समाज

एक चिट्ठी कोरोना दौर के हवाले से

देर रात तक ख्वाबों में भटकने वाली आँखें सुबह देर से ही उठने के रिवाज़ का शौक रखती हैं मगर अलविदा के चैत और उकाव लगे बैशाख की सुबहें जाग उठती हैं, पार धार में बासती चिड़ियाओं के मीठे शोर से. इन दिनों ये शोर ज्यादा नहीं होने लगा क्या! दिन में भी दूर के गधेरे की आवाज़ और चीड़ के दरख्तों से सांय-सांय की आती आवाजें अपरिचित जरूर हैं पर अच्छी लगती है. खाली सड़कों पर दूर तलक फैले मौन को सुकून कहूँ या उदासी समझ नहीं आता. A Letter from Neeraj Bhatt

लॉकडाउन की दुपहरी कचहरी की सीड़ियों से गुजरना हुआ था आज, वे इतनी अलसायी कभी नहीं दिखी. गहरी नींद में हों जैसे, ऐसे ही जैसे रात की ठण्ड में कुड़कते आवारा कुत्तों की सुबह के निमैल घाम की नींद.

सड़क-गलियां, शहर की गुमनामियों से पार लगाती हैं पर इन दिनों खुद गुमनाम हो चली हैं. समझ नहीं आता ये सुकून है या उदासी जबकि अख़बार, रेडियो,टीवी,स्मार्ट फ़ोन के इनबॉक्स मानवता के लिए आये संकट को बता बताकर ऊब रहे हैं.

बैशाख की सुबह द्वाराहाट में सदियों से कौतिक होता आया है. जाने कितने बरस, जाने कितने मन, जाने कितने कदम उस कौतिक के साक्ष्य रहे हैं पर इस बार पोखर का मैदान, विमाण्डेश्वर का मंदिर और ओड़ा भेटने वाला द्वाराहाट का चौराहा मानो प्रकृति की फॉर्मेटिंग प्रोसेस में सहभागी बना हो.

बीबीसी का शाम 7.30 का फेसबुक लाइव प्रसारण अमेरिका में कोरोना से मरने वाले लोगों की संख्या साढ़े बाईस हजार और विश्व में 1 लाख से पार बता रहा था. यह भी बता रहा था कि वहां शहर से बाहर एक टीले पर लाशें अपनी कब्र का इंतज़ार कर रही हैं. इतना शक्तिशाली राष्ट्र कैसे बौना हो गया है ऐसी बौनी चीज़ की आगे जिसे खुली आँख से देखा भी नहीं जा सकता. दुनिया का हर छोर बीमार होने के डर से बीमार हुआ जा रहा है.

पर मेरा डर पहाड़ की ईजाओं के उस डर में है जो वे आजकल की शामों में फ़ोन पर अपने प्रवासी जवान बहु बेटों और उनके बच्चों के लिए प्रकट कर रही हैं –

चेला हम तो यहाँ अपने घर में ठैरे. खेत खलिहान, पौन पंछी, ठंडी हवा, नौले-धारे, दूध धिनाई सब ठैरा यहाँ वहाँ दिल्ली, बम्बई में क्या खाओगे, कैसे रहोगे रे नान्तिनो. कैसा बखत आया ये, हमारे पितरों ने भी नहीं देखा होगा ऐसा…

ये वे बुजुर्ग हैं जो अगल बगल के स्वघोषित विद्वानों की उपजाई फसकों को गूगल कर फैक्ट चैक नहीं कर सकते, वे ये भी नहीं जानते कि मुसलमान द्वारा थूक लगाकर फल बेचने का वीडियो झूठ और षडयन्त्र है. जिनकी कल्पनाओं में भी बेईमानी नहीं है वे कैसे सच मानें कि इस ज़माने में आईटी सेल जैसी भी कुछ करतूत होती हैं. A Letter from Neeraj Bhatt

बहरहाल, एक रेडियो दिहाड़ी का रेडियो कॉर्यक्रम बनाने के दौरान तमाम आवाजों से राब्ता होता है, श्रमिक की मजबूर और शंकाओं से भरी आवाज़, सरकारी अधिकारी की रौबदार पर बेहद औपचारिक आवाज़, खेत-खलिहान, पौन-पंछियों से महकती ग्रामीण आवाज़, बहरूपिया शहरी आवाज़, सामूहिक डर से उपजी थाली शंख की आवाज़ और भी बहुत सारी तरह-तरह की आवाज़. कुल मिलाकर इस वक़्त, समाज डरा हुआ एक ऐसा बौना जीव हो गया है, जिसकी एक बड़े, विशाल जीव के आगे कभी चली नहीं है, फिर भी वह जाने किस गुमान में इतराता है. A Letter from Neeraj Bhatt

मैं फिर खामोश होती रात में दूर पार की धार से आती उस मद्धम रोशनी में डूब रहा हूँ जिस पर सवार गधेरे और चीड़ के जंगलों की सांय सांय की आवाज़ इतनी घुल गयी है कि पहचान में नहीं आती. मेरा दिल कहता है देखना, जल्द ही ये नयी बीमारी भी इसी तरह वक़्त के घुमावदार पहियों में सवार होकर हम पर से गुजर जाएगी हमेशा के लिए, हां हमेशा के लिए.

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अल्मोड़ा के रहने वाले नीरज भट्ट घुमक्कड़ प्रवृत्ति के हैं. वर्तमान में आकाशवाणी अल्मोड़ा के लिए कार्यक्रम तैयार करते हैं

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