प्रताप भैया यदि हमारे बीच होते तो 88 वर्ष आज के दिन पूरे करते. दस वर्ष पूर्व संसार से विदा हुए प्रताप भैया ने 78 बसन्त जिस जिन्दादिली, उत्साह एवं ऊर्जावान ढंग से बिताये, वह हर युवा के लिए ईष्र्या का विषय हो सकता है. जिन्दगी के उस छोटे से कालखण्ड, जब वे पैरालाइज होने के बाद शारीरिक रूप से अक्षम हो चुके थे, अगर छोड़ दिया जाय तो शेष जीवनकाल में उनके व्यक्तित्व से कभी दीनता, हीनता, निरूत्साह, उदासी या मायूसी का दूर दूर तक रिश्ता नहीं था. साधारणतः इन्सान थोड़ी सी दुख-तकलीफ पर जरूरत से ज्यादा कष्ट का बखान कर हल्कापन महसूस करता है, लेकिन वे कठिन से कठिन परेशानी में भी विचलित न होकर दूसरों के सामने खुश दिखने का अभिनय करते. पैरालाइज होने के प्रारंभिक दिनों में भी स्वयं को स्वस्थ होने का लोगों को अहसास कराते.
(88th Birth Anniversary of Pratap Bhaiya)
लोगों को हाथ मिलाते वक्त कसकर पकड़ते कहते- देखो मेरे हाथों में अभी पूरी ’ग्रिप’ है. लेकिन ज्यों ज्यों रोग की गम्भीरता बढ़ती गयी, वे शाीररिक व मानसिक रूप से स्वयं को असहाय महसूस करने लगे, लेकिन अपनी व्यथा कथा कहना तो उनकी आदत में शुमार न था. एक समय ऐसा भी आया, जब वे अन्तर्मुखी हो गये. कभी चुप न रहने वाले प्रताप भैया ने ऐसा मौन धारण कर लिया, जैसे बता रहे हों, जब शरीर और मन ने कुछ करने लायक छोड़ा ही नहीं तो कहने को बचा ही क्या है? अन्तिम दिनों में एक समय ऐसा भी आया जब वे सिर हिलाकर अथवा ईशारों में ही अपना उत्तर देते. ऐसे गतिशील एवं बहुमुखी व्यक्तित्व की ऐसी हालत देखकर मन ही मन एक कसक एवं हूक सी उठती. कैसी बिडंबना है परिस्थिति की भी, कभी वे बोलते और सब चुप रहते, लेकिन आज वे चुप बैठे थे और लोग बोले जा रहे थे. जिनको ताउम्र कभी सोई हुई मुद्रा में नही देखा, आज सारे लोग उन्हें इस दशा में देख रहे हैं, तब मौन धारण करना ही शायद उन्हें अनुकूल लगा हो.
महज 25 वर्ष की उम्र में सबसे कम उम्र के विधायक तथा 35 वर्ष की उम्र में एक तेज-तर्रार कैबिनेट मंत्री का दायित्व बखूबी निभाने वाले प्रताप भैया यदि राजनैतिक परिदृश्य के अनुरूप अवसरवाद की वैशाखी का सहारा लेते तो न जाने किन बुलन्दियों को छूते. लेकिन अपने राजनैतिक गुरू आचार्य नरेन्द्र देव से जिन आदर्शों एवं सिद्धान्तों की दीक्षा उन्होंने ली थी, ताउम्र उस पर कायम रहे. राजनैतिक दल-बदल तो दूर की बात कभी उन्होंने अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा के लिए लखनऊ अथवा दिल्ली तक का रूख नहीं किया. जब कि सियासत के गलियारों में शीर्ष पदों पर बैठे चैधरी चरण सिंह, चन्द्रशेखर, जाॅर्ज फर्नाण्डीज, सुरेन्द्र मोहन, मधुलिमये सरीखे उनकी पार्टी के नेताओं से उनके पारिवारिक संबंध रहे. ये नेता जब भी नैनीताल आते तो बिना प्रताप भैया से मिले और उनकी जलेबी क्लब में उपस्थिति दर्ज कराये नहीं लौटते. अपने ही दल के नहीं बल्कि कांग्रेस के भी कई वरिष्ठ नेताओं, राष्ट्रपति वी0वी0गिरि, उपराष्ट्रपति कृष्णकान्त यहाॅ तक कि नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री लोकेन्द्र बहादुर भी उनके मित्रों की सूची में शामिल थे. पूर्व प्रधानमंत्री लोकेन्द्र बहादुर का नैनीताल आने पर उनका मल्लीताल स्थित जन संपर्क कार्यालय में जलेबी खाना और उनके नेपाल जाने पर स्टेट गेस्ट का सम्मान उन्हें देना लोकेन्द्र बहादुर की आवभगत थी. वस्तुतः लोकेन्द्र बहादुर उनके कालेज के सहपाठी भी रहे. नारायण दत्त तिवारी के साथ तो दोनों ने राजनैतिक पारी की शुरूआत एक ही झण्डे के नीचे की. लेकिन इन संबंधों को उन्होने कभी अपने क्षुद्र राजनैतिक लाभ के लिए भुनाया नहीं. यह बात दीगर है कि दूसरी पार्टी के होने के बावजूद कभी पारिवारिक संबंधों में कटुता आने का मौका नहीं दिया.
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प्रसंगवश बात उनके सुपुत्र ज्योति प्रकाश के विवाह की आती है. बारात पूर्व विधायक समाजवादी नेता जसवन्त सिंह की सुपुत्री से विवाह हेतु रानीखेत जानी थी. स्व0 नारायण दत्त तिवारी वर पक्ष की ओर से बाराती बनकर गये, जब कि तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव हैलीकाॅप्टर से घराती बनकर रानीखेत में उतरे. मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के विरोध में दल विशेष ने प्रदर्शन का मौका हाथ से जाने नहीं दिया. शादी का आयोजन रानीखेत में केएमओयू स्टेशन के नीचे था, ऊपर रोड से पार्टी विशेष के कार्यकर्ताओं द्वारा मुलायम सिंह यादव के काफिले पर पथराव शुरू हो गये. छोटे कद के मुलायम सिंह यादव को तो सुरक्षाकर्मी बचाकर घेरा बनाकर ले गये, लेकिन अपने क्षेत्र की बेटी की विदाई में इस तरह के राजनैतिक विरोध की लोगों ने जमकर आलोचना की.
सफल प्रशासक होना और सहृदयता दो परस्पर विरोधी भाव हैं. सफल अनुशासक अथवा प्रशासक को अपनी सहृदयता को दरकिनार कर कभी ऐसे कठोर निर्णय लेने को मजबूर होना पड़ता है, जिसमें मानवीय संवेदनाओं को तरजीह नहीं दी जाती. जिस प्रकार न्याय तथ्यों पर आधारित होता, उसमें सहानुभूति अथवा संवदेनाओं का कोई स्थान नही होता, ठीक उसी प्रकार कार्यपालक या अनुशासक को अनुशासन का पालन करवाने में स्नेह, करूणा व अपनत्व का गला घोटना ही पड़ता है. तभी वह नियमों का अनुपालन करा पाने में सफल होता है. लेकिन प्रताप भैया ऐसे शख्स थे, जिनका रौबीला चेहरा सामने वाले को स्वतः ही अनुशासन बद्ध कर देता, लेकिन इस चेहरे के अन्दर एक संवेदनशील दिल भी था, जो शिवौऽऽऽ कहकर उनके अन्तरभावों को उद्घाटित कर देता.
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एक विधायक, मंत्री तथा विभिन्न संस्थाओं के मुखिया के नाते उनके कठोर अनुशासन की लोग दाद देते. क्या मजाल कि बड़े से बड़ा पदाधिकारी भी प्रत्युत्तर में उनके सामने मुंह खोल पाये. परोक्ष में लोग कुछ भी बोलें, ये अलग बात है. हर बात को साफगोई से कहने के पीछे उनका ईमानदार व्यक्तित्व भी था और क्षुद्र स्वार्थों के प्रति बेपरवाही भी. किसी राजनेता का सबसे कमजोर पक्ष होता है, मतदाता. वह किसी भी कीमत पर अपने मतदाता को असन्तुष्ट नहीं करना चाहता, लेकिन प्रताप भैया एक ऐसे राजनेता थे, जो अपेक्षा के विरूद्ध आचरण पर स्वयं के चुनावी दौरे में साफ-साफ कह देते -’’ ज्यादा से ज्यादा तुम मुझे वोट ही तो नहीं दोगे ना, मत देना.’’ उनंके इस कथन से हालांकि उनको राजनैतिक जीवन कितना खामियाजा भुगतना पड़ा, ये तो पता नहीं. लेकिन किसी भी कीमत पर सिद्धान्तों व अनुशासन से समझौता करना, उनकी फितरत में नहीं था. उनके इस तरह के व्यवहार के जितने लोग प्रशंसक थे, आलोचकों की भी फौज भी कम न थी. आपके किसी गलत आचरण पर दस लोगों के सामने आपको टोक दिया जाय तो आप आलोचक ही तो बनेंगे, प्रशंसक तो बन नहीं सकते. लेकिन इसकी वे परवाह नहीं करते.
बतौर प्रशासक उनका अपना सगा भी अपना नहीं होता था, यदि वह अनुशासित नहीं है. ऐसी कई मिशालें हैं जब वे बिना किसी भेदभाव के अपने लोगों को पहले डांट लगाते और कहते, यदि तुम मेरे करीब हो तो तुम्हें ज्यादा अनुशासित होना चाहिये. एक बार हुआ यों कि वे बिना किसी को बताये बतौर प्रबन्घक स्कूल की प्रार्थनासभा में पहुंच गये. उनके विद्यालय पहुंचते ही पूरे परिसर में पिनड्राप साइलैन्स छा जाती. नियत समय पर प्रार्थना सभा शुरू हुई, लेकिन उनकी सगी बहिन जो उन्हीं के विद्यालय में अध्यापिका थी, संयोगवश समय पर नहीं पहुंच पायी. जब प्रार्थना सभा में उन्होंने प्रताप भैया की आवाज सुनी तो गेट से ही बच्चों की तरह दौड़ लगाते दबे पांव लौट गयी. सच तो ये था कि अपने सगे-संबंधियों के लिए वे और भी ज्यादा कठोर हो जाते. ऐसा ही वाकया तब का भी है, जब उनका भतीजा, जो विद्यालय छात्रावास में रहता था, अनुशासनहीनता पर विद्यालय प्रधानाचार्य ने उसे छात्रावास से निष्कासित कर दिया, वे चाहते तो प्रधानाचार्य का निर्णय उलट सकते थे, लेकिन अनुशासन प्रिय प्रताप भैया ने तनिक भी इसमें दखल नहीं दिया और छात्रावास से बाहर रहकर ही उसने अपनी पढ़ाई पूरी की.
आतिथ्य सत्कार के मामले अपनी मां की सीख वे सदैव याद रखते कि घर में आये, किसी भी व्यक्ति को बिना कुछ दिये यों ही न भेजें, इससे घर का सत् नहीं रहता. सुबह 8 से 9 बजे तक उनका समय अपने चैम्बर में वादकारों के लिए नियत था. ये बाद अलग है कि कभी कभी किसी समस्या को लेकर दूसरे फरियादी भी आ जाते. कुल मिलाकर एक समय में 8-10 लोग हर समय उनके चैम्बर में बैठे मिल जाते. घड़ी में ज्यों ही सुबह के आठ बजते अपनी नित्य पूजा के उपरान्त हाथ में एक जलती अगरबत्ती थामे, उनका प्रवेश होता. अगरबत्ती को स्टैण्ड पर खड़ी करते हुए आगन्तुकों की बारी-बारी से बात सुनी जाती. अपने निर्धारित समय पर ( सुबह 8 से 9 बजे तक) वे सबकी बात तो सुनते ही लेकिन उसूल ये भी था, बिना किसी को चाय पिलाये वे घर से नहीं भेजते. घर में कोई सहायक न होने पर उनकी धर्मपत्नी श्रीमती बीना स्वयं चाय बनाती.
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सुबह से ही केतली चूल्हे पर चढ़ जाती और तब तक चाय का दौर चालू रहता, जब तक वे सुबह 9 बजे अपने चैम्बर को नहीं छोड़ते. चैम्बर कीचन से कुछ दूरी पर था, लेकिन ज्यों ही कोई नवागन्तुक चैम्बर में प्रवेश करता, पांच मिनट के अन्दर चाय उसके हाथ में होती. कीचन से ठीक गिनती में उतनी ही चाय आती, जितनों को न मिली हो. लोग ताज्जुब करते कि बिना देखे, ठीक गिनती की चाय कैसे कैसे आई? दरअसल उन्होंने टेबिल के नीचे एक बैड स्विच का बटन लगाया था, जिसका कनक्शन कीचन में बजने वाली घण्टी से था. जितनी चाय की जरूरत होती, उतनी बार घण्टी दबाना, कीचन के लिए चाय की संख्या का संकेत था. सामने बैठे लोगों को पता भी नहीं चलता कि कीचन के लिए चाय लाने का निर्देश दिया जा चुका है. कभी यदि कोई बहुत जल्दी में हो तो उनके लिए वे एक डिब्बे में बिस्कुट चैम्बर में अलग से रखा करते, ताकि बिना कुछ खिलाये किसी को विदा न करना पड़े.
केवल घर पर ही नहीं, कोर्ट कार्यालय में जिसे उन्होंने विक्रमादित्य मंच का नाम दिया था, चाय का सिलसिला जारी रहता. अक्सर चाय की तलब लगने पर सहकर्मी वकील भी उनके पास बैठने चले जाते. जरूरी नहीं कि चाय कैन्टीन का कोई लड़का ही लाये, अक्सर वकील तथा दूसरे वरिष्ठ लोग भी कैन्टीन से चाय ढोते दिख जाते. चाय लाने में शर्म करने वाला बन्दा तो उनके पास फटकने से भी कतराता था, कि न जाने कब उनको भी कैन्टीन से चाय लाने का हुक्म हो जाय. दिन में एक बड़ी राशि चाय पर खर्च हो जाती. लोगों पर विश्वास ऐसा कि बाकी बचे पैसों की गिनती उनकी आदत में नहीं था. जो पैसे लौटाये, चुपचाप अपनी ऊपर की जेब में ठॅूस दिये. यह भी उनकी खूबी थी कि दूसरा व्यक्ति जलपान का बिल चुकता करने की उनके रहते हुए जुर्रत नहीं कर पाता.
सायंकाल में लोगों की समस्या सुनने के लिए पहले बड़ा बाजार नैनीताल में श्यामा स्टेशनर्स के दुमंजिले में जन सम्पर्क कार्यालय होता था, जो शाम पांच बजे से गर्मियों में रात आठ-नौ बजे तक खुला रहता. जब कि विधि कार्यालय का चैम्बर मोहन को0 के ऊपर था. बाद में 1974 में मे विला में खुद का मकान बन जाने पर बड़ा बाजार वाला जन संपर्क कार्यालय पुराने आवास मोहन को0 में शिफ्ट कर दिया गया. उनके मोहन को0 के ऊपर के जन संपर्क कार्यालय की सीढ़ियां कितनी नामचीन लोगों ने चढ़ी होंगी, इसकी कोई गिनती नहीं. केन्द्रीय मंत्री से लेकर जाने-माने साहित्यकार, पत्रकार, न्यायमूर्ति, शिक्षाविद् तथा अपने अपने क्षेत्र में लब्ध प्रतिष्ठित व्यक्ति होते. ग्रीष्मकाल में जब हाईकोर्ट इलाहाबाद तथा सुप्रीमकोर्ट के अवकाश होते तो मुख्य न्यायाधीश से लेकर न्यायमूत्र्तियों व वरिष्ठ सुप्रीम कोर्ट अधिवक्ताओं की भीड़ रहती. उनका यह आगमन नितान्त निजी रहता, बिना किसी सरकारी अमले व तामझाम के. उनके जनसम्पर्क कार्यालय का नजारा भी बेहद दिलचस्प रहता.
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दिलचस्प इस अर्थ में कि जहां प्रोटोकॉल का मुलम्मा नहीं होता. सामने कोई नामचीन हस्ती बैठी है, तो उसके करीब निहायत गरीब मजदूर अथवा ग्रामीण भी सीना तानकर बैठा होता. समाजवाद का ऐसा व्यावहारिक रूप यहीं देखा जा सकता था. जन सम्पर्क कार्यालय में नैनीताल की प्रसिद्ध बघरी हलवाई की जलेबी आगन्तुकों को खिलाना उनका एक दस्तूर था. न्यौता होता जलेबी खाने का और इसी बहाने वे इसे जलेबी क्लब भी कहते थे. प्रताप भैया की जलेबी दूर-दूर तक विख्यात थी.
एक बार विद्यालय की प्रधानाचार्य कला बिष्ट, ऑल इण्डिया कान्फ्रेंस के सम्मेलन के सिलसिले में एथेन्स गयी थी, संयोगवश वहाॅ तामिलनाडु की प्रथम महिला एमपी अमन्ना जी मिल जाती हैं, बातों का सिलसिला आगे बढ़ता है, तो कला बिष्ट बताती हैं, कि वह प्रताप भैया के सैनिक स्कूल में प्रधानाचार्य हैं, तो अमन्ना जी तपाक से जवाब देती हैं, अरे ! वो जलेबी वाले प्रताप भैया, मैंने भी उनके आफिस में बैठकर जलेबी खाई हैं. देश के किसी कोने में चले जायं, उनके परिचितों की कमी नहीं थी. एक बार नैनीताल के माॅडर्न बुक डिपो के स्वामी का लन्दन जाना हुआ, प्रताप भैया बोले लन्दन जा रहे हो तो हमारे मित्र और भारत के राजदूत डाॅ0 लक्ष्मीमल्ल सिंघवी से मिलकर आना और एक पत्र डाॅ0 सिंघवी के नाम थमा दिया. जब लौटकर आये तो उनके आतिथ्य सत्कार से अभिभूत होकर बोले, मैंने कल्पना भी नहीं की थी, कि विदेश की धरती पर भी आपके परिचय ने मुझे अपनापन दिया.
उनके स्वभाव का एक पहलू ये भी था, कि किसी का उनके सामने मुंह लटकाये रहना अथवा निष्क्रिय या निठल्ला बैठे रहना उन्हें बिल्कुल भी गंवारा नहीं था. स्वयं तो कभी उन्हें उदास मुद्रा में नहीं देखा यदि अन्य भी उनके सामने कोई रूंआसी शक्ल लेकर जाये तो झिड़क कर कहते, ऐसी सूरत क्या बना रखी है, लगता है पूरे देश का भार तुम्हीं पर है. न तो वे एक क्षण के लिए खाली बैठक अपना समय बरबाद करते और न अपने सामने दूसरों को निष्क्रिय देख पाते. माना कि 8-10 लोग सामने बैठे हों, तो वे किसी से बात कर रहे हों और अन्य निष्क्रिय होकर बैठे हों, ऐसा संभव नहीं. वे हर किसी को कुछ न कुछ काम में व्यस्त रखते. अगले से बात करते हुए सामने वाले को डिक्टेशन भी देते, दूसरे को किसी अखबार में छपी खबर को पढ़कर सुनाने को कहते, किसी के हाथ में कुछ पढ़ने की सामग्री देते, किसी को टेढ़ी हुई मेज या कुर्सी को तरीके से लगाने का निर्देश देते यानि कुल मिलाकर उनके सामने निठल्ला बने रहना, उन्हें मंजूर न था.
हो भी क्यों न, जिस इन्सान ने रविवार के अवकाश पर भी दो पल घर पर आराम न किया वो अगले को निष्क्रिय भला क्यों देखे. अपने व्यवसाय वकालत कार्य से तालमेल बिठाते हुए उनका पूरे साल का कैलेण्डर बकायदा मुद्रित होता, जिसमें आने के लिए वे लोगों को न्यौता देते वितरित करते. इसमें प्रमुख महापुरूषों की जयन्ती व पुण्यतिथि के कार्यक्रम होते, उनके विद्यालयों में होने वाले कार्यक्रमों का ब्यौरा होता, शैक्षिक व सामाजिक प्रशिक्षण एवं अध्ययन शिविरों की तारीखें होती तथा जनसमस्याओं की जानकारी के लिए दूरस्थ ग्रामीण क्षेत्रों के भ्रमण का कार्यक्रम अंकित होता. उनके इस कार्यक्रम से उनके सहकर्मी कभी कभी खीझ भी जाते, क्योंकि उन्हें तो सप्ताह में घर के काम निबटाने के लिए व आराम के लिए चाहिये था, लेकिन मन मसोस कर उनके साथ जाना उनकी मजबूरी थी.
उनका एक मानवीय पक्ष भी बेहद आकर्षित करता. इन्सानों में छोटा-बड़ा उनके शब्दकोष में नहीं था. एक निहायत गरीब मजदूर अथवा किसी नेपाली कुली से जब वे हाथ मिलाते, तो उसके चेहरे पर खुशी के भाव से उन्हें जो आत्मीय सन्तोष मिलता उनके चेहरे से साफ पढ़ा जा सकता था. कहीं भी जाते तो अपने सहायकों का पहले ध्यान रहता. प्रवास के दौरान किसी के घर में भोज के अवसर पर पहला खाना वे अपने ड्राईवर के लिए लगवाते, तब स्वयं भोजन करते. एक बार लखनऊ विधानसभा में जलपान के मन से विधानसभा के कैफेटेरिया में घुसने लगे, संयोग से उनके साथ हम एक-दो लोग और थे. पूर्व विधायक के नाते उन्हें तो घुसने दिया, लेकिन हम लोगों को यह कहकर रोक दिया गया कि अन्दर प्रवेश केवल विधायक एवं पूर्व विधायकों को ही मिल सकता है. उन्हें शायद यह अच्छा नहीं लगा और खुद भी कैफेटेरिया से वापस लौट आये. सच्चाई तो ये हैं कि उनका जैसा गतिशील, बेजोड़ एवं अनोखा व्यक्तित्व, विरले ही होंगें, जिनमें एक ही व्यक्ति में उसके कई रूपों का एक साथ साक्षात्कार हो सकता है. उनके रोचक प्रसंगों की लम्बी दास्तां है. व्यक्तित्व के अन्य पहलुओं पर चर्चा फिर कभी.
(88th Birth Anniversary of Pratap Bhaiya)
भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रसारित हो चुकी हैं.
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