े ने भाषण देने जैसी मुद्रा में कहना शुरू कर दिया, ‘महराज, यह लोड़ी मेरे लिए भगवान ही हुई. इसी की कृपा से दो रोटी नसीब हुई ठहरी. मंदिर में रख दो, तो भगवान और रस्ते में डाल दो, तो पाषाण. मेरे जैसे निगुणी के हाथ आ गई यह लोड़ी, तो औजार बन गई और फिर मेरा व्यापार बन गई….’
बौज्यू तब तक रोली घोल कर ले आए थे. उन्होंने अक्षत और फूल-पाती के साथ इक्यावन रुपए रखकर एक थाली अर्जन्या की ओर सरका दी थी. अर्जन्या ने रोली का एक टीका अपने माथे लगाया और एक उस लोड़ी पर भी. अक्षत और फूल-पाती चढ़ाई. फिर उसने कहा, ‘पांडे ज्यू महराज, बौड़ को ले आओ.’
बौज्यू बौड़ को ले आए. वह नथुने फुलाए हुए था और फूंऽऽऽ फांऽऽऽ की आवाज निकाल रहा था. वाकई बौड़ गुस्सैल सांड़ बनने की राह पर था. परंतु जब तक अर्जन्या जिंदा है, यह संभव नहीं. पिछले साठ साल से अर्जन्या यह काम कर रहा है. पूरे इलाके में उससे कुशल बधिया करने वाला और कोई नहीं. ऐसा मुझे लोगों ने बताया.
अर्जन्या की सहायता के लिए गांव के आठ-दस युवक मौजूद थे. उसने इजा से एक लंबी और मजबूत रस्सी मांगी. इजा ने तैयार ही रखी थी. अर्जन्या ने दोबारा इजा को आवाज लगाई और कहा कि एक मूसल भी दे दें. इजा ने मूसल का भी इंतजाम कर रखा था.
अर्जन्या ने मिनट भर में रस्सी का फंदा तैयार कर बौड़ के पांवों में डाल दिया. उसे एक गोलाकार चक्कर लगवाया और फिर धड़ाम….
पलक झपकते ही सभी ने चारों ओर से बौड़ को दबोंच लिया. वह हिल भी नहीं पा रहा था. उसकी फूऽऽऽ फांऽऽऽ गायब हो गई थी. उसकी जगह म्मां… म्मां… की कातर आवाज थी….
इजा अंदर चली गई थीं. अर्जन्या ने मुझ से मूसल मांगा, जो कि वहीं रखा हुआ था. मैंने फुर्ती से उसे मूसल पकड़वाया. उसने बौड़ की टांगों के बीच यह मूसल कुछ इस तरह रखा कि लटकते अंडकोष आधार पा गए. इसके बाद अर्जन्या का हाथ बड़ी फुर्ती के साथ चलने लगा. उसने पल भर में ही कोई नस ढूंढ निकाली और शुरू हो गए लोड़ी के वार, एक… दो… तीन… चार….
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बौड़ ने ऐसी मर्मांतक ड्वां… ड्वां… की, जैसे वह जीवन के आखिरी क्षण जी रहा हो.
यह अमानवीय हरकत है. मैं अर्जन्या को एकटक देखे जा रहा था घृणा से भरा हुआ. लेकिन तब तक वह अपना काम कर चुका था. उसकी मिचमिची परंतु अनुभवी आंखों ने मेरी आंखों की घृणा को ताड़ने में जरा भी समय नहीं लगाया. बोल उठा, ‘जब मैंने पहली बार अपने बाप को यह करते हुए देखा था, मेरी आंखों में भी ऐसी ही घृणा थी. लेकिन विश्वास करें महराज कि बौड़ को संवारने के इस काम का सातवां दहाई शुरू हो गया है, लेकिन इतने वर्षों में आज तक किसी को एक गलत चोट नहीं मारी. जिसको बैल बनाया, उसने आखिरी सांस तक धरती का सीना चीरने की ताकत पाई.’
कुछ मिनट पहले तक जो बौड़ था, अब बैल बन चुका था. अर्जन्या ने एक बार फिर इजा को आवाज लगाई, ‘ओ गुसाईं, नौनी मक्खन लाओ और कुटी हुई हल्दी-दूब भी.’
इजा यह सब लिये न जाने कब से खड़ी थी. अर्जन्या ने बैल बन चुके बौड़ के अंडकोषों में यह सब बारी-बारी से लगाया. इसके बाद शुरू हुआ बौड़ को मुक्त करने का काम. पहले बौड़ की टांगों के बीच से मूसल निकाला गया और फिर उसके पावों से फंदा. बौड़ को पूरी ताकत से दबा रहे लोगों ने एक-एक कर अपने आपको अलग किया. बौड़ ने यकायक अपने आपको हल्का महसूस किया, तो जैसे उसकी जान में जान आ गई. वह धीरे से उठा और सीधे अपने गोठ की ओर दौड़ लगाई. लेकिन वह लड़खड़ा गया. अब उसमें पहले जैसी फुर्ती नहीं थी. उसकी पिछली टांगें दर्द से कांप रही थीं.
इसी समय अर्जन्या भी उठा और उसने इस नए-नए बैल बने बौड़ के पिछवाड़े प्यार से धौल जमाई, ‘पांच हजार हुई तेरी कीमत. जा अब गोठ में आराम कर. जो तकलीफ हुई, उसके लिए माफी दे.’
इसके बाद अर्जन्या बौज्यू की ओर मुड़ा और जैसे सख्त हिदायत दी, ‘महराज, आप तो सब जानने वाले ठहरे, लेकिन फिर भी बताए देता हूं कि हफ्ते-दस दिन इस बैल को कोई तकलीफ न होने पाए. इसे रोज गुड़ खिलाना और हरी घास का इंतजाम कर देना. ये हफ्ते-दस दिन ही इसके अपने हैं, बाकी तो पूरी जिंदगी अब इसे आपकी सेवा करनी है.’
अर्जन्या ने हाथ धोने के लिए पानी मांगा. मैं लोटा भर पानी ले आया. लेकिन उसने हाथ बाद में धोये, पहले पानी पिया.
बच्चे एक बार फिर अर्जन्या के चारों ओर घेरा बना चुके थे. बूढ़ा अर्जन्या भी फिर चुहलबाजी के मूड में आ चुका था.
‘महराज, इनमें से किसको संवारना है?’ यह कहते हुए वह बच्चों की ओर लपका. बच्चे ये गए और वो गए…. अब वह सुकून की सांस ले रहा था. मुझ से मुखातिब हुआ, ‘बाबू सैप! जगह-जगह बधिया केंद्र खुल गए हैं, लेकिन लोग इस उम्र में भी मुझे ही याद करते हैं. आस औलाद नहीं हुई ठहरी, वरना अस्सी की इस उम्र में यह सब थोड़े ही करना पड़ता.’
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अर्जन्या की मिचमिची आंखों में अब जाकर मुझे पीड़ा की एक गहरी परत दिखाई दी. अपनी बात कह देने के बाद वह काफी देर तक आंखें बंद किए रहा. मैं समझ गया कि अवश्य उसका गुजरा वक्त यादों के सहारे वापस लौट रहा होगा….
जैसी मुझे बौज्यू से जानकारी मिली, इस गुजरे वक्त में अर्जन्या के एक के बाद एक काल कलवित हुए चार बच्चे हैं. एक बेटी है, जिसका इतनी दूर ससुराल है कि वर्षों से उसकी शक्ल तक देखने को नहीं मिली. बुढ़िया को गुजरे तो अरसा बीत चुका है.
थोड़ी देर बाद अर्जन्या ने आंखें खोलीं और जैसे अपने आपसे कहा, ‘अकेला रह गया रे….’
‘अर्जुन राम, लो तमाख पिओ.’ बौज्यू की आवाज थोड़ी ऊंची थी. उन्हें लगा कि अर्जन्या थक कर चूर हो गया है और उसे झपकी आ गई है. लेकिन वह तो जैसे बौज्यू का ही इंतजार कर रहा था. वह शुरू हो गया, ‘पांडे ज्यू महराज, इंदिरा को देखे बिना मौत नहीं आनेवाली. इधर अल्मोड़े की तरफ जाना हो, तो उसे जरूर संदेशा भिजवा दें….’
इंदिरा…? यह कौन है, मेरे मुंह से अनायास निकल गया.
अर्जन्या ने सवाल का जो जवाब दिया, मेरे आश्चर्य का चरम था.
‘क्या बताऊं महराज, वह इंदिरा गांधी का जमाना था. पकड़-पकड़ कर नसबंदी की जा रही थी. मैं बोझा ढोने के लिए लोहाघाट गया था कि सरकारी आदमी मुझे मिल गए. मुझ से कहा कि वे डॉक्टर हैं और गरीबों का मुफ्त इलाज करते हैं. उन्होंने पूछा कि मुझे क्या कोई तकलीफ है? मैंने संयोग की बात समझी. अपना भाग्य उदय माना. उन दिनों मुझे पेशाब करने में रुकावट हो रही थी. गांव-घर के लोगों ने कहा था कि ये तो पथरी के लक्षण हैं…. मैंने हाथ जोड़ लिए कि सरकार, पेशाब बंद-बूंद कर बड़ी मुश्किल से उतरती है. बड़ी मेहरबानी होगी, अगर इसका इलाज हो जाए. उन्होंने यह कहते हुए साथ चलने का इशारा किया कि उनके पास इसका पक्का इलाज है. मैं खुश हो गया. अंधे को क्या चाहिए दो आंखें वाली कहावत जैसी बात हो गई ठहरी. इसके बाद वे मुझे अस्पताल ले गए. चीर-फाड़ कर दी. ऑपरेशन के बाद उन्होंने कुछ दिन आराम करने की सलाह दी. मैं मूरख प्रसन्न कि चलो मुफ्त में व्याधि गई. थोड़ी देर बाद पेशाब करने गया, तो देखा कि पेशाब तो पहले की तरह बूंद-बूंद ही उतर रही है. मैं फौरन डॉक्टरों के पास गया. वे ठहाका लगाकर हंसने लगे. मैं समझ गया कि मुझे छला गया है. जल्द ही पता चल गया कि मेरी नसबंदी कर दी गई है… एक भी जीवित औलाद नहीं और नसबंदी कर दी गई. मैं गांव के पीपल के नीचे भूमिया देव के थान में डाड़ मारकर घंटों रोता रहा. अब इसे भूमिया की कृपा कहो या डॉक्टरों की अधूरी विद्या, उसी साल मेरी लड़की हुई और मैंने इंदिरा गांधी के नाम पर उसका नाम रख दिया था इंदिरा देवी. एक और राज की बात है कि मेरी इंदिरा ने भी अपने बेटों के नाम रखे राजीव और संजय…’ अपनी बात पूरी कर बूढ़े ने फिर आंखें मिचमिचाईं.
मैंने अर्जन्या से मजाक किया, ‘इस हिसाब से तुम्हारा नाम जवाहर होना चाहिए था.’
अर्जन्या का जवाब था, ‘हां, एक यही कसर रही. वरना तो सब जानते हैं कि मेरी घरवाली का नाम कमली और बाप का नाम मोत राम…’
कमाल. वाकई कमाल. यह हाजिर जवाबी है या असलियत? मैं आश्चर्य से भरा हुआ अपने आप से पूछ रहा था.
अर्जन्या जाने की तैयारी करने लगा. दोपहर हो रही थी. बौज्यू ने अर्जन्या से कहा कि वह खाना खाकर ही जाए. अर्जन्या की बांछें खिल गई थीं. उसने कृतज्ञता से कहा भी कि उसने बहुत दिनों से दाल-भात नहीं खाया है…
(Arjanya Story by Hari Mridul)
बच्चे एक बार फिर आ गए थे. वे अर्जन्या को दाल-भात खाते हुए बड़े कौतुक से देख रहे थे. उनको गांव के किसी मसखरे ने कह दिया था कि इस बार अर्जन्या ने बौड़ के अंडवे मुर्गी के अंडों की तरह उबाले हैं….
दाल-भात खाता अर्जन्या मुस्करा रहा था और बच्चे आपस में खुसुर-पुसुर करते हुए खिलखिलाकर हंस रहे थे.
थोड़ी देर में अर्जन्या अपने गांव की ओर निकल पड़ा. एक निश्चित फासले पर चलते अब भी बच्चे उसके साथ थे. आपस में बतियाते, आश्चर्य से उसे निहारते और फिर चिढ़ाते हुए. मैंने देखा कि अर्जन्या एक बार फिर बच्चों की ओर लपका अपने खास अंदाज में. बच्चे गांव की ओर पलटे और फिर थोड़ी दूर जाकर रुक गए. अब तक अर्जन्या अपनी राह पर काफी आगे बढ़ चुका था.
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हरि मृदुल
कवि-कथाकार और पत्रकार हरि मृदुल का जन्म उत्तराखंड के चंपावत जिले के गांव बगोटी में 4 अक्टूबर, 1969 को हुआ. प्राइमरी तक उनकी शिक्षा गांव के ही स्कूल में हुई और फिर उन्होंने बरेली से स्नातकोत्तर किया. हरि मृदुल के अब तक दो कविता संग्रह ‘सफेदी में छुपा काला’ और ‘जैसे फूल हजारी’ प्रकाशित हो चुके हैं उनका अंग्रेजी में अनूदित एक कविता संग्रह You Are Worth Millions Sir (जनाब आप करोड़ों के हैं) और एक संग्रह ‘कैकि मया बाटुली की’ कुमाउंनी में भी प्रकाशित है. हरि मृदुल महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी का संत नामदेव पुरस्कार (2008), हेमंत स्मृति कविता सम्मान (2007), ‘कथादेश’ पत्रिका का अखिल भारतीय लघुकथा पुरस्कार (2009), कादंबिनी अखिल भारतीय लघुकथा पुरस्कार (2010), वर्तमान साहित्य कमलेश्वर कहानी पुरस्कार (2012), प्रियदर्शिनी पुरस्कार (2018), हिमांशु राय फिल्म पत्रकारिता पुरस्कार (2011) व रामप्रसाद पोद्दार पत्रकारिता पुरस्कार (2019) प्राप्त हो चुके हैं. वर्तमान में हरि मृदुल नवभारत टाइम्स, मुंबई में सहायक संपादक के पद पर कार्यरत हैं.
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