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अल्मोड़ा में स्कूली दिनों की यादें

उम्र साढ़े तीन साल, कद करीब 3 या 4 फुट. पता नहीं कैसी दिखती थी मैं. बस यह जरूर याद है कि शिशु मंदिर की कक्षा में ‘शिशु’ कक्षा सर्वप्रथम कक्षा थी. ग्राउंड फ्लोर में होती थी वह क्लास. यह भी याद नहीं कि कौन-कौन पढ़ते थे मेरी क्लास में, अभी सोचूं तो क्या सिर्फ मैं अकेली थी वहां. शिशु मंदिर नाम याद करते ही होठों में अपने आप मुस्कुराहट आ जाती है. (Almora Memoirs of Shipra Pandey)

मैं कभी भी मेधावी छात्रा नहीं रहीं हूं, कभी भी नहीं. पर कुछ ऐसे नाजुक विषय हैं जिनमें कोई कभी भी मेरा हाथ पकड़ नहीं पाया. मेरा स्कूल आजकल के विद्यालयों की तरह कई एकड़ में नहीं फैला था, थोड़ी सी जगह मिली थी उसे बच्चों का विकास करने के लिए. चुड़कानी, कढ़ाही और बारिश

विवेकानंद स्कूल के ठीक नीचे था शिशु मंदिर, पानी पीने की जगह से दिखता था उनका प्लेग्राउंड. पहले पंचम कक्षा तक ही था, पर जब मैंने अल्मोड़ा छोड़ा, उसके कुछ दिनों बाद ही उसमें कुछ नये क्लास बन गये थे. मुझे यह भी सही से याद नहीं थी कि स्कूल ड्रेस क्या थी, शायद स्कर्ट ही रही होगी पर थी नीले रंग की.

आज के स्कूली सिस्टम को देखूं तो लगता है कि सही मैं हमने जो पढ़ाई की, जो संस्कार सीखे वो गजब के थे. स्कूल की घंटी बजते ही शुरु हो जाती थी एसेंबली. सबसे पहले प्राणायाम और फिर प्रार्थना. सरस्वती वंदन से लेकर क्या नहीं सिखाया जाता था. एक पुस्तक में जीवन के बहुत सारे मूल्य समाहित थे. कराग्रे वसते लक्ष्मी, कर मध्ये सरस्वती, कर मूले: तु गोविंदं, प्रभाते कर दर्शनं. अर्थात हमारे हाथों में आगे के भाग में लक्ष्मी, बीच में सरस्वती, मूल में गोविंद रहते हैं, इसलिए सुबह उठकर अपने हाथों का दर्शन कर उसे प्रणाम करना चाहिए.

आज जब मैं बड़ी हो गयी हूं तो उस रट्टामार श्लोकों को समझने के मेरे मायने बदल चुके हैं. यह हाथ, दुनिया में सबसे बड़ी चीज है, यह हमारा कर्म है, इससे हम अपना जीवन चलाते हैं. शिशु मंदिर में संभवत: कर्म को सबसे बड़ी उपलब्धि माना गया है. हमें अपने कर्म पर विश्वास रख उसपर निरंतर चलते रहना चाहिए. अगर कर्म करेंगे तो लक्ष्मी, सरस्वती एवं गोविंद सभी हमारे साथ रहेंगे. वो ऐसे कि सरस्वती हमें ज्ञान देंगी, उस ज्ञानोर्पाजन करने करने के बाद हम कमाने के लिए इस दुनिया में निकलेंगे और इन सब आपाधापी के बीच गोविंद हमारी रक्षा करेंगे. गीता सार से लेकर भोजन मंत्र इत्यादि बहुत सारी चीजों का समागम था उस पुस्तक में. हिंदू एक सनातन धर्म है और इसमें अन्य धर्मों की अच्छी बातों एवं मूल्यों को समाहित करने की अद्वितीय शक्ति है. हो सकता है, इस कारण मैं काफी स्वतंत्र एवं स्वच्छंद प्रवृत्ति की बन पायी.

पहली कुछ कक्षाओं में बच्चों को पेंसिल से लिखाया जाता था, पर बाद में संभवत: आगे की क्लास में कलम से लिखने की प्रतिबद्धता थी. एक क्लास में एक स्याही की बोतल, और बच्चे एक-एक कर वहीं से स्याही भरकर काम करते थे. (Almora Memoirs of Shipra Pandey)

कक्षा दो से मुझे याद है कि मेरे क्लास में कई बच्चे थे. रितु वर्मा, विनीता एवं रश्मि पांडेय्, शशि तिवारी एवं कल्पना गुप्ता. रितु मेरी सबसे प्रिय सहेली थी, और वह नंदा देवी मंदिर के नीचे जाने वाले रास्ते में रहती थी. वर्मा ज्वैलर्स के नाम से आभूषणों की उनकी बहुत प्रसिद्ध एवं पुरानी दुकान थी. हम अधिकतर साथ ही आते-जाते थे, संभवत: साथ में खाना भी खाते होंगे. विनीता एवं रश्मि दो जुड़वा बहनें थीं, जो लाला बाजार से भी कहीं आगे रहती थीं. घुंघराले काले बालों वाली शशि थी, जो धारानौला के पास कहीं जाती थी. हमारी कक्षा की सबसे मेधावी छात्रों में वह एक थी. सांवले रंग की थी, पर जब मुस्कुराती थी तो लगता था कि चमेली के छोटे-छोटे फूल मुस्कुरा रहे हैं. कविता थी, जो दो चोटी बनाती थी. थोड़ा तोतलाती थी, और यह बात मुझे तब पता लगी थी जब एक बार क्लास में उसने कविता पाठ किया था…

ताली-ताली तू,तू तरती, यूं ही डाली-डाली फिरती…

मैं हमेशा से ही थोड़ी जिद्दी रहीं हूं, यूं कहूं तो थोड़ी मनमौजी और थोड़ी Swan जैसी. दूध को दूध, और पानी को पानी कहने वाली. एक बार किसी बात के दौरान किसी झड़प में मैंने अपनी दोस्त रितु के पीठ में दांत काट दिया था, तबसे उसका भाई उसके साथ जाने लगा था. पर बाद में उसके भाई से भी मेरी अच्छी दोस्ती हो गयी थी. मेरी क्लास में कई लड़के भी पढ़ते थे जैसे गोविंद भाकुनी, किरीट तिवारी, कुमार गौरव और प्रदीप गुप्ता. कुमार मेरा पड़ोसी भी था, और उसकी बहन गरिमा मिल, हम तीनों सुबह साथ में स्कूल जाते थे. उसके मम्मी-पापा का चेहरा भी एक-सा था, तो मैंने एक बार बालवश उससे यह पूछा था कि क्या तुम्हारे मम्मी-पापा भाई बहन हैं क्या?

हम लोग अपने टीचर्स को आचार्य जी एवं बहन जी कहकर बुलाते थे. बड़े ही सहृदय थे हमारे शिक्षक. मेरे किसी आमंत्रण को उन्होंने कभी भी नहीं ठुकराया था, भूपाल आचार्य, उमा तिवारी एवं मिथिलेश गु्प्ता बहनजी. सभी मेरे घर आते रहते थे. भूपाल जी मेरे घर के पास कुछ दिनों तक रहे भी थे और हमें भूगोल पढ़ाते थे. एक बार परीक्षा के दौरान मेरे अंक कुछ कम आये थे, तो मौसी ने मुझे टॉयलेट में बंद कर सीसूण लगाया था और चड्ढी में ही छोड़ दिया था. भूपाल जी ने मुझे वहां देख लिया था. बड़ा शर्मनाक रहा होगा मेरे लिए वह क्षण. (Almora Memoirs of Shipra Pandey)

बाद में बड़ी क्लास में जाने पर ज्यामिती मुझे कभी पसंद नहीं आयी. अरे, इन थ्योरम्स का (प्रमेय) क्या करना था हमने. पर त्रिकोणमिती मुझे बहुत पसंद थी. मेरे पापा बरेली वाले चाचा से साइन थीटा, कॉस थीटा वाले कुछ फार्मूले भी लिखवा कर लाये थे. पर पहले जोड़. घटाव गुणा, भाग में कोई मेरे सामने टिक नहीं सकता था. तीसरी कक्षा में मुझे पच्चीस तक के पहाड़े (Tables) याद करने एवं तीव्र गति से बोलने एवं उससे संबंद्ध प्रश्न हल करने के लिए द्वितीय पुरस्कार भी मिला था. संभवत: मुझे अपने दम पर मिलने वाला पहला एवं अंतिम पुरस्कार.

जाड़ों का मौसम मेरा बड़ा प्रिय था. एक तो स्वर्ग से मुफ्त में मिलने वाली हिमवृष्टि और दूसरा स्कूल में मिलने वाला भोजन. वैसे तो हम सभी अपना-अपना भोजन लेकर जाते थे. पर जाड़े में हर बच्चे को हर चना-चबेना जैसे रोज भूनी मूंगफली, चने एवं परमल से भरा थैला मिलता था, करीब आधे से एक किलो का होता होगा वह. पर मेरी शिक्षिका उमा जी मुझे हमेशा एक थैला और दे देती थी. चश्मा पहनी शिक्षिका ममता की मू्र्त थी, जो मुझे हमेशा अपने घर के लोगों के बीच होने का एहसास कराती थी. ऐसी ही एक और शिक्षिका थीं मिस लिली, जो मेरे दिल के बेहद करीब रहीं और हमेशा रहेंगी. मिड-डे मील तो अब शुरु हुए हैं, पर उस समय स्कूल में मिलने वाले पार्ले-जी के बिस्किट एवं चने-चबैने की बात ही निराली थी.

मुझे गाना, नृत्य करना, कविता पाठ करना, सामान्य विज्ञान में आगे रहना बहुत ही पसंद था, और स्कूल में शिक्षक मुझे हमेशा आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते रहते थे. संस्कृत के श्लोकों का मैं एसेंबली में पाठ भी किया करती थी. अगर कार्मेल स्कूल में मुझे टीचरों का सही से प्रोत्साहन मिला होता तो मैं आज कुछ और ही होती. सिर्फ विज्ञान, गणित ही जीवन के स्तंभ नहीं होते, आचार-विचार, कला, इतिहास भी हमारे जीवन को आकार देता है. अगर ऐसा होता तो ये विषय ही क्यों थे.

बहुत भाग्यशाली हूं मैं कि मुझे जहां एक ओर शिशु मंदिर में जाने का मौका मिला, वहीं कार्मेल के प्रांगण में मैं खेल-कूद कर बड़ी हुई. अन्य धर्मों के साथ उन्हीं की तरह जुड़ जाने का एक अनूठा संस्कार जो मिला था मुझे विरासत में. तभी तो स्कूल पहुंचते ही चैपल में होली वाटर पीने, जीज़स के सामने उल्टा-सीधा क्रॉस बनाने, स्कूल में बाइबिल पढ़ाने के लिए आने वाले ब्रदर ज़ॉन को विश करने, हजारीबाग के जामा मस्जिद के सामने आयतें न आने के बदले अपने श्लोकों, राइ्मस को मन ही मन बुदबुदाने की हिम्मत कहां से आती मुझमें.

हम सभी का धर्म बहुत बड़ा है, यह उतना ही विशाल है, हमारे अंदर उतना ही समाहित है जितना हमारे माता-पिता, भाई-बहन. हम सब के अंदर अपने खून की कोई न कोई छाया अवश्य होती है. हमारे लिए हमारा धर्म भी उतना महत्वपूर्ण है, क्योंकि धर्म ही हमें सच्चाई,न्याय, अहिंसा का पथ दिखाता है, अपने प्रति, समाज के प्रति अपने कर्तव्यों के निर्वहन का शंखनाद कराता है यह धर्म. इसलिए कहा गया है, धर्मो रक्षति रक्षत: अर्थात् जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म स्वयं उसकी रक्षा करता है, चाहे वह धर्म किसी भी रूप में हो. हमारा नागरिक धर्म, बड़े होने का धर्म, छोटे होने का धर्म. धर्म की मर्यादा में रहने पर हमारा पतन कभी नहीं होता बल्कि हमारा उद्धार ही होता है. (Almora Memoirs of Shipra Pandey)

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मूल रूप से अल्मोड़ा की रहने वाली शिप्रा पाण्डेय शर्मा दिल्ली में रहती हैं. स्वतंत्र लेखिका शिप्रा आधा दर्जन किताबों का अनुवाद भी कर चुकी हैं.

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Sudhir Kumar

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