बढ़ती आधुनिकता के साथ लकड़ी से बने परम्परागत उत्पाद हमारे जीवन से दूर होते-होते अब लगभग लगभग समाप्त हो चुके हैं और उत्तराखण्ड (Uttarakhand) में काष्ठशिल्प (Woodart) पूरी तरह बरबाद हो चुका है यह बात किसी से भी छिपी नहीं है.
कठयूड़ी, पाल्ली, हड़प्या, ठेकी, बिंडो, पारो, नाली, मानो, बैगर, ढाड़ो, चाड़ी, कुमली लकड़ी से बनने वाले कुछ ऐसे बर्तन हैं जो एक समय उत्तराखंड के हर घर में मिलते थे. आज यह बर्तन हमारे घरों से ही नहीं हमारे शब्दकोश तक से गायब हो चुके हैं.
घरो की चौखट पर बनने वाले देवी-देवता, पेड़-पौधे, जानवरों, फूलों, यक्ष-यक्षिणियों के मोटिफ हमेशा-हमेशा के लिए नष्ट हो चुके हैं.
गेठी और सानन की लकड़ी से बनने वाले यह लकड़ी के बर्तन उत्तराखंड बनने से पहले उत्तराखंड की हर रसोई में देखने को मिल जाते थे. अब ये बर्तन ढूंढने पर ही मिलेंगे. सालन और गेठी से बनी लकड़ी लम्बे समय तक सड़ती नहीं है इसलिये इसका प्रयोग अनेक रूपों में किया जाता रहा है.
पीढ़ियों से बर्तन बनाने की इस विरासत को उत्तराखंड के चुनार जाति के दस्तकारों ने संभाला है. उन्हें स्थानीय भाषा में चुनेरे कहा जाता है. मूलरुप से बागेश्वर जिले के रहने वाली ये लोग हर साल रामनगर में आकर कोसी और बौर नदी किनारे अपना डेरा जमाकर पनचक्की की मदद से लकड़ी के बर्तन तैयार करते हैं.
ये लोग हर साल फरवरी से अप्रैल तक नदी के किनारे अपनी खराद लगाते हैं. खराद पर लकड़ी के टुकड़ों को अपने अनुभवी और कुशल हाथों से संवार कर सुन्दर बर्तनों में बदल देते हैं. आज इनकी माली-हालत बहुत ख़राब हो चुकी है.
बर्तन बनाने की जरुरत की लकड़ी ये लोग वन विभाग से कर चुकाकर पाते हैं. तीन-तीन महिने अपने परिवार से दूर नदी के निर्जन किनारे पर बर्तन बनाकर भी दो वक्त की रोटी निकाल पाना इनके लिये मुश्किल है.
कठ्यूड़ी कटोरे के समान चौड़े मुख और कम उंचाई वाला एक बर्तन है. समतल आधार और किनारे उंचाई वाली वाली दीवारों से बना बर्तन ठेकी कहलाता है. ठेकी का प्रयोग दही ज़माने के लिये किया जाता था.
इसी तरीके का कम उंचाई वाला बर्तन हड़प्या कह लाता है जिसका उपयोग दही रखने के लिये किया जाता था.
बिंडा अब भी पहाड़ों में प्रयोग में लाया जाने वाला एक लकड़ी का बर्तन है. बिंडा सामान्य रूप से ढक्कन वाला बनता है जिसका उपयोग दही मथने में किया जाता है. पशुओं को पानी आदि पिलाने के लिये’ दूने का प्रयोग किया जाता है.
नमक रखने के लिये नमी को सोखने वाले तुन की लकड़ी का करुवा नामक छोटा बर्तन बनाया जाता था. तुन की लकड़ी के ही आटा गूंथने व अन्य कार्य को बड़ी पाई या परात का इस्तेमाल होता था. छोटे बच्चों को दूध पिलाने के लिए केतलीनुमा गड़वे का प्रयोग होता था. वहीं कटोरी के रूप में फरवा प्रयोग में किया जाता था.
उत्तराखंड की संस्कृति एवं जनजीवन से ताल्लुक रखने वाली पारम्परिक काष्ठ से निर्मित वस्तुएं अब संग्रहालयों की शोभा बढ़ा रही हैं
बर्तनों के अलावा, काष्ठ हस्तकला की रचनात्मकता भवनों और मंदिरों में भी देखी जा सकती थी, जहां लकड़ी के दरवाजों और भीतरी छतों पर सजावट के लिए नक्काशी की जाती थी. काष्ठ हस्तकला में देवी-देवताओं की आकृतियां भी बनाई जाती थी.
बिजली से चलने वाली खराद मशीनों और प्लाईवुड के आज के ज़माने में गढ़वाल और कुमाऊं में अब उंगली में गिनती के घर ऐसे होंगे जिनमें यह नक्काशी आज भी बनायी जाती होगी.
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
लम्बी बीमारी के बाद हरिप्रिया गहतोड़ी का 75 वर्ष की आयु में निधन हो गया.…
इगास पर्व पर उपरोक्त गढ़वाली लोकगीत गाते हुए, भैलों खेलते, गोल-घेरे में घूमते हुए स्त्री और …
तस्वीरें बोलती हैं... तस्वीरें कुछ छिपाती नहीं, वे जैसी होती हैं वैसी ही दिखती हैं.…
उत्तराखंड, जिसे अक्सर "देवभूमि" के नाम से जाना जाता है, अपने पहाड़ी परिदृश्यों, घने जंगलों,…
शेरवुड कॉलेज, भारत में अंग्रेजों द्वारा स्थापित किए गए पहले आवासीय विद्यालयों में से एक…
कभी गौर से देखना, दीप पर्व के ज्योत्सनालोक में सबसे सुंदर तस्वीर रंगोली बनाती हुई एक…