उत्तराखंड में प्रत्येक बारह वर्ष में होने वाली ऐतिहासिक नंदा देवी राज जात भाद्रपद महीने के शुक्ल पक्ष की अष्टमी यानी नन्दाष्टमी को की जाने वाली एक देवयात्रा है जिसे कुमाऊँ में अल्मोड़ा और गढ़वाल के सीमान्त जनपद चमोली की कन्या की विदाई के रूप में मनाया जाता है.
यहाँ के लोगों की आस्था है कि कैलाश वासी भगवान् शिव को पति के रूप में वरण करने वाली नन्दा (पार्वती) इसी क्षेत्र की पर्वतीय कन्या थी जो प्रतिवर्ष अपनी ससुराल यानी त्रिशूल पर्वत (बधाण) से श्रावण मॉस में कुछ दिनों के लिए अपने परिजनों से मिलने के लिए अपने मायके चांदपुर आती हैं और नन्दाष्टमी के कुछ दिन पूर्व यहाँ के सभी बड़े-बूढ़े-बच्चे उसे सभी आवश्यक भेंट-सौगात के साथ स्नेहपूर्वक ससुराल के लिए विदा करते हैं.
इसी वार्षिक अनुष्ठान को नन्दा जात कहा जाता है लेकिन इसके अतिरिक्त प्रत्येक बारह वर्षों के बाद यहाँ के राजवंशीय कुंवारों द्वारा उसे ससुराल भेजने को जो समारोह सरीखा विशिष्ट राजकीय आयोजन किया जाता है, उसे नंदा राज जात के नाम से जाना जाता है. माना जाता है कि गढ़वाल के राजा शालिपाल ने इस की शुरुआत सातवीं शताब्दी में की थी.
नंदा जात हर साल अगस्त-सितम्बर में होती है. यह कुरूड़ के नन्दा मन्दिर से शुरू होकर बेदनी तक जाकर वापस आती है. नंदा राज जात हर बारह वर्षों में होती है. इस यात्रा में लगभग ढाई सौ किलोमीटर की सघन वनों, पथरीले दुर्गम रास्तों और चोटियों-दर्रों की यात्रा तय की जानी होती है.
पिछली बार यह यात्रा वर्ष 2014 में हुई थी. देश विदेश से बड़ी संख्या में आ कर लोगों के इस में शिरकत की थी.
इस भव्य धार्मिक आयोजन के कुछ अनूठे फोटोग्राफ ले कर आये हैं जयमित्र सिंह बिष्ट.
नंदा राज जात के बारे में विस्तार से जानने के लिए हमारी यह पोस्ट भी पढ़ें : आस्था और जीवट का महाकुम्भ है नंदा राजजात यात्रा
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जयमित्र सिंह बिष्ट
अल्मोड़ा के जयमित्र बेहतरीन फोटोग्राफर होने के साथ साथ तमाम तरह की एडवेंचर गतिविधियों में मुब्तिला रहते हैं. उनका प्रतिष्ठान अल्मोड़ा किताबघर शहर के बुद्धिजीवियों का प्रिय अड्डा है. काफल ट्री के अन्तरंग सहयोगी.
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