अशोक पाण्डे

कुमाऊनी में गोल रहने की कला और उसका मतलब

छः लोगों ने चाय पी हो और आप उनमें से एक हों तो पेमेंट करते समय आपको हड़बड़ी करने की कतई आवश्यकता नहीं. आप अपनी निगाह अनन्त में टिकाये चुपचाप बैठे रहें. कोई न कोई कर देगा.

हस्पताल में भर्ती किसी निर्धन संबंधी को ऑपरेशन थियेटर में ले जाया जा रहा हो, मन मार कर वहां गए आप भी घटनास्थल पर मौजूद हों और नर्स एक परचा हवा में लहराकर कहे कि ये दवाइयां तुरंत ले आइये तो आप अपनी नज़रें फेर लीजिये. कोई न कोई ले आएगा.

पड़ोस के गमी वाले घर में पहुंचे लोगों की भीड़ में आपको आगे खड़े रहने की कोई ज़रुरत नहीं. क्या पता कब कौन आपसे अगरबत्ती का पैकेट या पाव भर घी ले कर आने को कह दे. ऐसा पुण्य कमाने को कोई दूसरा लालायित हो रहा होगा. इस सूची को अंतहीन बनाया जा सकता है.

आप सड़क के रास्ते कहीं से कहीं जा रहे हैं. अचानक आपका सामना कहीं से जुट आई छोटी मोटी भीड़ से हो जाता है. एक स्कूटर वाले को कोई ठोक गया है. दयनीय स्थिति में गिरे हुए स्कूटर वाले की तरफ देखने की कोई जरूरत नहीं. कब कौन बेवकूफ महात्मा घायल को आपकी गाड़ी में लाद दे कि भाईसाहब जरा आगे अस्पताल तक ले चलिए. गाड़ी की रफ़्तार बढ़ा कर आपने तुरंत नड़ी हो जाना चाहिए. पुलिस के लफड़ों में पड़ना सद्गृहस्थों को शोभा नहीं देता.  

किसी भी तरह के ऐसे देश, काल अथवा परिस्थिति में जहाँ आप के जाने से थोड़ी बहुत मदद हो सकती हो, जहाँ आपको अपनी अन्यथा बेमतलब देह से थोड़ी बहुत मशक्कत करवानी पड़ सकती हो, जहाँ आपकी गाँठ से दस-पांच रुपये निकलने का सुदूरतम चांस बन रहा हो या जब अनंत काल से चले आ रहे आपके मनहूस रूटीन में किसी तरह के बदलाव की संभावना बन रही हो – दुनियादार लोगों का मानना है कि ऐसे में आपने निरपेक्ष, निर्विकार, निष्पंक, अनासक्त, विरक्त, महत्वाकांक्षाहीन, निष्पक्ष और संतोषवान अर्थात एज़ काइयां एज़ पॉसिबल बने रहना चाहिए.

शहरी कुमाऊनी में इसे गोल रहना कहते हैं.

अशोक पाण्डे

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