ज्यादातर भारतीय घरों में बूढ़े-बुजुर्गों का सम्मान नहीं किया जाता. सम्मान तो छोड़ो उन्हें 2 वक़्त का भोजन तक इंसानी गरिमा के साथ नसीब नहीं होता. बूढों के नाम संपत्ति होने पर उनसे छल-छद्म कर संपत्ति हड़प ली जाती है या फिर ‘अड़ियल’ होने की स्थिति में उनकी मृत्यु की कामना की जाती है. अगर उनके पास संपत्ति नहीं है तो वे भगवान भरोसे हैं. (Utter Disrespect for Elders in Society)
इन बुजुर्गाों की गाढ़ी कमाई से बने घरों में कुंडली मारकर बेमतलब के बहाने बनाकर अपने चूल्हे अलग कर लिए जाते हैं, ताकि उन्हें भोजन पकाकर देने का कष्ट न उठाना पड़े. (Utter Disrespect for Elders in Society)
बूढ़ी महिलाओं से तो आसानी से संपत्ति हड़प ली जाती है. उनके पति के आश्रित होने के नाते मिलने वाली पेंशन पर उन्हें बैंक या पोस्ट ऑफिस साथ ले जाकर 1 तारीख को ही डाका डाल दिया जाता है. वे अपनी पितृसत्तात्मक ट्रेनिंग की वजह से इसे स्वाभाविक भी समझती हैं.
बूढ़े-बुजुर्गों की इस खराब हालत की ही वजह से पुछेरे, बाक्कियों, ओझाओं, डंगरियों का बहुत बड़ा कारोबार चला करता है. यह भारत में अरबों-खरबों का कारोबार है. खुद पर आयी विपत्ति की जांच-पूछ कराने आए व्यक्ति से वे अक्सर यही कहते हैं कि ‘एकाध पीढ़ी पहले तुम्हारे परिवार में एक बूढ़े की कुकुरगत की गयी थी, उसका क्रियाकर्म तक ठीक से नहीं किया गया था. उसकी आत्मा तृप्त करना जरूरी है वर्ना वह भटकती रहेगी और तुमको सताती रहेगी.’ यह एक ऐसी गोली है जिसे निशाने पर बैठना ही होता है.
यह इन परिवारों की इतनी सामान्य कहानी हुआ करती है कि सभी पर फिट बैठ जाती है. परिवार उस ओझा-सोखा का कायल होकर उसके नेतृत्व में मुक्ति मार्ग की तलाश शुरू कर देता है. आनन-फानन में उस बूढ़े का हिसाब-किताब किया जाने लगता है जिसका पूरा बुढ़ापा नर्क बना दिया गया था, जिसे मौत ने ही उस नर्क से मुक्ति दिलाई थी.
सभी धामों में भी इस अधम से मुक्ति दिलाने के लिए बाकायदा अलग विभाग बनाया गया है. इसी विभाग का टर्नओवर शायद सबसे ज्यादा भी होता होगा.
-सुधीर कुमार
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