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परम्परागत घराट उद्योग

वस्तुतः घराट को परम्परागत जल प्रबंधन, लोक विज्ञान और गांव-समाज की सामुदायिकता का अनुपम उदाहरण माना जाता है. सही मायने में ये घराट ग्रामीण आत्मनिर्भरता और पर्यावरण सम्मत कुटीर उद्योग के प्रतीक हैं. उत्तराखंड के पर्वतीय अंचल में इस परम्परागत घराट का प्रचलन सदियों पूर्व से चलता आया है. उस दौरान कई स्थानीय ग्रामीणों की आजीविका इसी घराट से चला करती थी. घराट चलाने वाले को अनाज पिसाई के बदले थोड़ा बहुत अनाज मिल जाता है जिससे उसकी दैनिक रोजी-रोटी चलती है.
(Uttarakhand Ka Bhugol)

जल शक्ति से चलने वाले इन घराटों से ग्रामीण जन स्थानीय स्तर पर पैदा होने वाले आनाजों यथा गेहूं, जौं, मडुवा तथा मक्का की पिसाई करके उसका शुद्व आटा प्राप्त किया करते हैं. प्रमुख बात यह है कि अब गांवों में अवस्थापना विकास सुविधाओं में बढ़ोतरी होने से विद्युत अथवा डीजल चालित चक्कियों का प्रचलन हो गया है. साथ ही साथ नदियों में आने वाली बाढ़ के प्रकोप से कई घराट नष्ट हो गये हैं. प्राकृतिक आपदाओं से कुछ नदियों की प्रवाह दिशा भीपरिवर्तित हो गई है. यही नहीं पर्यावरण असन्तुलन से कई गाड़-गधेरों में जल की मात्रा भी कम हो गई है. इन तमाम कारणों का प्रतिकूल प्रभाव इन परम्परागत घराटों पर पड़ने लगा है.

घराट का आन्तरिक दृश्य. रेखाचित्र : चंद्रशेखर तिवारी

फलस्वरुप घराटों के उपयोग में तीव्र कमी आने लगी है और इनके अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा है. कुछ गिनती भर गांवों में ही वहां के स्थानीय लोग आज किसी तरह इन परम्परागत घराटों की विरासत को अपने प्रयासों से बचाये हुए हैं. उत्तराखण्ड के कोसी नदी घाटी, गगास नदी घाटी सहित कमल सिराईं पनार, गौला, लधिया, नयार, पश्चिमी रामगंगा, बालगंगा, लाहुर, बालखिला व पुंगर नदी सहित अनेक गाड़-गधेरों में स्थित घराट आज भी आंशिक तौर पर संचालित होते हुए दिखाई देते हैं.
(Uttarakhand Ka Bhugol)

स्थानीय बुजुर्गों के मुताबिक पुराने समय में पर्वतीय क्षेत्र की सदानीरा छोटी नदियों और गाड़-गधेरों के तट पर स्थापित ये घराट पानी की छलछलाहट और घटवारों (घराट को चलाने व उसकी देखरेख करने वाले व्यक्ति) की उपस्थिति से जीवंत बने रहते थे. तब घटवारों को अनाज पिसाई के रुप में पिसाई वाले अनाज की मात्रा को देखते हुए निर्धारित हिस्सा मिला करता था और घटवार उस प्राप्त अनाज से ही राजकोष को कर दिया करता था. इस तरह की सामाजिक विनिमय प्रणाली से तब तत्कालीन दौर की अर्थव्यवस्था चलती रहती थी.

पन्द्रहवीं सदी में कुमाऊं में चंद राजाओं के शासन काल में घराटों का महत्वपूर्ण अस्तित्व रहा करता था. उस दौर के कई पुराने ताम्रपत्र अभिलेखों में भी घराटों के विवरण का उल्लेख मिलता है. बिट्रिशकार में अंग्रेजों ने घराटों के निर्माण व रखरखाव हेतु बकायदा शासन स्तर पर नि पत्र जारी किये थे. निर्धारित प्रावधानों के मुताबिक तत्कालीन समय में घराट की स्थापना करने में डिप्टी कलेक्टरों की अनुमति को अनिवार्य घोषित किया हुआ था.
(Uttarakhand Ka Bhugol)

वर्ष 1917 व 1930 के कुमाऊँ वाटर रूल्स के आधार पर बिट्रिश शासन द्वारा घराटों पर नियंत्रण करते हुए इन पर वार्षिक टैक्स भी लगाया हुआ था. इन तथ्यों से साफ पता चलता है कि पुराने समय में इन घराटों की गांव समाज के लिए कितनी अधिक उपयोगिता रही होगी. सामान्य तौर पर घराट की बनाबट बहुत साधारण होती है. इनका निर्माण स्थानीय क्षेत्र में उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों से ही किया जाता है. घराट के शिल्प कौशल में पर्वतीय लोक विज्ञान की छाप पूरी तरह दिखाई देती है. उच्च शिखरों से आने वाली जलधाराओं को कंकड, पत्थर व मिट्टी का बंध बनाकर उसके प्रवाह का रुख मोड़ दिया जाता है.

रेखाचित्र : चंद्रशेखर तिवारी

बंध से इस प्रवाह को एक छोटी गूल के जरिए लाकर उसे ऊंचाई वाली जगह से लकड़ी के पतनाले से तीव्र ढाल देकर नीचे पंखाकार गोल चकी में गिराया जाता है. जल के इस तीव्र वेग से जब चक्री घूमने लगती है तो उपर लगे घराट के पाट भी घूमने लगते हैं. घराट के पाटों के उपर शंकु आकार का एक पात्र लटका रहता है जिसमें आनाज भर दिया जाता है. पाट को स्पर्श करती हुई लकड़ी की चिड़िया धीरे-धीरे अनाज को पाट के छिद्र में गिराते जाती है. इस तरह पत्थर के पाट में दबकर अनाज की पिसाई होने लगती है. एक अनुमान के आधार पर एक परम्परागत घराट से 24 घण्टे में तकरीबन दो मन अर्थात 80 किग्रा. आटे की पिसाई हो सकती है.

निश्चित तौर पर उत्तराखंड के घराट स्थानीय समुदाय द्वारा संचालित सामूहिक व परम्परागत जल प्रबंधन की एक बेहतरीन व्यवस्था है. यह पुरातन जन व्यवस्था हमारे समाज को प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग और प्रबंधन सरल व सहज तरीके से उपयोग करने का संदेश देती है. हिमालय क्षेत्र की विषम भौगोलिक परिस्थितियों में रहकर यहां के ग्रामीण जनों ने जिस तरह प्रकृति प्रदत्त साधनों का दीर्घकालिक उपयोग करने की संस्कृति को विकसित करने का नायाब प्रयास किया है उसे समझने की नितांत जरुरत है. घराट जैसी बेहतरीन सामाजिक परंपराओं को पुर्नजीवित करते हुए हमें नवीनतम वैज्ञानिक सुधार के साथ इन्हें अधिक उपयोगी बनाने के प्रयास करने चाहिए.
(Uttarakhand Ka Bhugol)

नोट – यह लेख चंद्रशेखर तिवारी की पुस्तक ‘उत्तराखंड का प्राकृतिक भूगोल : प्राकृतिक व सामाजिक संदर्भ’ से साभार लिया गया है. अमेजन पर किताब मांगने का पता – उत्तराखंड का प्राकृतिक भूगोल : प्राकृतिक व सामाजिक संदर्भ
पुस्तक खरीदने के लिए ‘समय साक्ष्य‘ प्रकाशन में  प्रवीन भट्ट से इस नंबर पर सम्पर्क किया जा सकता है – 7579243444. 

चंद्रशेखर तिवारी. 

पहाड़ की लोककला संस्कृति और समाज के अध्येता और लेखक चंद्रशेखर तिवारी दून पुस्तकालय एवं शोध केन्द्र, 21,परेड ग्राउण्ड ,देहरादून में रिसर्च एसोसियेट के पद पर कार्यरत हैं.

इसे भी पढ़ें: पहाड़ की कृषि आर्थिकी को संवार सकता है मडुआ

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