इस ट्रैवलाग ने एलानिया कहानी बनने की तरफ पहला गोता मार दिया है. लेकिन मैं इसे पूरी ताकत लगाकर कहानी होने से बचाना चाहता हूं क्योंकि हमारे जीवन का यथार्थ कहानी से कहीं ज्यादा दिलफरेब है. कहानियां जो कभी आत्मा की खुराक हुआ करती थीं से दूरी का कारण भी यही है. खासतौर से इन दिनों की हिन्दी की कहानियां पता नहीं किस लोक की हैं. उनमें हमारा जीवन नहीं है जिनका है वही पढ़ते भी होंगे. हिन्दी बोलने वाले तो नहीं पढ़ते.
मिसाल के तौर पर यही देखिए कि अवसाद दिखाने के लिए मैंने लिख मारा है कि रेल के डिब्बे में चालीस वाट का पीला लट्टू जल रहा था. हमारी ट्रेनों में चालीस वाट के बल्ब नहीं लगते. किशोरावस्था के चिबिल्लेपन में अपना होना साबित करने के लिए गाजीपुर जिले के सादात स्टेशन से माहपुर रेलवे हाल्ट के बीच मैने दर्जनों बल्ब चुराए हैं और होल्डर में ठूंसने के बाद उन्हें फूटते देखा है. अब अगर कोई एमएसटी धारी पाठक यह नतीजा निकाले कि यह संस्मरण लिखने वाला कल्पना के हवाई जहाज पर चलता है लेकिन उसने ट्रेन में कभी सफर नहीं किया है तो मुझे पिनपिनाना नहीं चाहिए.
“बिना मकसद बताये यात्रा के लिए चंदा बटोरा गया और अखबार के दफ्तर से तनख्वाह भी मिल गयी थी” किस अखबार के दफ्तर से लेखक बेटे!
इन दिनों स्मृति मेरे साथ यह खेल कर रही है मैं जिस घटना को याद करना चाहता हूं मुझे उससे तीन-साढ़े तीन साल पीछे के समय में ले जाकर खड़ा कर देती है, घटनाएं अपनी जमीन से उजड़ कर प्रवासियों की तरह नई ही दिशा में चल पड़ती हैं. यह कुछ वैसा ही है जैसे कि विपाशा बसु बीड़ी फूंकते हुए बताएं कि उनकी पहली फिल्म बावरे नैन थी जिसमें कन्हैया लाल के अपोजित उन्होंने एक नटखट विधवा का रोल किया था.
उन दिनों की एक डायरी पलटने से पता चला कि मैं एक साल से बेरोजगार था. एक मित्र की छत पर बने अकेले कमरे में दरी पर सोता था. हर सुबह आत्मसम्मान के बोझ और घर से उठती खाने की खुशबू न झेल पाने के कारण दबे पांव वहां से निकल लेता था. कभी कभार पकड़ कर नाश्ते की मेज पर बिठा दिया जाता था तो एक संत की तरह बड़ी-बड़ी बातें ठेलता हुआ नाम मात्र का मुंह जूठा कर लेता था. वहां से दादा की दुकान के बीच सात किमी के पैदल पथ में ठेले का सबसे मोटा खीरा या भुट्टा कुतरते हुए चला जाता था. कभी-कभार चेतना पुस्तक केन्द्र खुलने से पहले ही पहुंच जाता था मानो दुनिया में मेरा कोई और ठिकाना ही नहीं था. कोई ग्यारह बजे तक दुर्गा दादा एक धूपी चश्मा आंख पर चढ़ाने के बाद अपने पैर काउंटर पर पसार देते थे और मैं उनकी कुर्सी की टूटी हुई पीठ, किताबों की रैक पर टेक कर फर्श पर पसर जाता था. बहुत बिरले सुखद हस्तक्षेप सा चमत्कार घटता कि कोई लड़की उनकी घिसी पतलून से निकले उनके ढीठ पैरों को तरेरती हुई योगा या कुकरी की किसी किताब का नाम बताती. दादा को मानो मुंहमांगी मुराद मिली. वे क्षण भर का सेल्समैन बनने को आतुर मुझे देखते फिर पैर हिलाते एक-एक शब्द का मजा लेते हुए कहते- “कुकरी-फुकरी नहीं मैडम यहां सोशल चेंज की किताबें मिलती हैं, इफ यू डोंट माइंड, ट्राई टू अंडरस्टैंड वी आर इन बिजनेस ऑफ रिवोल्यूशन´´हड़बड़ाती लड़की की जाती हुई पीठ देखते हुए स्वगत बड़बड़ाते, साली कुकुरी, पता नहीं कहां-कहां से चपंडक चले आते हैं यहां, क्या जमाना आ गया है.
मुझे लगता कि उनके चेहरे पर लगभग, अवश्य, संतुष्ट, कपट मुस्कान है और मैं किसी किताब में और धंस जाता. अक्सर यह कोई दोस्तोवस्फी, सोलोखोव, मायकोवस्की नहीं कॉमिक्स या बाल कविता की किताब होती थी. इतना क्षेपक इसलिए कि जरा सी चूक से इस यात्रा में अभी कहानी के सलमे-सितारे सज चुके होते और उसमें से जीवन का वह अवसाद घुला, खिन्न और कठिन समय भाग खड़ा होता. तब हाथी घोड़ा पालकी फिर उसी तुक में जय कन्हैया लाल की बताने के सिवा और बचता ही क्या?
डायरी के मुताबिक यह 15 सितंबर 2000 की खुनकी भरी सुबह थी.
तो अब हिसाब दुरुस्त कर लिया जाये. दुर्गा दादा की जैकेट के नीचे कुर्ता था. कुरते के नीचे बंडी थी जिसमें दिल के ऊपर गुप्त जेब थी. गुप्त जेब में साढ़े आठ सौ के आसपास रुपये जतन से रखे थे. यकीन मानिए यह सबसे बड़ी रकम थी जो हाल के वर्षों में उन्होंने देखी होगी. उन्हें करीब 600 रुपये हर महीने पार्टी वेज देती थी और हर शाम को शटर गिराने से पहले हिसाब मैं ही जोड़ता था. हर दिन क्रांतिकारी विचारधारा के मानवीय व्यापार में बिक्री का औसत हर दिन बीस से साठ रुपये के बीच रहता था. मेरी जेब में कुल साठ-पैंसठ थे. टूर आपरेटरों की गाइडपना जताती लनतरानियों और टैक्सी ड्राइवरों की बकबक के बीच हम रूद्रप्रयाग जाने वाली सरकारी बस तलाश रहे थे जिसका किराया सबसे कम हो. दो दुनिया से नाराज, बुरी तरह उकताए दोस्त…एक बेरोजगार पत्रकारनुमा युवा और एक बूढ़ा कामरेड आतुर भाव से पहाड़ों की रहस्यमय झिलमिली को ताक रहे थे. क्या पता वहां जिंदगी वैसी दमघोंटू न हो?
(क्रमशः)
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