पहाड़ की कराह निकली… वह बोला मैं टूट रहा हूँ, बचा लो मुझे!  मैं धंस रहा हूँ, देखो संभालो मुझे! उसके तन-मन से जुड़े नदी, चट्टानों, पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों, कीट-पतंगों में उथल-पुथल मची हुई है. लेकिन इस आवाज़ को सुनने वाला कोई नहीं, इस पहाड़ के आसपास के रहवासियों को इतनी भी फुरसत नहीं कि वह देखें या समझे उस आवाज़ के मायनों को. (Essay About Mountains)

ऐसा नहीं कि वे जानते और समझते नहीं प्रकृति के बदलावों को. क्योंकि प्रकृति ही तो जीवन की ज़रूरतें पूरी करती है मानव की. लेकिन जब मानव अपने मुनाफे की खातिर उसका इतना दोहन करने लगे कि प्रकृति वजूद ही डगमगाने लगे तो वह खामोश नहीं रहती. बल्कि प्रतिरोध करती है, शायद यह पहाड़ की कराह उसका प्रतिरोध ही मालूम हो रहा है.

वह बोल रहा है! बहुत समय पहले मैं विपत्तियों में भी खुश रहता था. खुश होता था, जब मेरे पेड़ों पर बसंत आता था. सूरज की तेज़ रोशनी मुझको भाती थी, जो नए पौधों को पोषण देती थी. बरसात की फुहारें मेरे तन-मन को महका देती थीं. पक्षियों की चहचहाहट और पशुओं का इस पार से उस पार दौड़ना, कुलांचे भरना और अपने जीवन के लिए संघर्ष करना ही मेरे होने की निशानी थी. मानव की बसासतों को मैंने स्वीकार कर लिया था. उनके दुखों को मैं अपने भीतर समा लेता था तो उनकी ख़ुशी में भी शामिल होता था.

लेकिन जिस मानव को मैंने कभी विपदाओं से बचा कर अपनी गोद में पनाह दी थी, वही आज मेरे जीवन से खिलवाड़ करने लग गया. मेरे जंगल कटने लगे, वनस्पति उजाड़ी जाने लगी, जीवों के साथ अत्याचार बढ़ गए, जड़ी-बूटियों का अंधाधुंध दोहन होने लग गया. मुझे उर्जा देने वाली मिटटी और पानी मुझसे छीना जाने लगा तो आखिर धीरे-धीरे मुझे कमज़ोर तो होना ही था. फिर भी मैं खामोशी से सब सहता जा रहा था. क्योंकि प्रकृति पर मुझे भरोसा था. उसके ऋतु चक्र मुझ पर ईनायत करते और नई पौध मुझे पोषित करने के लिए फिर से मेहनत करती, और मैं फिर से अपनी ऊर्जा को बटोरने लगता.

लेकिन तुम सबने मिलकर अपनी ख़ुशी और विकास की खातिर डायनामाइट के विस्फोटकों से मेरे टुकड़े करने शुरू कर दिए. जेसीबी के विशालकाय दांतों से हर दिन मेरा सीना छलनी होने लगा, बड़ी-बड़ी मशीनों से मेरे शरीर को रौंदा जाने लगा. एक और तो मुझे भीतर से सुरंग बनाकर खोखला करना शुरू किया और दूसरी और बड़े होटल, रिजॉर्टस और बड़ी विकास परियोजनाओं के नाम पर मेरे पानी को बाँधने लगे. इतने दवाबों को अब मेरे लिए सहन करना मुश्किल हो गया. मैं शरीर से ही नहीं बल्कि मन से भी लगातार कमजोर होने लग गया हूँ. मेरे शरीर को ना जाने कितने ही कोणों से छलनी कर दिया गया है. सरकार के बड़े प्रोजेक्टों के शोर में अब मेरा सुनना और देखना कम हो रहा है. मुझे क्षत-विक्षत किया जाने को तुम सब खामोश बनकर देखते रहे हो. तुम्हारे पुरखे तो फिर भी मेरे प्रति वफादार थे, वे मेरा ज़रूरत भर का ही इस्तेमाल करते थे. लेकिन तुम सब मुझे दगा दे रहे हो. तुम्हारे बीच के कुछ लोगों ने ही मेरी सम्पदा की नीलामी शुरू कर दी, वे मेरी दलाली कर रहे हैं. लेकिन तुम सब आँखें मूंदे अपने बारे में ही सोचते रहे हो. मेरे लिए बोलने वालों की आवाजें धीमी ही रही हैं. लेकिन मेरे दर्द की आवाजें तेज़ हो रही हैं.

आज जब मेरे पत्थर गिरते हैं तो तुम सोचते तो हो कि मैं कमजोर हो रहा हूँ. तेज बारिश या मौसम के बदलावों, बादल फटने, ग्लेशियेर पिघलने आदि को तुम ग्लोबल वार्मिग कहकर कमरों के भीतर चर्चा करने के लिए एकजुट हो जाते हो. लेकिन विकास की भूख पर काबू करने के लिए तैयार नहीं होते हो. तुम्हारी यह भूख जब मेरे मासूम छोटे-बड़े पेड़-पौधों, जीव-जंतुओं के जीवन को निगलने लगती है और मेरे अवयवों को जोड़े रखने वाली मिट्टी लहू की तरह बहने लगती है तब तुम नज़रें चुरा लेते हो. इतना ही नहीं, तुम मेरे इस क्षरण से भी पैसा बनाते हो.

इसे भी पढ़ें : संकल्प : पहाड़ी घसियारिनों की कहानी 

क्या तुम मेरी उस पीड़ा को महसूस करने की कोशिश कर सकते हो? जब मुझे वर्षों से थामे हुए विशालकाय पेड़ों को जड़ें मुझसे जुदा होती हैं, मुझसे जीवन लेने वाले हजारों जीव मर जाते हैं, मुझ में ही मानव बसासतें दफ्न हो जाती हैं. तुम बहरे बन जाते उस वक़्त, मेरी कराह को तुम सुनकर भी अनसुना कर देते हो. मैंने तुमको अपनी गोद में खिलाया, पानी दिया, ठंडी बयार दी, साँस के लिए आक्सीजन दिया, तुमको जीने का सलीका सिखाया और आज तुमको ही मेरी परवाह नहीं है. तुम उन बेगानों की खातिर मेरा सौदा करने को तैयार हो गए, जिनके लिए मुनाफा ही सबकुछ होता है. तुम स्वार्थी हो, क्योंकि तुम सिर्फ अपने बारे में सोचते हो. प्रकृति की आवाज़ तुम सुनकर भी अनसुनी कर देते हो.  

अब जब मैं बुरी तरह थक कर टूटने लगा हूँ, भीतर तक औजारों से छलनी कर दिया गया मेरा शरीर कई जगह से रिस रहा है. मेरे कमज़ोर शरीर की थरथराहट से जब तुम सबका जीवन प्रभावित हो रहा है तो तुम्हारी आवाज़ ऊँची हो रही है. यदि मेरी दलाली करके मुझे बेचा नहीं गया होता तो आज ना मेरी यह हालात होती और ना तुम लोग बेघरबार होते. अब जब मेरे क्षरण का प्रभाव तुम पर पड़ने लगा है तो तुम दुखी हो रहे हो, रो रहे हो! तुम यह सोच कर भी आश्वस्त हो रहे हो कि सरकार तुम्हें पैसा देकर किसी मैदान या अन्य जगह में बसा देगी तो अच्छी बात है. तुम्हें मुझे छोड़कर जाने में कोई भी दुःख नहीं हो रहा है. तुम्हारा मेरे प्रति जो झूठा लगाव था, वह भी साफ दिख रहा है. कल तक तुम मेरे जंगल, पानी और जमीन बचाने की बातें करते थे, अब अपनी सुख की कीमत पर मुझे छोड़ कर जा रहे हो.

सुनो! जिसको तुम अपने लिए न्याय कहते हो, वह मेरे लिए अन्याय है. तुम क्या सोचते हो कि तुम मुझे छोड़कर टिहरी और अन्य जगह के विस्थापितों की तरह मैदानों में या अन्य जगहों में चले जाओगे तो खुश रहोगे? अपनी जगह से विस्थापित होने का क्या दर्द होता है पूछो उनसे. भले ही उनको सुविधाएँ मिल गई है लेकिन वो जहाँ भी हैं पहाड़ को भूले नहीं हैं. आज भी उनके हर लम्हे में मेरी यादें हैं. तुमको क्या लगता है तुम मुझे छोड़ कर चले जाओगे तो मेरे आसपास के पहाड़, बूढ़े पेड़, नई पौध, पशु-पक्षी, कीट-पतंगे सब खामोश रहेंगे? तुम भले ही मेरी आवाज़ को आज नहीं सुन पा रहे हो, लेकिन यह याद रखो मेरे भीतर लगातार आवाज़ गूँज रही है. मै गूँज रहा हूँ … मेरे आंसू बह रहे हैं… मुझ में जीवन है.

मैं पत्थर हूँ

मैं पत्थर हूँ
जीवन है मुझ में
सुनता और पहचानता हूँ हर उस आहट को
जो आती है मुझ तक
स्पन्दन है मुझ में
नफरत से ठुकराया जाता हूँ तो
मेरा प्रतिरोध कर देता है घायल
सहज स्पर्श को लौटा देता हूँ
अपने भीतर की कोमलता
चट्टान होता हूँ जब अकेला होता हूँ मैं टूटता-बिखरता
टूटता,लुढकता जब मैं
जा मिलता हूँ नदी में तो अकेला नहीं रहता.
तेज़ धारों से टकराता
तेज़ धारों से टकराता, खिलखिलाता
नदी की अठखेलियों पर मुग्ध होता
आखिर समा जाता हूँ उसमें ही
अंतिम कण बनने तक.
तब तक जब तक
बहती है वह साथ मेरे
मैं उसके जीवन से
जीवन लेता हूँ
और अंततः धरा को करता हूँ उर्वर
निर्जीव नहीं हूँ मैं
मैं बार –बार बनता हूँ
टूटता हूँ
फिर बनता हूँ 
मैं कभी खत्म नहीं होता
मैं पत्थर हूँ
जीवन है मुझ में…

विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में राजनीतिक, सामाजिक विषयों पर नियमित लेखन करने वाली चन्द्रकला उत्तराखंड के विभिन्न आन्दोलनों में भी सक्रिय हैं.
संपर्क : chandra.dehradun@gmail.com +91-7830491584

हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online 

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Sudhir Kumar

Recent Posts

पहाड़ों में मत्स्य आखेट

गर्मियों का सीजन शुरू होते ही पहाड़ के गाड़-गधेरों में मछुआरें अक्सर दिखने शुरू हो…

14 hours ago

छिपलाकोट अन्तर्यात्रा : जिंदगानी के सफर में हम भी तेरे हमसफ़र हैं

पिछली कड़ी : छिपलाकोट अन्तर्यात्रा : दिशाएं देखो रंग भरी, चमक भरी उमंग भरी हम…

17 hours ago

स्वयं प्रकाश की कहानी: बलि

घनी हरियाली थी, जहां उसके बचपन का गाँव था. साल, शीशम, आम, कटहल और महुए…

2 days ago

सुदर्शन शाह बाड़ाहाट यानि उतरकाशी को बनाना चाहते थे राजधानी

-रामचन्द्र नौटियाल अंग्रेजों के रंवाईं परगने को अपने अधीन रखने की साजिश के चलते राजा…

2 days ago

उत्तराखण्ड : धधकते जंगल, सुलगते सवाल

-अशोक पाण्डे पहाड़ों में आग धधकी हुई है. अकेले कुमाऊँ में पांच सौ से अधिक…

3 days ago

अब्बू खाँ की बकरी : डॉ. जाकिर हुसैन

हिमालय पहाड़ पर अल्मोड़ा नाम की एक बस्ती है. उसमें एक बड़े मियाँ रहते थे.…

3 days ago