Featured

उत्तराखण्ड की वनरावत जनजाति

उत्तराखंड के सामाजिक गठन का एक अन्य वर्णेत्तर घटक है वनरौत या वनराजी.

पिथौरागढ़ जनपद के अस्कोट खंड के निकटस्थ सघन वनों में आखेटकीय एवं गुहावासी जीवन बिताने वाले वनरौतों (राजियों) को अपनी पृथक सामाजिक एवं सांस्कृतिक परम्पराओं के कारण एक पृथक वर्ग के रूप में माना जाता है. इनकी प्रजातीयता एवं जातीयता के विषय में इतिहासज्ञ, नृविज्ञानी एवं समाजशात्री एकमत नहीं हैं. कोई भाषा के आधार पर इनका संबंध आग्नेय (मुंडा) परिवार आए मानता है तो कोई राजकिरात कहे जाने के कारण (रावत, राउत, रौत) कहते हैं. फलतः इनके संबंध में प्रचलित अनुश्रुति के अनुसार इन्हें अस्कोट के रजवार शासकों के द्वारा इस क्षेत्र को अपने अधिकार में लेने से पूर्व तक इस क्षेत्र पर इस वनरौतों का अधिकार था. किंतु रजवारों द्वारा इस क्षेत्र को अधिकृत करने के बाद या तो ये स्वयं इस क्षेत्र को छोड़कर जंगलों में चले गए या इन्हें खदेड़ दिया गया.

जो भी हो ये लोग पुराने समय से ही यहां पर घनघोर जंगलों के बीच पर्वतीय गुफाओं को आश्रय बनाकर, कंदमूल एवं शिकार कर जीते आ रहे हैं.

राजकिरात के नाम से जाने जाने वाले ये गुहाश्रयी लोग कभी इस क्षेत्र के अधिपति हुआ करते थे इसका संकेत वाराही संहिता के उन प्रकरण में मिलता है जिसमें अमरवन तथा चीड़ा के मध्यस्थ क्षेत्र में राज्यकिरातों की स्थिति बताई गई है. इसमें पुरतत्वविदों के द्वारा अमरवन की पहचान जागेश्वर से तथा चीड़ की तिब्बत से की गई है. सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्तर पर इनमें कतिपय हिन्दू परम्पराओं का अनुपालन पाया जाने पर इन्हें हिन्दू समाज की परिधि में रखा जाता है.

चार्ल्स शेरिंग ने अपनी पुस्तक वेस्टर्न तिब्बत एंड ब्रिटिश बार्डर लैंड (1906) में वनरावत का जिक्र बनमानुष (वाइल्ड मैन) के तौर पर किया है. शेरिंग ने लिखा है कि अस्कोट से कुछ दूरी पर, कस्बे से 2000 फीट की गहराई वाली एक गर्म घाटी में खुद को महाराजा कहने वाले समुदाय के लोग रहते थे. चार्ल्स शेरिंग के साथी लॉन्गस्टफ ने बहुत मुश्किल से उनकी कुछ तस्वीरें लेने में कामयाबी हासिल की. उसने उनके लिए रॉयल वाइल्डमैन शब्द का प्रयोग किया है. उसने लिखा है की जब वे अस्कोट के रजबार से मिलने जाते थे तो वे उसके साथ बैठते और उसे छोटा भाई और उसकी रानी को छोटी बहन कहते. अपनी राजसी परंपरा के अनुसार न वे किसी बड़े को सलाम करते न छोटे को.

राजी और रावत नाम से पहचाने जाने वाले ये लोग अपनी एक भाषा बोलते थे जिसका सम्बन्ध शायद तिब्बत-वर्मा परिवार से है. सामान्य रूप से पतले और चेहरे पर कम बाल वाले ये राजी दिखने में मंगोलियन नस्ल के दिखाई देते हैं.

इस समय इनकी बसासत पिथौरागढ़ जिले के 8 गांवों में पाई जाती है – कूटा, चौरानी, मदनपुरी, किमखोला, गाणागांव, जमतड़ी, अलतड़ी, खिरद्वारी.

सरकार द्वारा इन्हें समाज कि मुख्यधारा में लाने के सफल प्रयास किये जा रहे हैं.

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Sudhir Kumar

Recent Posts

नेत्रदान करने वाली चम्पावत की पहली महिला हरिप्रिया गहतोड़ी और उनका प्रेरणादायी परिवार

लम्बी बीमारी के बाद हरिप्रिया गहतोड़ी का 75 वर्ष की आयु में निधन हो गया.…

2 weeks ago

भैलो रे भैलो काखड़ी को रैलू उज्यालू आलो अंधेरो भगलू

इगास पर्व पर उपरोक्त गढ़वाली लोकगीत गाते हुए, भैलों खेलते, गोल-घेरे में घूमते हुए स्त्री और …

2 weeks ago

ये मुर्दानी तस्वीर बदलनी चाहिए

तस्वीरें बोलती हैं... तस्वीरें कुछ छिपाती नहीं, वे जैसी होती हैं वैसी ही दिखती हैं.…

2 weeks ago

सर्दियों की दस्तक

उत्तराखंड, जिसे अक्सर "देवभूमि" के नाम से जाना जाता है, अपने पहाड़ी परिदृश्यों, घने जंगलों,…

3 weeks ago

शेरवुड कॉलेज नैनीताल

शेरवुड कॉलेज, भारत में अंग्रेजों द्वारा स्थापित किए गए पहले आवासीय विद्यालयों में से एक…

3 weeks ago

दीप पर्व में रंगोली

कभी गौर से देखना, दीप पर्व के ज्योत्सनालोक में सबसे सुंदर तस्वीर रंगोली बनाती हुई एक…

4 weeks ago