अगर आप इसे पढ़ रहे हैं तो आपके लिए एक ज़रूरी सूचना है. तकरीबन दो-तीन माह पूर्व मुझे एक दोस्त ने एक वाट्सएप ग्रुप का हिस्सा बनाया जहाँ किताबों की डिजिटल कॉपी या पीडीएफ फाइल शेयर की जाती है. कॉपीराइट और पाइरेसी के संवेदनशील आपराधिक मुद्दों के मद्देनज़र मैं अभी उसका हिस्सा हूँ. वैसे ये कोई महत्व की बात नहीं है. महत्व और मज़े की बात ये है कि ग्रुप में किसी ने मेरी ही किताब की पीडीएफ की माँग रख दी. अब मैं कम से कम तब तक ग्रुप का हिस्सा ज़रूर रहूँगा जब तक वो वहाँ उपलब्ध नहीं हो जाती. लेकिन ये वो ज़रूरी सूचना नहीं है जो मैं देना चाहता था. Will Digital Libraries Survive in these Difficult Times
वैसे पाइरेसी और कॉपीराइट के मुद्दे जितने बड़े हैं किताबों की उपलब्धता भी उतना ही संवेदनशील और ज़रूरी मुद्दा है. टेलीग्राम जैसे सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म पर तो इनपर नई तक़रीरें लिखी जा रही हैं. वहाँ किताबों के प्रारूप का पाट और चौड़ा है जिसमें उसके ऑडियो संस्करण, पॉड कास्ट, स्कैन्ड कॉपीज़ और संक्षेपित संस्करण ‘गुपचुप गलियारों से खुले आम’ प्राप्त किये जा सकते हैं. पता नहीं हिंदी साहित्य समाज इसे कैसे लेता है. ख़ैर. ये भी वो ज़रूरी सूचना नहीं है जो मैं आपको देना चाहता था.
एक वेबसाइट है आर्काइव डॉट ओआरजी (archive. org) जो किताबों, फिल्मों, आडियो-वीडियो का सबसे बड़ा ऑनलाइन कोठार है. यहाँ किताबों के डिजिटल संस्करण या स्कैन्ड कॉपी की एक बड़ी लाइब्रेरी या कहें कि बड़े पुस्तकालयों का पुस्तकालय जैसा कुछ है. विश्व की लगभग हर भाषा की किताबें वहाँ मौजूद हैं. लाइब्रेरी जैसी सुविधा से लैस है किताबों का ये ऑनलाइन ठिकाना. किसी भी पुस्तकालय की तरह आप वहाँ से किताबें इश्यू करा सकते हैं और एक निश्चित समय पर पढ़कर वापस कर सकते हैं. इंटरनेट की भाषा में इसे सीडीएल (CDL कंट्रोल्ड डिजिटल लेंडिंग) कहते हैं. उतनी समयावधि तक वो किताबें आपके पास रहेंगी और आम लाइब्रेरी की तरह उसे कोई और इश्यू नहीं करवा पाएगा. आपके वापस करते ही, या निर्धारित समय पूरा होते ही आपकी एक्सेस उस किताब से खत्म हो जाएगी और वो अन्य लोगों के लिए उपलब्ध हो जाएगी. कोई भी पाठक अपना एकाउंट बनाकर ये सुविधा प्राप्त कर सकता है. बहुत सी किताबों के बहुत से संस्करण उपलब्ध हैं इस वजह से आम पुस्तकालयों की तरह अमूमन उपलब्धता की भी समस्या नहीं रहती. उन किताबों के लिए ये लाइब्रेरी बहुत महत्वपूर्ण है जो आउट ऑफ प्रिंट हो चुकी हैं. Will Digital Libraries Survive in these Difficult Times
ज़रूरी सूचना ये है कि पिछले दिनों कुछ बड़े प्रकाशन समूहों ने एक वाद दायर किया है जिसमें इस सीडीएल की सुविधा को चुनौती दी गई है. ज़रूर किताबों की बिक्री के बाबत ही उनका केंद्रीय ध्यानाकर्षण बिंदु होगा भले तमाम अन्य मुद्दे उठाए गए हों. ये जानना दिलचस्प होगा कि इस मुकदमे का निर्णय किसके पक्ष में आता है या न्यायिक प्रक्रिया के बाद क्या स्थिति बनती है. (वैसे हम हिंदी वाले जो पाठक-लेखक-सम्पादक-प्रकाशक के मिले-जुले संस्करण हो चले हैं, अपना पक्ष ही निर्धारित कर लें तो बड़ी बात है.) Will Digital Libraries Survive in these Difficult Times
यहाँ आर्काइव द्वारा जो जवाब दाख़िल किया गया है उसका लिंक है. पढ़ना चाहिए. पाठकों-लेखकों (और प्रकाशन समूहों को भी) को ज़रूर पढ़ना चाहिए.
प्रकाशन-वितरण के आर्थिक समीकरण में सबसे नाज़ुक कोने पर खड़े हिंदी के लेखक तो पढ़े हीं अपने पाठकीय अधिकारों से वंचित पाठक भी पढ़ें. प्रकाशक तो वैसे भी पढ़ेंगे ही.
पढ़ने का आशय सिर्फ इस लिंक पर लिखे से नहीं वरन इस पूरे प्रकरण पर नज़र बनाए रखने से है. सूचना प्रौद्योगिकी के मौजूदा युग में कॉपी राइट और अन्य दीगर मामलों से सम्बंधित कई मुद्दों पर पड़ी धूल साफ हो सकती है. Will Digital Libraries Survive in these Difficult Times
सूचना समाप्त हुई.
डिस्क्लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं.
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अमित श्रीवास्तव. उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं. 6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी तीन किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता) और पहला दखल (संस्मरण) और गहन है यह अन्धकारा (उपन्यास).
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