उत्तराखण्ड राज्य को बने आज लम्बा समय हो चुका हैं. यहां के लोगोें के निरन्तर संघर्ष, आंदोलन और उनकी शहादत से जन्मा यह प्रदेष देष के राजनैतिक मानचित्र में पृथक राज्य के रुप में जरुर उभरा है परन्तु एक विकसित राज्य का दिवास्वप्न देखने वाले आमजनों के लिये इस राज्य के कोई सार्थक मायने नहीं दिखलायी पड़ रहे हैं. आखिर जिन मुद्दों और सामूहिक हितों के सन्दर्भों में इतना व्यापक जन आंदोलन लड़ा गया उन्हें राज्य बन जाने के इतने सालों बाद भी धरातल पर संवारने की ईमानदारी कोशिशें क्यों नहीं की गयीं ?
यह अहम् सवाल आज भी यहां के आम लोगों के समक्ष मुंह बांये खड़ा है. उत्तराखण्ड राज्य नींव पहाड़ के भूगोल पर रखे जाने के बावजूद भी आज पहाड़ के गांव खाली होने, वहां की परम्परागत खेती बाड़ी व कुटीर धन्धों के हाशिये पर चले जाने और मैदानी इलाकों में जनसंख्या का दबाब तेजी से बढ़ने जैसे़े तमाम सवाल उद्वेलित करने वाले हंै. गौरतलब है कि सत्ता पर काबिज माननीयों ने अब तक यहां के जनपद ऊधमसिंह नगर,हरिद्वार तथा देहरादून के मैदानी इलाकों की विकास दर के सहारे पर पूरे राज्य की सुनहरी तस्वीर पेश करने की कोशिश भर की है. आंकड़े बताते हैं कि पिछले सालों में राज्य की औसत विकास दर काफी अधिक बढ़ी है.
हकीकत में यह दर प्रत्यक्ष तौर पर मैदान के विकास पर आधारित है. देखा जाय तो यहां पहाड़ो की तुलना में मैदानी इलाकों में औद्योगीकरण,उच्च संस्थानों व अन्य विकास कार्यांें को ज्यादा तज्जबो दिये जाने के कारण आर्थिक विकास के परिदृश्य में पहाड़ बहुत पीछे छूटता नजर आ रहा है. देखा जाय तो राज्य के सत्तर प्रतिशत से अधिक भू-भाग पर काबिज पहाड़ तक विकास पहुंचाना एक चुनौती जरुर है पर ना मुमकिन नहीं. यहां पर सवाल सिर्फ सत्ता में आये माननीयों और प्रशासकों की मानसिकता का है कि वे इसके प्रति कितने गंभीर हैं.
अच्छा होता यदि सरकार और शासन में बैठे लोग स्थानीय भौगोलिक विषमताओं, संवेदनशील पर्यावरण, सामाजिक अवस्थापना सम्बन्धी सहूलियतों की कमी और बढ़ते पलायन जैसे मुद्दों पर ध्यान केन्द्रित करते हुए पहाड़ के लिये विकास का अलग माॅडल तैयार करने के प्रयास करते. पहाड़ के गांवों की अर्थव्यवस्था मुख्य रुप से खेती, पशुपालन ,बागवानी पर टिकी है. विषम भौगोलिक परिवेश और कमजोर उत्पादन तंत्र भले ही यहां की खेती बाड़ी के विकास में बाधक माने जाते हों पर यहां बहुत से ऐसे काश्तकारों के उदाहरण भी मौजूद हैं जिन्होंने अपने दम पर बंजर जमीन पर स्थानीय शाक-सब्जी,फल-फूल, मसालों व जड़ी-बूटी की फसल उगाने में सफलता पाई है.
यही नहीं तमाम ऐसे उद्यमी भी हैं जिन्होंने अल्प संसाधनों से ही मत्स्यपालन, पशुपालन, मौनपालन और फल व खाद्य प्रसंस्करण के जरिये पहाड़ में आय व रोजगार सृजन के द्वार खोले हैं. जैविक खाद्य उत्पाद, बारहनाजा फसलों के उत्पादन व चकबन्दी जैसे अन्य प्रयोग भी यहां सफल रहे हैं. उत्पादकता व जीविका से सीधे जुड़े इस तरह के माॅडलों से पहाड़ में सुदृढ़ अर्थव्यवस्था की प्रबल सम्भावनाएं बेशक बन सकती हैं परन्तु इस दिशा में आज तक कोई भी ठोस पहल नहीं की गयी. पर्यावरण के लिहाज से राज्य का पहाड़ी भाग बहुत नाजुक है. भूस्खलन,भूधंसाव बाढ़, बादल फटने़ व भूकम्प जैसी प्राकृतिक आपदाओं के कहर से यह इलाका अछूता नहीं रहा है.
पिछले साल जून में आयी भीषण प्राकृतिक आपदा से पहाडों में तबाही का जो मंजर दिखा उससे सभी परिचित हैं.बावजूद इसके यहां मीलों लम्बी सुरंग आधारित जलविद्युत परियोजनाओं के निर्माण, सड़कों के जाल बिछाने, नदियों के किनारे और संवेदनशील स्थानों से किये जाने वाले अनियंत्रित खनन कार्य तथा उच्च हिमालयी क्षेत्रों में चोरी छिपे हो रहे र्दुलभ पादप प्रजातियों के दोहन आदि ऐसे महत्वपूर्ण सवाल हैं जिन पर सख्ती से नियंत्रण करने की आवश्यकता है. पारिस्थितिकी तंत्र में बेहद मददगार बांज व अन्य चैड़ी पत्तीदार वृक्षों के रोपण व जल संरक्षण के लिये चाल-खाल निर्माण को अहमियत देकर योजनाओं में शामिल करने व स्थानीय संसाधनों का उपयोग और उसका संरक्षण ग्रामीणों के हित में करने जैसे सार्थक मुद्दों पर भी अब तक जमीनी सतर से काम नहीं हुआ है.
हांलाकि पहाड़ के गांव स्तर तक स्कूल, स्वास्थ्य, बिजली, पानी,सड़क, और संचार जैसी जन सुविधाओं को उपलब्ध कराने के प्रयास जरुर हुए हैं और पहले की तुलना में इनके आंकड़ों में वृद्धि भी हुई है पर गुणवत्ता में कमी और सरकारी मुलाजिमों के पहाड़ न चढ़ पाने की कवायद से इन सुविधाओं का समुचित लाभ लोगों को नहीं मिल रहा है. इधर सत्तासीन सरकार गैरसैण,अल्मोडा व केदारनाथ में आयोजित कैबिनेट की बैठक कर राज्य की सरकारे पहाड़ के जख्मों पर मलहम लगाने की कोषिष में भी जुटी है पर आगे देखना यह होगा कि यह मात्र राजनैतिक षिगूफा भर है या कुछ और.
राज्य के समग्र विकास को देखते हुए यह बात महत्वपूर्ण होगी कि यहां मौजूद भौगोलिक परिवेश के अनुरुप ही विकास की योजनाएं लागू की जांय. उत्तराखण्ड में स्थित कृषि, वन, पर्यावरण, प्रौद्यौगिकी तथा भू-विज्ञान से जुडे़ संस्थानों व विश्वविद्यालयों से इस दिषा में कारगर सहयोग लिया जा सकता है. इसके लिए नियोजनकारों, नीति निर्धारकों व प्रशासकों को महत्वपूर्ण भूमिका अदा करनी होगी. फिलहाल जिन आकांक्षाओं और अपेक्षाओं के साथ इस राज्य की परिकल्पना हुई थी उन पर खरा उतरने के लिये सरकार को अभी ईमानदारी से बहुत कुछ करना शेष है.
प्रस्तुत आलेख हिलवाणी हमारे साथी शिवप्रसाद जोशी की वेबसाईट हिलवाणी से लिया गया है. लेखक, शोधार्थी और पहाड़ी संस्कृति के अध्येता चंद्रशेखर तिवारी का यह पुराना आलेख इस बात को रेखांकित करता है कि उत्तराखंड का नक्शा भले ही बन गया लेकिन अपने ही नक्शे के भीतर वो न जाने कहां गुम हो गया है.
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