कुमाऊंनी गीतों में जब एकबार बाजारूपन आना शुरु हुआ फिर वह कभी खत्म नहीं हुआ. गीतों के नाम पर फूहड़ता और संगीत के नाम पर ऑटोटोन आज भी कुमाऊंनी गीतों में जारी है. निराशा के इस माहौल के बावजूद कुमाऊंनी लोकगीतों को आधुनिकता के साथ सहजने में कुछ गिने-चुने लोगों के नाम लिये जा सकते हैं. इन्हीं नामों में एक नाम प्रवेन्द्र सिंह कार्की उर्फ़ पप्पू कार्की .
2010 में रामा कैसेटस की एल्बम के गीत ‘डीडीहाट की जमना छोरी’ से शुरुआत करने वाले पप्पू कार्की का आज जन्मदिन है.
उत्तराखंड में रामगंगा के पास एक छोटा सा गांव है सेलावन. सेलावन गांव के एक सामान्य से परिवार में जन्मे पप्पू कार्की के गीतों के बिना कुमाऊँ के किसी भी समारोह की रंगत की कल्पना करना बेमानी है.
पप्पू कार्की के गीतों की सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि उन्होंने कुमाऊनी लोकगीतों को अपने लोक की ठसक के साथ अपनी मधुर आवाज में लोगों के सामने पेश किया. जिसे लोगों ने खूब पसंद भी किया.
कुमाऊं के विवाह आदि समारोहों में जब डीजे का प्रचलन बड़ा तो इन समारोहों में बजने वाले पंजाबी और हिंदी-अंग्रेजी गीतों ने दो पीढ़ियों के बीच एक मतभेद सा पैदा कर दिया. पप्पू कार्की ने अपने लोकगीतों के माध्यम से न केवल इन दो पीढ़ियों के मतभेद को खत्म किया बल्कि इनके साथ तीसरी पीढ़ी को भी इन दो पीढ़ियों के साथ लाने का काम किया.
कम उम्र में पप्पू कार्की के इस दुनिया से जाने के बाद आज भी जब उनका कोई लोकगीत बजता है तो पैर अपने आप थिरकने लगते हैं. उसने कर दिखाया कि कैसे लोकगीत-लोकसंगीत की आत्मा को बचाए-बनाये रखते हुए उसे आधुनिक बनाया जा सकता है, यही पप्पू कार्की के संगीत की सबसे बड़ी उपलब्धि है.
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आप हर उत्तराखण्डी की स्मृतियों में जिंदा रहीगे पप्पू कार्की ।