मैं उत्तराखंड का रहने वाला हूं, पर्वतीय जिले अल्मोड़ा के मुख्यालय में या वहां की आम भाषा में कहूं तो मैं अल्मोड़ा बाजार में रहता हूं. मैं अक्सर अपने जिले के गांवों तक हमेशा नहीं पहुंच पाता लेकिन मेरा अभी भी मानना है कि असली पहाड़ तो वो ही हैं.
(Village and Town Gap Widening Uttarakhand)
इस बार किस्मत और कोरोना की वजह से थोड़ा फुर्सत में होने की वजह से गांवों में घूमने का मौका मिल गया. इस बार गावों को ओर थोड़ा नज़दीक से देखने का सौभाग्य मिला. पहाड़ों के गांव पलायन से गुज़र रहे हैं, वहां अब बहुत कम लोग बचे हैं. गांव से अच्छे अवसरों के लिए बाहर निकले लोग शादी ब़्याह में ज़रुर लोग दिखते हैं. इसके अलावा वो पहाड़ में ईष्ट देव की पूजा और अपने नाराज पूर्वजों को पूजने के लिए आते हैं, पहाड़ में यूं भी ये कहावत बेहद प्रचलित है कि गांव छोड़कर गए तो हो, पर पूजा- पाठ करने तो आना ही पड़ेगा.
अब जो लोग गावों में रहने को मज़बूर हैं वो अपने नजदीकी शहरी इलाकों से ही काफी कट गए हैं. अल्मोड़ा की बात करूं तो ये लोग बाजार या शहर में रहने वाले लोगों से ही काफी पीछे छूट चुके हैं. ऐसे में महानगरों से कल्पना करना तो बकवास है. गावों में अभी तक सड़कें नहीं पहुंच पाई है. आजीविका के लिए वो पूरी तरह खेती पर निर्भर हैं जो पूरी तरह बारिश पर निर्भर है. उसके अलावा पशुपालन के भरोसे ही उनकी आमदनी है. जिसके सहारे वो अपनी रोज़ी रोटी का जुगाड़ कर रहे हैं. इन सबके बीच सबसे बड़ा सवाल है कि लोगों के बीच असमानता, जो लगातार बढ रही है.
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पढ़ाई से लेकर रहन-सहन में वो लगातार पिछड़ रहे हैं. मेरे कहने का सीधा मतलब है कि वो दोयम दर्जे का जीवन बिताने को मज़बूर हैं. वहां के स्कूलों की हालत बेहद दयनीय है. लोग जागरुकता के अभाव में रोज॒गार की तलाश के लिए बीच से स्कूल छोड़ रहे हैं. अधिकतर घरों के युवा फौज और अर्धसैनिक बलों में है क्योंकि वो ही एक जगह है जहां पर उन्हें कठिन जीवन शैली के कारण नौकरी मिल जाती है पर ये पूरी तरह सच नहीं है क्योंकि अब चुनौती बढ़ चुकी है.
हर कोई लिखित परीक्षा पास नहीं कर पाता, वहां भी मौके कम हुए हैं. जो घरों में बचे है वो दिहाड़ी मज़दूर या छोटा मोटा काम करके घर चला रहे हैं, लेकिन सवाल उठता है कि ऐसा क्यों हो रहा है वोट लेने की खातिर यहां के नेता यहां घूमने आते हैं, शादी ब्याह में शामिल होते हैं और अपने चेलों चपाटों के जरिए उन्हें ठग जाते हैं. इसके बदले में नेताओं के चेलों को ठेकेदारी के काम मिल जाते हैं. जैसे रास्तों की मरम्मत और सड़क बनाने का काम. जहां सड़कें पहुंची है उनकी हालत लगातार खराब हो रही है क्योंकि वो कच्ची हैं उन्हें पक्की करने की तरफ किसी का ध्यान नहीं है. लोग ज़िंदगी दाव पर लगातार यात्रा करने को मज़बूर हैं.
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महिलाओं के हालत तो गांवों में सबसे ज़्यादा खराब है वो नारकीय जीवन जीने को मज़बूर हैं. सुबह से शाम तक वो पिसती हैं और अपने लिए उनके पास बिल्कुल फुर्सत नहीं है. पहाड़ की महिलाओं की जिंदगी पर लिखने के लिए बहुत कुछ है पर मुद्दा न भटके इसलिए आगे बढ़ते हैं.
कुल मिलाकर गांव और शहर में बढ़ती खाई की वजह से गरीब और अमीर के बीच खाई बढ रही है. ऐसे में एक वर्ग लगातार आगे बढ रहा है दूसरा वर्ग उतना ही पीछे जा रहा है. सबसे गौर करने वाली बात ये है इस तरफ किसी का ध्यान नहीं है क्योंकि ये सबके लिए फायदेमंद है. जब तक गांव नहीं होंगे, वोट की फसल नहीं कटेगी, जबकि असली फसल तो अब बंदर और सुअर बर्बाद कर देते हैं.
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विविध विषयों पर लिखने वाले हेमराज सिंह चौहान पत्रकार हैं और अल्मोड़ा में रहते हैं.
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