नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार पर्यावरण में आ रहे बदलावों के कारण हिमालय से निकलने वाली 60 प्रतिशत जलधाराएँ सूखने की कगार पर हैं. इम्हीं जलधाराओं से गंगा यमुना जैसी नदियाँ बनती हैं. रिपोर्ट के अनुसार उत्तराखण्ड में पिछले 150 सालों में इन जलधाराओं की संख्या 360 से घटकर 60 ही रह गयी है.
इसके अलावा पारम्परिक जलस्रोतों के डिस्चार्ज में भारी गिरावट भी दर्ज की गयी है. इस दौरान 139 जलस्रोत ऐसे हैं जिनके डिस्चार्ज में 50 से 75 प्रतिशत की कमी दर्ज की गयी है. 268 ऐसे जलस्रोत हैं जिनके वाटर डिस्चार्ज में 75 से 90 प्रतिशत की गिरावट आ चुकी है. लगभग 93 जलस्रोत 90 प्रतिशत की कमी के साथ सूखने के कगार पर हैं. सूखते जा रहे जलस्रोतों के मामले में पौड़ी, टिहरी, चम्पावत और अल्मोड़ा की स्थिति ज्यादा भयावह दिखाई देती है. इन जिलों के अधिकांश जलस्रोतों में 50 प्रतिशत से ज्यादा की कमी परिलक्षित हुई है. अकेले पौड़ी-गढ़वाल में ही इस दौरान 185 जलस्रोत सूखने के कगार पर पहुँच चुके हैं.
इन जलस्रोतों को सूखने से बचाने या पुनर्जीवित करने के लिए कैचमेंट एरिया प्रोटक्शन किये जाने की विशेष जरूरत है. सरकार के पास इन जलस्रोतों का विस्तृत डाटाबेस न होने के कारण जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से लगातार सूखते जा रहे इन जलस्रोतों को बचाने या पुनर्जीवित करने का कोई ठोस कार्यक्रम नहीं है.
जलधाराओं और जलस्रोतों की लगातार दयनीय होती जा रही यह स्थिति आने वाले समय में उत्तराखण्ड के पहाड़ी और मैदानी इलाकों के लिए कई तरह के संकट पैदा करेगी. सिंचाई और पेयजल का संकट इनमें प्रमुख होगा. हाल ही में जलवायु परिवर्त के नतीजे हमने केरल और देश के अन्य हिस्सों में मानसून की तबाही के रूप में देखे हैं. अब गर्मियों में भीषण पेयजल संकट इसका दूसरा ही रूप प्रस्तुत करेगा. उत्तराखण्ड के मुख्य मार्गों में प्राकृतिक जलस्रोतों को शेर के मुंह से गुजारकर बनाये जाने वाले आकर्षक प्याऊ दिखाई देना आम था, इनमें से ज्यादातर अब सूख चुके हैं. पानी से लबरेज रहने वाले गाँवों में बचे-खुचे जलस्रोतों पर अब पानी भरने के लिए लाइन लगी दिखाई देती है. पहाड़ी कस्बों में टैंकरों की जरूरत पड़ने लगी है.
जल्द ही जलधाराओं, स्रोतों के संरक्षण और पुनर्जीवन की ठोस नीति न बनायीं गयी तो राज्य में जनजीवन अस्त-व्यस्त हो जायेगा.
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