सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों को चेतावनी दी है कि वह उसके द्वारा दी गई वनों की परिभाषा के अनुरूप ही जंगलों में अपनी गतिविधियां सुनिश्चित करें. 2023 में वन संरक्षण (अधिनियम) एक्ट में हुए संशोधन के विरुद्ध दायर याचिका का संज्ञान लेते हुए कहा गया कि इससे वनों के काफी बड़े दायरे को जंगलों की कटाई के खिलाफ वैधानिक संरक्षण नहीं मिल रहा है. ऐसी छूट मिल गई है जिससे गैर वन गतिविधियों के साथ खुला विदोहन आसान हो गया है. नई संशोधित परिभाषा से 1.97 लाख वर्ग किलोमीटर में फैले जंगल की भूमि को वन की श्रेणी से पृथक करना बड़ा सरल हो गया है. 19 फरवरी 2024 को यदि यह रोक न लगती तो कुल वन क्षेत्र का लगभग 15 प्रतिशत वन निगम लकड़ी के कारोबार व खनन क्रिया हेतु हासिल कर लेता.
(Uphold Definition of Forests)
2023 में किये संशोधनों को अशोक कुमार शर्मा व भारतीय वन सेवा के सेवा निवृत अधिकारियों, वन शक्ति व गोवा फाउंडेशन जैसे गैर सरकारी संगठनों के समूह द्वारा चुनौती दी गई. दायर याचिका में संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) के असंतुष्ट सदस्यों की उन चिंताओं को भी ध्यान में रखा गया जिन्होंने संशोधनों की जाँच की थी. सबसे बड़ी आशंका तो एफ.सी अधिनियम के परिक्षेत्र से देश के 28 प्रतिशत जंगलों के बहिष्कार की थी जो रिकॉर्ड वन क्षेत्र से बाहर हैं. नए संशोधन में कहा गया कि वह इलाके जो सरकारी रिकॉर्ड के अनुसार 25 अक्टूबर 1980 के बाद जंगल घोषित किये गये उन्हें अधिनियम के दायरे से छूट दी जाएगी. ये सभी छूटें सुप्रीम कोर्ट के 1996 में दिए उस फैसले को अप्रभावी बनाती हैं जो सरकारी रिकॉर्ड में दर्ज हर प्रकार के जंगल के लिए कानूनी सुरक्षा सुनिश्चित करती थी. वन संरक्षण संशोधन विधेयक (एफसीए) 2023 में संसद में पारित कर दिया गया. तब यह विवाद हुआ था कि केंद्र स्थाई समिति की अवहेलना कर विधेयक को जेपीसी के पास भेज अपना उद्देश्य सरलता से पूरा कर रहा है.
19 फरवरी 2024 को सुप्रीम कोर्ट ने राज्य व केंद्र शासित प्रदेशों को निर्देश दिया कि जंगलात से सम्बंधित सभी क्रियाओं व गतिविधियों में अब वनों की 1996 में वर्णित परिभाषा के अनुसार ही कार्य हों जिसमें उनका निर्दिष्टीकरण और संरक्षण भी शामिल है. इस आदेश को पारित करते वन संशोधन एक्ट पर रोक लगी. माननीय मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़, जे बी परदीवाला एवम मनोज मिश्र ने आदेश दिया कि अब किसी भी जंगल में जो भी चिड़िया घर खुले या सफारी का प्रस्ताव हो तो उसकी पूर्व अनुमति ली जाय. बेंच ने आदेश दिया कि मार्च 2024 के अंत तक उस वन भूमि की रपट भी दें जो गोदावरमन केस के अधीन तय की गई थी. 1996 के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया था कि एक ‘डीम्ड’ वन शब्द कोष में वन की परिभाषा ही शामिल नहीं करता बल्कि उस इलाके को भी शामिल करता है जो सरकारी रिकॉर्ड में जंगल के रूप में पंजीकृत किया गया हो भले ही इसका स्वामित्व या मालिकाना हक किसी का भी हो.
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गोदावर्मन केस ने सभी राज्य सरकारों व केंद्र शासित प्रदेशों को राष्ट्रीय उद्यानों, अभयारण्यो व जंगलों को आरक्षित करने से रोकने जैसे पक्षोँ पर सुप्रीम कोर्ट की निरन्तर भागीदारी का सबल नेतृत्व किया. संरक्षण व संवर्धन के इस प्रयास से राज्य सरकारें अब केंद्र सरकार की पूर्व अनुमति के बिना गैर वन उद्देश्यों के लिए उपयोग की जाने वाले आरक्षित के रूप में नामित वनों की स्थिति को बदल नहीं सकती थीं.
मंत्रालय ने वन संरक्षण के किसी भी पक्ष को दुर्बल किये जाने पर असहमति जताई पर अक्टूबर 2021 के एक परामर्श पत्र में अधिनियम को सबल करने वाले प्रस्तावित संशोधन को उसने छोड़ दिया था जिसमें यह कहा गया था कि मंत्रालय समृद्ध पारस्थितिक मूल्यों को प्रदर्शित करने वाले कुछ प्राचीन वनों को एक विशिष्ट अवधि तक बनाए रखने के लिए एक सक्षम प्राविधान पर विचार कर रहा है. ऐसा इसलिए कि अधिनियम में कुछ क्षेत्रों के गैर वानिकी उपयोग को प्रतिबंधित करने के लिए कोई संकेत नहीं है जिन्हें उनकी विशिष्टता व उच्च परिदृश्य एकीकृत मूल्य के कारण उच्च स्तर की सुरक्षा की जरुरत होती है. यह संभावित ऐतिहासिक संरक्षण समर्थक उपाय वन संरक्षण संशोधन विधेयक 2023 का हिस्सा नहीं बना.
मंत्रालय ने जेपीसी को भरोसा दिलाया था कि संशोधित एफसीए उन सभी अवर्गीकृत वनों के साथ उन वनों पर भी लागू होगा जिन्हें अधिसूचित किया जाना प्रस्तावित है. यह स्थानीय निकायों द्वारा वन के रूप में दर्ज की गई जमीन और गठित विशेषज्ञ समितियों द्वारा चुने गये वन क्षेत्रों पर भी लागू होगा.1996 के सुप्रीम कोर्ट आदेश का अनुपालन करने की सहमति के साथ इसने वर्तमान मामले में इस रुख को दोहराया था.
याचिकाकर्ताओं का तर्क था कि वनों के संभावित रिकॉर्ड को अंतिम स्वरूप देने के लिए, जिसे 2023 के संशोधित नियमों के अनुरूप एक साल में पूरा किया जाना जरुरी है.ऐसा पूरा भूमि का पार्सल जिसे 1996 के निर्णय से वन माना जाता था अब बिना किसी जरुरत के गैर वन उद्देश्य के लिए उपयोग किया जा सकता है. इसे एफसीए के अंतर्गत मंजूरी है. इस पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वनों के समेकित रिकॉर्ड को अंतिम रूप दिए जाने तक 1996 की वन परिभाषा का पालन हो.
राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों को 1996 के निर्णय के अनुरूप गठित विशेषज्ञ समितियों द्वारा पहचान किये गये वन क्षेत्रों के विस्तृत रिकॉर्ड जमा करने के लिए 31 मार्च 2024 तक का समय दिया गया. मंत्रालय यह जानकारी व समंक 15 अप्रैल 2024 तक अपनी वेव साइड पर देगा. सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि 2023 में बनी विशेषज्ञ समितियों को पिछले विशेषज्ञ पैनल द्वारा सुझाई सम्मतियों की प्रगति को भी ध्यान में रखना होगा. वस्तुतः वन आवरण का विस्तार उस भूमि तक करने के लिए वह स्वतंत्र हैं जो सुरक्षा के लायक समझी जाएं . इन सभी प्रसंगों को ध्यान में रख मामले के अंतिम निबटारे के लिए अब जुलाई 2024 में सुनवाई होगी.
2023 में वन नीति के संशोधन की मंशा न्यायालय द्वारा वन संरक्षण अधिनियम (एफसीए) के प्रयोग के कथित विस्तार से उत्पन्न स्थितियों को ठीक-ठाक व दुरुस्त करने से लगाई गई. हालांकि एफसीए की धारा 2 के दूसरे, तीसरे व चौथे अनुच्छेद (वनों के आरक्षण पर प्रतिबंध या गैर वन उद्देश्य के लिए वन भूमि के उपयोग पर प्रतिबंध) के अंतर्गत कानून का दायरा केवल आरक्षित वन, किसी भी वन भूमि के अनाधिकृत गैर वन उपयोग पर रोक लगाने की बात करता था. अधिनियम में आरक्षित वन शब्द केवल आरक्षण के सीमित सन्दर्भ में किया गया. धारा 2 के पहले अनुच्छेद में कहा गया कि केंद्र की अनुमति के बिना कोई भी आरक्षित वन संरक्षित होना बंद नहीं होगा.इस विवेचना को जुलाई 2022 में नरेंदर सिंह व अन्य बनाम दिवेश भूटानी व अन्य में दोहराया गया था. स्पष्ट है कि धारा 2 का पहला अनुच्छेद विशेष रूप से एक आरक्षित वन को संदर्भित करता है व दूसरा, तीसरा व चौथा अनुच्छेद किसी भी अन्य वन पर लागू होते हैं. इसलिए जैसा कि इसके शब्दकोष अर्थ से समझा जाता है, जंगल धारा 2 के अंतर्गत आता है. तब इस अधिनियम पर न्यायमूर्ति माननीय सी टी रविकुमार, न्यायमूर्ति अभय एस ओका एवम न्यायमूर्ति एएम खान विलकर की तीन सदस्य पीठ ने फैसला सुनाया.
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फरवरी 2024 को सुप्रीम कोर्ट ने पिछले वर्ष अचानक ही सर्वसम्मति से पारित कर दिए वन संरक्षण अधिनियम एक्ट 2023 के विरोध में भारतीय वन सेवा के सेवानिवृत अधिकारियों व अन्य द्वारा दाखिल याचिका की सुनवाई की. वन सेवा के अपने लम्बे अनुभव के आधार पर उनका मत यह था कि जल्दबाजी में पारित इस एक्ट से वनों का काफी बड़ा भू भाग अब तक किये जा रहे संरक्षण व रखरखाव से वँचित हो जायेगा. साथ ही इससे गैर वानिकी गतिविधियां बढ़ने लगेंगी. निश्चित ही वनवासियों की दिनचर्या व कामकाज भी इससे प्रभावित होंगे. अतः सार्वजनिक हित को बनाए रखने के लिए यह याचिका दायर की गई जिससे इसके द्वारा सामाजिक रूप से वांछित समुदायों को उनका वाजिब हक व न्याय मिल सके. इस धारणा के साथ इसे अधिवक्ता कौशिक चौधरी के द्वारा दाखिल किया गया. उनका सीधा आरोप था कि सरकार 2023 में जो संशोधन अधिनियम एक्ट पारित करा गई है उससे वन कानूनों में जो बदलाव होगा उससे देश की दशकों पुरानी वन व्यवस्था कमजोर व शिथिल पड़ जाएगी. उन्होंने यह आरोप भी लगाया कि गैर वानिकी क्रियाओं की लम्बी सूची से चिड़ियाघर और सफारी को हटाने से अब वनों के भीतरी इलाकों में इनकी गतिविधियां अधिक गहन होंगी जिनका प्रभाव उस वन क्षेत्र की पारस्थितिकी की चिंताएं बढ़ा देगा. वहीं सॉलिसिटर जनरल ऐश्वर्या भाटी ने ऐसी शंकाओं का खंडन करते हुए कहा कि पीठ यह संशोधन अठाइस साल पहले शीर्ष अदालत द्वारा पारित आदेश को मजबूत करने व आगे बढ़ाने के लिए कर चुकी थी. अब सरकार रेकॉर्ड को डिजिटल बनाने के लिए बाध्य है. पीठ ने दोनों पक्षोँ को सुनने के बाद अंतरिम आदेश पारित किया.
राज्य व केंद्र शासित प्रदेश वर्ष 2023 में संशोधन की अधिसूचना से वन भूमि का रिकॉर्ड तैयार करेंगे, यह नियम 16 में वर्णित किया गया है. इसके अंतर्गत राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों के प्रशासन द्वारा किये जा रहे अभ्यास के पूरा होने तक टी एन गोदावरमन मामले में वर्णित सिद्धांतों का पालन जारी रखा जाना चाहिए. अर्थात जब तक सरकारी रिकॉर्ड में वन के रूप में दर्ज भूमि की प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती तब तक गोदावरमन निर्णय लागू रहेगा.
सुप्रीम कोर्ट ने 19 फरवरी 2004 के अंतरिम आदेश में स्पष्ट रूप से कहा कि राज्य व केंद्र शासित प्रदेशों को 1996 में टी एन गोदावर्मन थिरूमलपाद बनाम भारत संघ के ऐतिहासिक फैसले में निर्धारित “वन” की परिभाषानुसार कार्य करना चाहिए. वन की परिभाषा में ही वन संरक्षण की कई समस्याओं का निदान है यह तथ्य 1980 के वन संरक्षण अधिनियम (एफसीए) में भी स्पष्ट किया गया था. वन की परिभाषा का महत्त्व तब व्यापक रूप से उभरा जब 1995 में नीलगिरि की वन भूमि को गैर कानूनी लकड़ी के दोहन से बचाने के लिए गोदावरमन ने एक रिट याचिका दायर की. इसका महत्त्व समझते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इसे पर्यावरण बनाम विकास से उपजी दुश्चिंताओं के सन्दर्भ में राष्ट्रीय वन नीति के समग्र पक्षोँ पर विचार हेतु उपयुक्त पाया.
12 दिसम्बर 1996 को सुप्रीम कोर्ट ने वह अंतरिम आदेश दिया जिसमें एफसीए के कुछ पक्ष स्पष्ट किये गए थे व इनके क्रियान्वयन के विस्तृत स्वरूप की अहमियत समझाई गई थी. यहां फिर स्पष्ट किया गया था कि ‘वन’ को उसके शब्दकोष अर्थ के अनुरूप समझा जाना जरुरी है जो सरकारी रिकॉर्ड में ‘वन’ के रूप में दर्ज है.सीजेई के नेतृत्व वाली तीन न्यायाधीशों की पीठ ने सोमवार 19 फरवरी 2024 को इस सिद्धांत की पुष्टि करते हुए कहा कि 1980 में एफसीए को कानून बनाने के पीछे संसद की मंशा के अनुरूप ‘वन’ का शब्दकोष अर्थ अदालत द्वारा अपनाया गया.
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1996 का सुप्रीम कोर्ट का फैसला वन संरक्षण के लिए मिसाल बना. गैर वानिकी उद्देश्य के लिए 1951 से 1980 की अवधि में 4.3 मिलियन हेक्टेयर वन भूमि की क्षति की जा चुकी थी. इस फैसले से सारे देश में गैर वन गतिविधियां जिसमें खनन व आरा मिलें भी शामिल थीं, जैसी क्रियाओं पर रोक लगी. इससे वन भूमि दुरूपयोग का नुकसान 40,000 हेक्टयर वन भूमि तक सिमट गया. अब केंद्र के अनुमोदन के बिना जंगलों से पेड़ों का कटान तो निलंबित हुआ ही, पूर्व-उत्तर के राज्यों से काटे पेड़ों व लकड़ी के रेल-सड़क व जल मार्ग से होने वाले अनवरत ढुलान पर भी रोक लगा दी गई. रेलवे व रक्षा प्रतिष्ठानों को भी गैर काष्ट उत्पादों के विकल्प पर निर्भर रहने के आदेश हुए. 2023 में सरकार ने जब वन संरक्षण अधिनियम संशोधित किया तो इसने वन की परिभाषा के लिए कोर्ट के इस वरीयता मानदंड में बड़े फेरबदल कर दिए.
प्रश्न यह भी है कि टी एन गोदावरमन फैसले के बाद एफसीए क्या सरकार के कल्याण एजेंडे में अवरोध करने लगी थी. सरकार ने वनवासी जन जातियों के विकास जरूरतों को पूरा करने के साधन के रूप में 2023 के संशोधनों को उचित ठहराया था.वन मंत्री ने संसद में कहा था कि अब यह एफसीए आदिवासी बालिकाओं के लिए स्कूल में शौचालय बनाने में भी आड़े आता है. आदिवासी समूहों की बुनियादी जरूरतों को वन अधिकार अधिनियम, 2006 की धारा 3 में शामिल किया गया है जिनमें केंद्र को प्रतिबंधित कुछ सुविधाओं के लिए ‘एफसीए अधिनियम’ में कुछ भूमि को विवर्तित करने की जरुरत महसूस हुई. एफसीए में किया जाने वाला संशोधन केवल इन सुविधाओं के निर्माण के लिए जरुरी नहीं होगा जैसे कि स्कूल, स्वास्थ्य केंद्र, अस्पताल, आंगनबाड़ी, राशन की दुकान, बिजली, फोन, पानी के टैंक व पाइप लाइन, लघु सिंचाई नहरें, व्यवसायिक प्रशिक्षण केंद्र, सड़कें व समुदाय केंद्र इत्यादि.
फरवरी 2024 में सुप्रीम कोर्ट के सम्मुख याचिका कर्ताओं ने तर्क रखा कि गोदावर्मन फैसले में दी गई ‘वन’ की व्यापक परिभाषा को सरकार द्वारा किये संशोधन एक्ट में सम्मिलित धारा 1ए द्वारा दुर्बल और संकुचित कर दिया गया है. अब इसके हिसाब से एक भूमि को या तो वन के रूप में अधिसूचित किया जाना चाहिए या विशेष रूप से वन के रूप में दर्ज करना चाहिए ताकि सरकारी रिकॉर्ड में वह ‘वन’ के रूप में अहर्ता प्राप्त कर सके. यहां गोदावरर्मन फैसला यह स्पष्ट करता है कि वन को उसके शब्दकोष अर्थ के सन्दर्भ में समझा जाना चाहिए. इस प्रकार वन संशोधन अधिनियम 2023 मूल एफ सी ए के प्रविधानों को निष्प्रभावी कर देता है जो वन भूमि व उसके संसाधनों के संरक्षण के लिए विधायी सहायता प्रदान करता था. इससे पहले जो भूमि वन के रूप में अधिसूचित हो जाती थी वह अधिनियम के दायरे में आ जाती थी. ये भूमि आरक्षित या संरक्षित वन है.2023 के नए अधिनियम ने सक्रिय राजनीतिक उग्रवाद के क्षेत्रों में 10 हेक्टेयर भूमि को छूट दी. वन भूमि को सुरक्षा संबंधित बुनियादी ढांचे, रक्षा परियोजनाओं, अर्ध सैनिक शिविरों व सार्वजनिक उपयोगिता परियोजनाओं के निर्माण हेतु उपयोग की मंजूरी दी. नया संशोधन रेल ट्रैक या सड़क को 0.10 हेक्टेयर की छूट तो देता ही है कई स्थलों में अन्तर्राष्ट्रीय सीमा व नियंत्रण रेखा के साथ 100 किलोमीटर की वन भूमि को भी छूट देता है. इससे अंतरराष्ट्रीय सीमा से लगे पूर्व-उत्तर व हिमालय के राज्यों के वन वाले बड़े हिस्से प्रभावित हो सकते हैं.
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पर्यावरण की जमीनी समझ रखने वालों ने साफ कहा कि 2023 के वन संरक्षण अधिनियम ने 1980 की वन नीति के धरातल को ही कमजोर कर दिया है साथ ही 2006 के वन अधिकार अधिनियम के साथ भी यह टकराव करता है जिसका सम्बन्ध ग्राम सभा जैसी लघु इकाई के दायित्व से भी है.19 फ़रवरी 2024 के न्यायालय द्वारा सुनाए निर्णय से वनों के सुरक्षित रहने की आस फिर जगी जो गोदावर्मन फैसले में दी गई वन की परिभाषा की जरुरत को दोहराता था.
पर्यावरण के मामलों के साथ ही जलवायु परिवर्तन की समस्या हो या वन अग्नि व भू कटाव व भूमि के स्खलन जैसी खबरें बड़े सीमित दायरे में जगह पाने की ओर छिटका दी गईं हैं. यही हाल सोशल मीडिया का भी है जहाँ इन मुद्दों पर आम जन की अति सीमित प्रतिक्रिया सामने आती दिखती हैं. वास्तव में यह मुद्दा आम जन की सेहत के साथ जल जमीन और जंगल के उस सहज-सरल रिश्ते से जुडा है जिसकी समझ नई नौजवान पीढ़ी को सबसे ज्यादा होनी चाहिए. ऊपरी स्तर पर ये मुद्दे सुर्खियां बटोरते हैं. व्यापक नीतियों की सिफारिश की जाती है. 2017 में ही संयुक्त राष्ट्र महासभा ने वनों के लिए संयुक्त राष्ट्र रणनीतिक योजना 2030 का समर्थन किया था. जलवायु शिखर सम्मलेन में 2030 तक वनों की कटाई को रोक देने की भारत ने प्रतिज्ञा की. इस नीति के मूल में भी संरक्षण, पुर्नस्थापन, पुर्ननवीकरण व वनारोपण सहित स्थायी वन प्रबंधन के माध्यम से वन आवरण के नुकसान को उलटना था पर समायोजन की नीतियाँ इसके उलट प्रतीत हुईं. 2023 में पारित वन संरक्षण अधिनियम से उत्पन्न असमंजस व असमायोजन को अब सुप्रीम कोर्ट के आतंरिम आदेश से संवर्धन की आस जगी है. 2023 के जारी अधिनियम की संवेधानिक वैधता पर प्रश्न उठाने वाले इस प्रकरण की अंतिम सुनवाई 19 जुलाई 2024 तक स्थगित कर दी गई है.
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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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