शिव शक्ति ज्योतिर्लिङ्ग एवम शक्ति पीठ पुष्टिदेवी के स्वरूप में त्रिनेत्र वमन सुयाल से ले कर जटेश्वर द्योली बगड़ तक विस्तृत माँ गौरी “यागेश” नामक देवदारु वन में स्थित यह स्थली जागेश्वर धाम के नाम से जानी जाती है. कूर्म पुराण के “तीर्थराज महात्म्य” वर्णन में देवदारु वन को पावन तीर्थ की संज्ञा दी गयी. इसके सैतीसवें अध्याय में सूत ऋषि से वार्तालाप करते दारुकावन का वर्णन किया गया तो अध्याय बावन से अध्याय पचपन में शिव एवम पार्वती का सघन देवदार वन में आगमन व यहां प्रवाहित सरिता जटागंगा का उल्लेख है. दारूकावन को बियाबान आखेट की संज्ञा दे, यहां के वनचरों का उल्लेख कर सांडिल्य पुराण में मुनि सांडिल्य ने नागेश ज्योतिर्लिङ्ग व पुष्टि शक्ति पीठ का रोचक वर्णन किया. इसी प्रकार कूर्म पुराण में कूर्माँचल भूमि को ऋषि मुनियों की तपस्थली बताते हुए जागेश्वर धाम की धरा को देव धरा तुल्य बताया गया है. स्कन्द पुराण के मानस खंड के अध्याय सोलह से पच्चीस, छत्तीस व अध्याय एकानवे से आगे दारूकावन नागेश व माँ पुष्टि देवी का विशद वर्णन है.
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जिन स्थानों में बारह ज्योतिर्लिङ्ग तथा उप ज्योतिर्लिङ्ग हैं, वहां माँ भगवती के शक्ति पीठ हैं, जैसे दारूकावने में दारुका नामक राक्षस का वध माँ भगवती ने किया. यहां माँ भगवती का शक्ति पीठ है तो साथ ही उप ज्योतिर्लिंग भी है. देवदारुवने नागेश्वर में माँ पुष्टि देवी नाम से शक्तिपीठ है और नागेश्वर नागेश नाम से ज्योतिर्लिङ्ग विद्यमान है.
“श्री जागेश्वर प्रभागे मृत्युंज्जय धामे: निर्माणे:, एक पच्चास नव सन्तोत्तर शाकेयाम श्रावंत मासे संपन्नम.”अर्थात जागेश्वर के मंदिर समूहों में भव्य व शिल्प की दृष्टि से अद्भुत महामृत्युंज्जय मंदिर का निर्माण 951 श्रावण को संपन्न हुआ.
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जागेश्वर धाम के पुजारियों के पास जीर्ण-शीर्ण अवस्था में सहेजी पाण्डुलिपि में मंदिर सम्बन्धी कई सूचनाएं हैं. इनमें वर्णित है कि इस धाम में स्थित मंदिर श्रृंखलाओं का निर्माण नवीं शताब्दी के उपरांत आरम्भ हुआ. ऐसी ही एक पुस्तक के मध्य के पृष्ठ का अवलोकन कर पंडित इंद्रमणि गुणवंत नागेश ज्योतिर्लिङ्ग की स्थापना के इतिहास पर रचे सन्दर्भ, ” नागेश पुष्टि आद्याशक्ति पीठ जागेश्वर महातम्य” में लिखते हैं कि, “जागेश्वर में पुष्टदेवी के पुजारी द्वारा एक बहुत पुरानी पुस्तक जो उनके सात-आठ पीढ़ी पूर्व के दादा पंडित श्री प्रताप देव भट्ट, द्वारा विरचित रही में वर्णित कथनों का अवलोकन कर संस्कृत के सुविज्ञ पंडितों ने स्पष्ट किया कि यहां निर्माण 951 सदी में हुआ.
ऐतिहासिक सूत्रों के अनुसार महा मृत्युंज्जय मंदिर का जीर्णोद्धार महाराज विक्रमा दित्य द्वारा किया गया व जगतगुरु शंकराचार्य ने इस शक्ति को प्रतिष्ठित कर कीलित किया. यहां के पुजारी श्री षष्टी प्रसाद भट्ट के अनुसार सम्पूर्ण भारत में शिव की लिंग रूप में पूजा यहीं से आरम्भ हुई. समस्त ज्योतिर्लिङ्ग के मूल में जागेश्वर ही है.जागेश्वर धाम के अतिरिक्त गंगोलीहाट, गणनाथ, बैजनाथ, कटार मल, विमानडेश्वर, द्रोणागिरी इत्यादि मंदिर भी समान शिल्प में निर्मित हुए.इनका निर्माण पूर्वी कत्युरी काल अर्थात आठवीं सदी से दसवीं सदी, उत्तर कत्युरी काल चौदहवीं सदी व चंद काल या पंद्रहवीं सदी के काल में संपन्न हुआ.
जागेश्वर में मृत्युंज्जय, नागेश, पुष्टि देवी के साथ ही एक सौ चौबीस मंदिर समूह विद्यमान हैं. इनमें महा मृत्युंज्जय मंदिर सबसे भव्य है जिसका शीश सबसे विशाल है. मंदिर की दीवारों पर मूर्तियां उकेरी गईं हैं. इसके साथ ही दूसरे मंदिरों की दीवारों व स्तम्भ पर बाइस प्रकार के शिलालेख उत्कीर्ण हैं. इनमें से एक शिलालेख पर लिखा है :
शाके ने वांणवारारितिन मियिते माघ वे शुक्ल पक्षे कुमांचले विनयते सीमा श्रीमानगजबहादुन:. अर्थात इस मंदिर समूह का निर्माण शाके ग्यारह सौ नौ में माघ शुक्ल पक्ष में सम्पूर्ण हुआ.
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उपर्युक्त के आधार पर अनुमान है कि इस धाम का निर्माण शाके 900 से शाके 1100 के मध्य हुआ. जागेश्वर धाम में शिव मृत्युंज्जय के साथ ही बालरूप बालेश्वर नागेश एवम पार्वती स्वरूपा माँ पुष्टि शक्ति के साथ हैं. इनके संग छोटे-बड़े एक सौ चौबीस मंदिर समूह हैं जिनमें नंदीश्वर व दिग्पाल भी हैं. पुष्टि नागेश शक्ति पीठ के समीप लव-कुश नामक हवन कुंड है. कहा जाता है कि वशिष्ठ ऋषि ने लव-कुश से इस स्थान पर पूजन करा हवन हेतु कुंड बनाया. शिव पूजा व मृत्युंज्जय अनुष्ठान व माता पुष्टि देवी पूजन पाठ के साथ यहां कुबेर, सूर्य केदार, भैरव व नंदी जो शिव के अंश स्वरूप हैं का पूजन आवश्यक माना जाता है. यहां नवग्रह व अन्नपूर्णा के मंदिर के साथ ही पशुपतिनाथ नेपाल के अंश स्वरूप केदारनाथ मंदिर है तो उनका नीलकंठ रूप भी .साथ ही पवनसुत हनुमान विराजते हैं दक्षिण मुखी हनुमान मंदिर में. कहा जाता है कि ग्यारहवें रुद्र अवतार शंकर सुवन हनुमान ने दक्षिण मुख हो कर दानवों का संहार किया.
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जनश्रुति है कि कैलास-मानसरोवर में तपस्या करने वाले शांडिल्य ऋषि ने दीर्घ समय अवधि तक नागेश पुष्टि स्थल पर प्रवास किया. कूर्म पुराण के रचयिता कूर्म ऋषि यहां दारूकावन एरावत गुफा में रहे. तामिलनाडु से इस धाम में आ संत रेतपुरी ने तप किया.जनश्रुति है कि उन्हें नागेश के दर्शन हुए. फिर वह अदृश्य हो गए. यह भी कहा जाता है कि उन्होंने जल समाधि ले ली. इस परिसर में उनका एक निश्चित स्थान बना जहां उन्हें भोग लगाया जाता है.
वेद एवम ज्योतिष के प्रकांड विद्वान करपात्री जी का आगमन इस धाम में हुआ. तब पश्चिम भारत व दक्षिण में जागेश्वर धाम का प्रचार -प्रसार नहीं हुआ था. महाराज करपात्री जी ने जागेश्वर रह एक मास तक कल्प वास किया व नागेश एवम पुष्टि देवी मंदिर में जप -तप किया. वापस लौट कर उन्होंने दक्षिण भारत में इस धाम के बारे में अपने भक्तों को बताया. पांचवें दशक में स्वामी ज्ञानगिरि ने लम्बे समय तक इस भूमि पर जप -तप किया.आचार्य विनोवा भावे ने यहां आ साधना की.
जागेश्वर धाम में भट्ट ब्राह्मण पूजन क्रिया संपन्न कराते हैं. प्रातः काल नागेश बालेश्वर शिव,माता पुष्टि देवी व महा मृत्युंज्जय के पुजारी देव मूर्तियों को स्नान कराते हैं व गंधाक्षत् चन्दन, रक्त चन्दन व पुष्प अर्पित किये जाते हैं. माँ पुष्टि देवी का स्नान व पूजन ब्रह्म मुहूर्त में विशेष विधि से संपन्न किया जाता है. माँ पुष्टि देवी का पुजारी एक धोती पहन, मंदिर के पट बंद कर माँ के नारी स्वरूप पर दृष्टि न डाल आंख पर पट्टी बांध एक हाथ में वस्त्र धारण कर गुनगुने जल से भाव – भक्ति से स्नान कराता है. स्नान का जल पराद में रखा जाता है . स्नान की यह क्रिया ‘पराद क्रिया ‘ कही जाती है जिसके कई पक्ष गोपनीयहैं.पुष्टि माता को रक्त चन्दन का लेप लगाया जाता है. तिल के तेल का दीप जलता है व घी की बत्तियों से विधिपूर्वक आरती संपन्न की जाती है.भक्तों द्वारा कपाट खुलने पर पूजन मुख्य द्वार से किया जाता है. तदन्तर मध्यान्न का भोग लगता है.
जागेश्वर धाम में कुबेर मंदिर स्थापित है जो धन-संपत्ति के रक्षक हैं. कुबेर का जन्म पुलस्य कुल में हुआ. इनके पिता विश्वश्रवा व मां इडविरा था. पुलस्य मुनि शिव भक्त व त्रिकाल दर्शी थे. इनके पोते रावण, कुम्भकरण, विभीषण हुए.कुबेर शिव भक्ति में उनकी अखंड तपस्या में लीन रहे. शिव -पार्वती ने प्रसन्न हो उन्हें दर्शन दिए व मनोकामना पूर्ण करने के लिए वर मांगने को कहा. कुबेर ने माँ पराशक्ति की सेवा की कामना की. शिव -पार्वती ने प्रसन्न हो उनसे कहा कि वह सदैव उनके भंडार में रहेंगे. माँ पार्वती ने उन्हें आशीष दे कर कहा कि जब भी उनके लक्ष्मी स्वरूप का पूजन होगा तो कुबेर भी पूजे जायेंगे.
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जागेश्वर धाम में भैरव पूजन गोस्वामी पुजारियों द्वारा संपन्न होता है. प्रातः ब्रह्म मुहूर्त की परम्परा के अनुसार ढोल – नगाड़े बजा कर पूजन के शुभारम्भ होने व रात्रि में देव शयन की सूचना दी जाती है.
पुष्टि देवी व नागेश शक्ति मंदिर के उत्तर-पूर्व में ब्रह्मकुंड स्थित है जिसमें स्नान के उपरांत पूजा-अर्चना का विधान है. ब्रह्म कुंड से ऊपर पहाड़ी पर ऐरावत गुफा है. इस धाम में प्रवाहित जटा गंगा का प्रवाह दक्षिण से उत्तर की ओर है जैसा कि विश्वनाथ धाम में भी है. इन दोनों पीठों को छोड़ अन्य सभी में नदियों का प्रवाह दक्षिण से पश्चिम दिशा में होता है. जटा गंगा में ही अंतयेष्टि स्थल मुक्तिधाम है जहां प्रतिदिन अंतिम क्रिया संपन्न होती है. नागेश पुष्टि धाम के सामने लगभग तीन किलोमीटर पर घने देवदारू वनों के मध्य राम पादुकाऐं विद्यमान हैं.
जागेश्वर धाम से पहले डंडेश्वर का प्राचीन मंदिर शिला पर स्थापित है जिसमें चौदह छोटे -बड़े देवालय पुरातत्व विभाग के संरक्षण में हैं. अष्टधातु की पौण राजा की मूर्ति भी इसी स्थल में प्राप्त हुई थी. डंडेश्वर के पुजारी कोटली ग्राम,अल्मोड़ा के ठाकुर राणा हैं. डंडेश्वर मंदिर को जागेश्वर ज्योतिर्लिङ्ग का प्रवेश द्वार माना जाता है. प्रथम शिव लिंग की स्थापना इसी मंदिर से मानी जाती है.
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वृद्ध जागेश्वर में शिव के विष्णु रूप की आराधना की जाती है. उन्हें पुवे का भोग लगाया जाता है. यहां के पुजारी रीठा-गाड़ के भट्ट ब्राह्मण हैं. जनश्रुति है कि श्रीराम यहां शिव दर्शन को आये. इस बात के प्रमाण स्वरूप दंडेश्वर में पहाड़ी के शिखर ढाल पर रामपादुका विद्यमान होना बताया जाता है. वृद्ध जागेश्वर में माँ कालिका, हनुमान, भैरव व कुबेर के अलग अलग मंदिर हैं. संतान प्राप्ति हेतु रात भर दीपक हाथ में ले महिलाएं खड़ी रह देव स्मरण करतीं हैं. मनोकामना पूर्ण होने पर चांदी के छत्र व ताँबे के बर्तन विष्णु रूपी शिव को अर्पित किये जाते हैं.
इसी श्रृंखला में श्री झाकर सैम मंदिर है जिन्हें शिव रूप में पूजा जाता है. मान्यता है कि यहां स्वयंभू लिंग प्रकट हुआ. झाकर सैम को स्थानीय ईष्ट देवों का मामा कहा जाता है. यहां नव ग्रह भी स्थापित हैं झाकर सैम क्षेत्रपाल हैं जो समूचे इलाके की रक्षा करते हैं. सैम को धूनी बना गांव-गांव में पूजा जाता है जो भूत-प्रेत व अनिष्ट को हर लेते हैं. यहां पशु बलि समीप के भगवती मंदिर में होती है. सैम देवता को दाल-चावल का भोग लगता है. उनको भोग लगने के बाद बलिदान नहीं होता.
देवदार के वृक्षों से घिरे मंदिरों के इस समूह को “दारुकावन”, योगियों के योग से अभिसिंचित होने से “यागेश्वर” व संपन्न होने वाले मेलों के आधार पर “हाटकेश्वर” नाम से सम्बोधित किया जाता है.मंदिर का शिल्प वास्तु की चार शैलियों (1) रेखा देवल शैली (2) पीठ देवल शैली (3) बल्लभी या साकरा देवल (4) चतुर्भुज शिखर पर आधारित है. इनमें “रेखा देवल” शैली में शिखर भाग में प्रवेश द्वार छोड़ कर तीन दिशाओं में एक -एक लम्बवत उभार दिया जाता है. इससे शिखर भाग में एक लम्ब वत रेखा दृष्टि गत होती है. जैसा कि जागेश्वर मुख्य मंदिर व महा मृत्युंज्जय में दिखाई देता है.दूसरी तरफ “पीठ देवल” शैली में शिखर को क्षितिजा कार छोटे होते उभारदार पिरामिड की भांति पट्टी में उठाया जाता है जो कि केदार व बालेश्वर मंदिर के शिल्प में है.” बल्लभी” या “साकरा”शैली में जो मंदिर बने हैं उनमें शिखर भाग को दोनों ओर से आवृति दे उठाया जाता है जिससे छत धुरी के रूप में दिखाई देती है. पुष्टि देवी व दुर्गा देवी के मंदिर इस श्रेणी में रखे जाते हैं. चौथी शैली में डंडेश्वर मंदिर निर्मित है जिसमें चतुर्भुज शिखर तीन भिन्न ढाल दे कर उठाया जाता है. हर ढाल पर भीतर की ओर एक पट्टी दिखाई देती है.
दारूकावन जागेश्वर में एक सौ चौबीस मंदिर समूह शिल्प व सज्जा की दृष्टि से महत्वपूर्ण है जिसकी लगभग छत्तीस मूर्तियां भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा संग्रहालय में सुरक्षित रखी गईं हैं. मुख्य प्रांगण स्थल में शिवार्चन, पार्थिव पूजा, रुद्री पाठ संपन्न होता है तो महा मृत्युंज्जय मंदिर में काल सर्प योग, मार्केश की दशाएं, वक्र ग्रहों के निदान के साथ जप का अनुष्ठान वर्ष भर पैट-अपैट की स्थिति के अनुसार संपन्न होता रहता है.
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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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