कूर्मांचल जिसे वर्तमान में कुमाऊँ नाम से संबोधित किया जाता है, अनादि काल से विश्व में अपनी विशेष पहचान बनाए हुए है. कालांतर में चंदवंशी चंद राजाओं ने इसे अपनी राजधानी बनाया. यहीं से शासन करते हुए अपने राज्य का विस्तार किया, जहाँ तक यह राज्य फैला वह समस्त क्षेत्र कूर्मांचल या कुमाऊँ के नाम से जाना गया.
चंदवंशीय संस्कृति प्रेमी व धार्मिक राजाओं ने भी इस क्षेत्र की धार्मिक-सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण किया. इसी क्रम में होली का पर्व भी चंद शासकों के समय में ही अपने पूर्ण वैभव पर पहुँचा, आज जो कुमाऊनी होली विख्यात है उसका प्रारम्भ चंद्रशासनकाल में ही हुआ.
जब चंपावत में चंदराजाओं ने राजधानी बनाई उसी समय कई लोग यहाँ पर निवास करने लगा. इनमें कुछ इलाहाबाद, राजस्थान, कन्नौज व मथुरा आदि स्थानों से आए थे. इन मैदानी क्षेत्र के लोगों के साथ भिन्न-भिन्न संस्कृतियाँ भी इस अँचल में आईं. संभवत उन्हीं के साथ होली के इन स्वरूपों का आगमन भी हुआ होगा.
इस बात की पुष्टि बैठ होली के स्वरूपों के आधार पर भी की गयी है. प्रायः ऐसा सभी लोककलाओं व संस्कृतियों में होता है कि जब वह एक जगह से दूसरी जगह पलायन करती हैं तो धीरे-धीरे वहाँ की विशेषताओं को अपने में समेटते हुए वहीं की हो जाती है. इससे एक नयी संस्कृति का विकास होता है.
जिस समय चम्पावत में होली का विकास हुआ उस समय वहाँ पर चंद वंश के संस्थापक सोमचंद का राज्य था. उन्होंने अपने शासनकाल में लोक कला व संस्कृति को विकसित करने हेतु अत्यधिक प्रयास किए. अनेक विषयों के विद्वानों को उनके शासनकाल में राज्याश्रय प्राप्त हुआ. जिससे साहित्य, लोक संस्कृति व लोक कला के क्षेत्र में उल्लेखनीय अभिवृद्धि हुई. इसी क्रम में होलिकोत्सव के नवोत्थान का श्रेय भी निःसदेह इन्हीं चंद राजाओं को जाता है.
सामान्यतया कुमाऊनी होली को भी कुमाऊनी रामलीला की तरह ही करीब 150-200 वर्ष पुराना बताया जाता है. जहां कई विद्वान इसे चंद शासन काल की परंपरा बताते हैं. लेकिन इस उत्सव की शुरुआत कुमाऊँ में ठीकठाक ढंग से कब हुई होगी यह कहना तो कठिन है लेकिन कुमाऊँ में होली की शुरुआत तलाशने की कोशिश की जाये तो तो चंदवंशीय राजाओं के आस.पास देखने को मिलती है. जैसे कि निम्नलिखित होली गीत में देखने को मिलता है—
सखियाँ ले आई गुलाल लालए
होरी खेल रहे हैं.
नन्दए नंदन ज्यू से.
सकल सभासद खेल रहे है.
तुम राजा महाराजा प्रद्धुमन सा.
मेरी करी प्रतिपाल लाल होरी सा.
इस गीत में चंदवंशीय प्रद्धुमन सा या प्रद्धुमन चंद का वर्णन किया गया है. इससे पता चलता है कि होली राजा प्रद्दुमन सा के शासनकाल के आस-पास से कुमाऊँ में मनाई जाने लगी होगी.
चंद शासन के आरम्भ और उत्तर कत्यूरी शासकों के काल में ही नाथपंथियों का भी यहाँ आगमन हुआ. नाथ सम्प्रदाय में भी होली एक प्रमुख त्यौहार है. यह उत्सव सभी सम्प्रदायों के बीच सौहार्द बढ़ाने में सहायक सिद्ध होता है. इस सम्प्रदाय में यह त्यौहार बड़े उत्साह से मनाया जाता है. नाथपंथी भी बसंत ऋतु में होली मनाते थे और होली में इनका मुख्य गीत था—
नाथ जटाधारी शम्भो आयो.
अंग भभूति, सर्पों की माला,
चौसठ योगिनी साधे लाये.
उत्तराखण्ड का सामाजिक अध्ययन करने से भी यही पता चलता है कि इस प्रेदश में अधिकांश जातियाँ बाहर से आई हुई हैं और यहाँ पर बसने के कारण इन जातियों का नामकरण ग्राम के नाम के आधार पर ही हो गया. उत्तराखण्ड में आने वाली विभिन्न जातियाँ अलग-अलग दिशाओं और स्थानों से अपनी पृथक-पृथक संस्कृतियाँ लेकर आयीं. जिस वजह से उत्तराखण्ड अनेक संस्कृतियों का केन्द्र बन सका.
रूहेला आक्रमण के बाद गोरखा शासन में भी होली त्यौहार के प्रमाण मिलते हैं. जैसे—
केसर बाग लगाया मजा बादशाह ने पाया,
आसपास वाके सोने के खम्भे,
बीच में जाल बनाया,
आन पड़ि पूर्वियां की पलटन,
गारे ने बिगुल बजाया.
इसके अतिरिक्त एक होली से हमें जानकारी मिलती है कि गोरखाओं के समय में भी कुमाऊँ में होली का त्यौहार विद्यमान था. ये होली पीलू राग पर आधारित है—
आज रंग है बिरज में,
सब ही चले रंगीले छयल, आज खेले होली.
‘शाह बहादुर’ होली खेलें,
संग लियो राधा गोरी, आज रंग.
शंख बजत, कहीं मुरली बजत है
डफ झाँझन झनकोरी,
आज रंग है बिरज में.
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मूल रूप से गंगोलीहाट की रहने वाली सुमन जोशी फिलहाल नैनीताल में रहती हैं और कुमाऊँ विश्वविद्यालय से इतिहास में पीएचडी कर रही हैं. कविताएँ, लेख लिखने, घूमने और फोटोग्राफी की शौक़ीन हैं. उत्तराखंड के लोक जीवन और संस्कृति से पूरे देश को अवगत कराना चाहती हैं.
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