समाज

ऐड़ी: ऊंचे शिखरों पर रहने वाले लोक देवता

गांव में यह परम्परा थी कि जब भी गाय ब्याती (प्रसव) तो 22 दिन पूरे होने पर उस गाय का दूघ ऐड़ी देवता के मन्दिर में अर्पित किया जाता. 22 दिन से पूर्व का दूध ऐड़ी देवता को चढ़ाने के लिए अशुद्ध माना जाता और दिन पूरे होने पर यथासंभव शीघ्र ही यह संकल्प पूरा होता. ऐसी मान्यता थी कि ऐसा न करने पर ऐड़ी देवता रूष्ट हो जाते हैं, मवेशी दूध नहीं देते अथवा गोठ में बरकत नहीं होती. यूं कहें कि श्रद्धा से अधिक भय था कि अगर ऐसा नहीं किया तो अनिष्ट होगा. कभी-कभी खुरपका जैसी मवेशियों की संक्रामक बीमारियों से निजात पाने के लिए भी ऐड़ी देवता से मन्नम मांगी जाती. कुल मिलाकर ऐड़ी की मवेशियों के देवता के रूप में मान्यता थी. नाम ईकारान्त होने से स्त्री होने का भ्रम होने के कारण बचपन में हम ऐड़ी को देवी ही समझते थे.       
(Ari Devta of Byandhura Uttrakhand)

ऐड़ी देवता का मन्दिर गांव की सबसे ऊॅचे पहाड़ की चोटी पर एक ऐसे निर्जन स्थान में था, जहां दिन के समय भी अकेले जाने की हिम्मत नही होती थी. वीरान घने जंगल के बीच धार में ऐड़ी का थान हुआ करता, जिसमें प्रतिमाओं के नाम पर कुछ प्रस्तर खण्ड जिसमें ऐड़ी के अतिरिक्त उनके सहचरों के प्रतीक थे तथा धनुष-बाण एवं त्रिशूल आदि उनके अस्त्र-शस्त्र सजाये रहते. मन्दिर में नवप्रसूता गाय अथवा भैंस के दूध को अर्पित करने के साथ उसी दूध से बनी खीर तथा पुए आदि मन्दिर परिसर में ही बनाकर कर चढ़ाये जाते. इस रस्म अदायगी की बाद निश्चिन्तता हो जाती कि ऐड़ी देवता को सन्तुष्ट कर दिया है और मवेशियों में सुख-शान्ति रहेगी.

थोड़ा बड़े हुए तो पता चला कि कुमाऊॅ में राजपूतों की भी एक उपजाति ऐड़ी हुआ करती है. मन में जिज्ञासा हुई कि क्या इस उपजाति के लोग, लोकदेवता ऐड़ी के ही वंशज तो नहीं रहे होगें? यों भी पौराणिक देवी-देवताओं से इतर कुमाऊॅ के जितने भी लोकदेवता हैं, उनका ऐतिहासिक राजवंशों से ताल्लुक रहा है,  जो अपने जीवन के प्रांरभिक काल में अन्याय एवं अत्याचार से पीड़ित रहे और बाद में अपनी न्यायप्रियता से प्रजा में देवतुल्य स्थान पाया. लोक देवता, गोलज्यू, भोलानाथ, गंगनाथ, सैम, कलबिष्ट, नृसिंह या नारसिंग तथा ऐड़ी आदि इसी परम्परा के हैं. सच तो ये है कि लोकजीवन में पौराणिक देवी-देवताओं से पहले लोकदेवता अपनी पहचान रखते हैं. हालांकि इन ऐतिहासिक चरित्रों को देवी अथवा देवता तो नहीं कहा जा सकता लेकिन न्यायप्रियता के प्रति गहरी आस्था के कारण लोकजीवन में ये देवता से कमतर भी नहीं हैं.

लोकदेवताओं के आख्यानों का कोई लिखित एवं प्रामाणिक इतिहास उपलब्ध नहीं है. यह श्रुति परम्परा द्वारा लोकगाथाओं के माध्यम से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तान्तरित होकर असंख्य लोगों की वाणी से अपने- अपने अन्दाज में अलग-अलग ढंग से व्याख्यायित होता आया है. बहुत संभव है कि कथानक के साथ ही वाचक के स्मृति भ्रम से कथानक के सहायक पात्रों के नामों में भी अन्तर आ गया हो. लेकिन मोटा-मोटी तौर पर कहानी लगभग एक सी रही है कि ये राजवंशी थे, इनके साथ भी अत्याचार हुआ और बाद में अपने शासनकाल में लोगों को न्याय दिलाने में आज की तर्ज पर जनता अदालतें इन्होंने लगवाई. देहत्याग के बाद भी न्याय की गुहार लगाने वाले हर पीड़ित इन्सान को ये अवतरित होकर न्याय दिलाते हैं.

बचपन में बुजुर्गों के मुंह से ऐड़ी के डोले के रोचक प्रसंग सुनने को मिलते थे. कहा जाता था कि ऐड़ी का डोला मध्यरात्रि के उपरान्त आकाशमार्ग से एक पहाड़ी से दूसरी पहाड़ी को जाता है. प्रायः ऐड़ी का मन्दिर पहाड़ की उत्तुंग शिखरों पर ही हुआ करते हैं, मान्यता थी कि ये इन्हीं शिखरों की यात्रा पर निकलते हैं. जिनमें इनके सहायक शाऊ व भाऊ कुत्ते की सवारी पर इनके साथ चलते हैं जो भैरव देवता के प्रतीक माने जाते हैं तथा आंचरी-चांचरी भी साथ चला करते हैं.
(Ari Devta of Byandhura Uttrakhand)

मान्यता है कि जो भी व्यक्ति इस डोले को देखता है अथवा साथ रहने वाले कुत्तों के भौंकने की आवाज सुनता है तो उसकी मृत्यु हो जाती है, लेकिन यदि कोई हिम्मती इन्सान इस डोले को मजबूती से पकड़ लेता है, तो ऐड़ी देवता उसे मुंह मांगा वरदान देकर डोला छुड़वाती हैं. ऐसा भी कहा जाता है कि ऐड़ी के पैर पीछे की ओर होते हैं और आंखें सिर के तलुवे पर होती हैं. इसका कोई चश्मदीद तो नहीं लेकिन लोकमान्यता है.

ऐड़ी देवता के अवतरण के लिए लगाई जाने वाली जागर में गायी जाने वाली लोकगाथा के अनुसार ऐड़ी मूलतः नेपाल के थे. ये बाईस भाई थे, जो अपनी न्यायप्रियता से प्रजा में इतने लोकप्रिय हो चुके थे कि इनकी लोकप्रियता व धनवैभव से ईर्ष्यावश इनके कुलपुरोहित केशिया डोटियाल ने एक दिन इनकी बावड़ी में जहर डालकर इन्हें मारने की योजना बनाई और वह इसमें सफल भी हुआ. लेकिन इनके दास धर्मदास को जब स्वप्न में यह पता चलता कि ऐड़ी भाइयों को विष देकर मरवाया गया है, तो वे उनके अलग-अलग बने कक्षों में जाते हैं और सभी भाइयों की मृत देह को देखकर दुखी होते हैं.

धर्मदास अपने किसी दूत को भेजकर बैराठ क्षेत्र से जड़ी बूटी रूप में औषधि मंगवाते हैं. उल्लेखनीय है कि यह वही क्षेत्र द्वाराहाट के पास द्रोणगिरि हो सकता है, जहां से हनुमान जी संजीवनी बूटी ले गये थे. बैराठ से लायी गयी बूटी से सभी भाई फिर से जीवित हो उठते हैं. विरक्ति में इन्हीं में से कोई भाई नैनीताल व चम्पावत की सीमा पर उच्च शिखर पर स्थित ब्यानधुरा में तपस्या करने लगते हैं. यद्यपि पहाड़ विशेष रूप से काली कुमाऊॅ के हर क्षेत्र में ऐड़ी देवता के थान हैं, लेकिन ब्यानधुरा अकेला ऐसा ऐतिहासिक स्थान है, जहां ऐड़ी का वास्तविक वास माना जाता है और यहीं ऐड़ी देवता का हजारों वर्ष पुराना मन्दिर विद्यमान है. इन्हें आखेट का शौकीन बताया गया है. आखेट के लिए ऐड़ी को धनुर्विद्या में भी पारंगत बताया गया है. इसीलिए ऐड़ी के मन्दिर में भेंट जाने वाले भोग के अतिरिक्त अस्त्र-शस्त्र भी भेंट किये जाने की परम्परा है. प्रमुख रूप से धनुष-बाण तथा त्रिशूल आदि मुख्य चढ़ाये जाने वाले हथियार हैं.

बताते हैं कि ब्यानधुरा के ऐड़ी मन्दिर में सौ मन का धनुष तथा अस्सी मन का बाण आज भी विद्यमान है. उनकी धनुर्विद्या को लेकर यह भी लोकमान्यता है कि वे महाभारतकालीन अर्जुन के अवतार हैं. कालीकुमाऊॅ क्षेत्र में इनकी मान्यता अधिक होने, ब्यानधुरा का नेपाल क्षेत्र के निकट होने के कारण इनके मूलतः नेपाली होने के प्रमाण को को सत्यता के करीब लाती है. कुमाऊॅ की ऐड़ी उपजाति इनके ही वंशज रहे अथवा नहीं यह शोध का विषय है.
(Ari Devta of Byandhura Uttrakhand)

भुवन चन्द्र पन्त

वर्तमान में भवाली रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी . 2014 में भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय नैनीताल से सेवानिवृति के बाद भुवन चन्द्र पन्त  विविध विषयों पर स्वतंत्र लेखन करते हैं.

हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online

इसे भी पढ़ें: बचपन में दशहरा द्वारपत्र बनाने की ख़ुशगवार याद

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

Recent Posts

सर्दियों की दस्तक

उत्तराखंड, जिसे अक्सर "देवभूमि" के नाम से जाना जाता है, अपने पहाड़ी परिदृश्यों, घने जंगलों,…

18 hours ago

शेरवुड कॉलेज नैनीताल

शेरवुड कॉलेज, भारत में अंग्रेजों द्वारा स्थापित किए गए पहले आवासीय विद्यालयों में से एक…

7 days ago

दीप पर्व में रंगोली

कभी गौर से देखना, दीप पर्व के ज्योत्सनालोक में सबसे सुंदर तस्वीर रंगोली बनाती हुई एक…

1 week ago

इस बार दो दिन मनाएं दीपावली

शायद यह पहला अवसर होगा जब दीपावली दो दिन मनाई जाएगी. मंगलवार 29 अक्टूबर को…

1 week ago

गुम : रजनीश की कविता

तकलीफ़ तो बहुत हुए थी... तेरे आख़िरी अलविदा के बाद। तकलीफ़ तो बहुत हुए थी,…

1 week ago

मैं जहां-जहां चलूंगा तेरा साया साथ होगा

चाणक्य! डीएसबी राजकीय स्नात्तकोत्तर महाविद्यालय नैनीताल. तल्ली ताल से फांसी गधेरे की चढ़ाई चढ़, चार…

2 weeks ago