उत्तराखंड का इतिहास भाग – 5
उत्तर भारत में कांस्ययुगीन सभ्यता के अंत के बाद अनेक छोटे छोटे जनपदों का उदय माना जाता है. इस काल में वर्तमान उत्तराखण्ड क्षेत्र के विषय में कुलिन्द जनपद शब्द का प्रयोग होता है. कुलिन्द जनपद का दूसरा नाम उशीनर था. शिवप्रसाद डबराल ने कुलिंद जनपद को छः भागों में बांटा गया है. तामस, कलकूट, तड़ग्ण, भारद्वाज, रंकु, आत्रेय या गोविशाण.
जनपद का बड़ा भाग घने जंगलों से बसा हुआ था जहां दूर-दूर से आखेटक आते थे. अष्टाध्यायी में कलकूट नगर का वर्णन है. कलकूट की पहचान वर्तमान कालसी से की गयी है. कलकूट इस जनपद की राजधानी हुआ करता था.
महाभारत में कुलिन्द जनपद के लिये कुलिन्द नगर, एकचक्रा, कालकूट और स्त्रुध्ननगर का उल्लेख हुआ है. दिव्यादान में कहा गया है कि बुद्ध स्त्रुध्ननगर में गये थे. बुद्ध कोलिय जनपद के सापुग निगम नगर से हरिद्वार के पास उशीरध्वज पर्वत तक गये थे. उशीरध्वज पर्वत की पहचान कनखल के पास स्थित उशीरगिरी ( चण्डी की पहाड़ी ) से की गयी है. उशीरध्वज और ऋषिकेश के बीच कई सारी बस्तियां हुआ करती थी. पाणिनि के काल में इनके आगे अर्म लगता था. ऋषिकेश के पास में कुब्जार्मक नामक जगह अब भी चली आ रही है. पाणिनि ने भारद्वाज जनपद के दो गांवों कृकर्ण और पर्ण का उल्लेख किया है. भारद्वाज जनपद की पहचान वर्तमान गढ़वाल से की जाती है.
बुद्ध की यात्रा आदि से ऐसा लगता है की बौद्ध धर्म ने शुरू से ही वर्तमान उत्तराखंड क्षेत्र में अपने धर्म का प्रचार प्रसार किया था. बुद्ध ने पूरे भाबर की यात्रा की थी. उन्होंने गंगातट से लेकर गोविषाण तक की यात्रा की थी. गोविषाण की पहचान वर्तमान काशीपुर से की जाती है. दिव्यादन में जिस स्त्रुध्ननगर का उल्लेख किया गया है उसके लिये बुद्ध ने सम्पूर्ण भाबर प्रदेश को पार किया होगा. स्त्रुध्ननगर भाबर प्रदेश के धुर- दक्षिण-पश्चिम कोने पर बताया गया है. स्त्रुध्ननगर में बुद्ध ने उपदेश भी दिये थे. इसकी पुष्टि चीनी यात्री युआनचांग ने भी सातवीं सदी के दौरान अपनी यात्रा के दौरान की है.
भगवान बुद्ध के प्रिय शिष्य आंनद के शिष्य साणवासी उशीरध्वज पर्वत पर ही रहते थे. तृतीय बौद्ध संगीति की अध्यक्षता करने वाले मोग्ग्लिपुत्त का संबंध अहोगंग्ड से बताया गया है. उशीरध्वज और अहोगंग्ड को एक ही बताया गया है. पान्डुवाला की खुदाई से प्राप्त पात्रों से इसकी पुष्टि होती है कि कम से कम उत्तराखण्ड के दक्षिणी भाग में बौद्ध अपना प्रचार प्रसार करने में सफल रहे थे.
सिन्धुतट तक पारसिक साम्राज्य फ़ैलने से भारत और पश्चिमी देशों के बीच व्यापरिक मार्गों की सुरक्षा हो गयी. व्यापार में वृद्धि से चोर डाकुओं के क्रियाकलापों में भी वृद्धि हो गयी. कलिन्द जनपद की सीमाओं में स्थित घने वन उनके लिये एक सुरक्षित स्थान बन गये. इस तरह नन्द काल के उदय के समय इस क्षेत्र में डाकुओं और लुटेरों का वर्चस्व था.
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