ऊधम सिंह नगर, उत्तराखंड के तराई क्षेत्र में स्थित एक जिला है जो 1995 से पूर्व नैनीताल जिले का ही हिस्सा हुआ करता था. अक्टूबर 1995 में मायावती सरकार ने नैनीताल से तराई क्षेत्र को अलग कर एक नया ज़िला बनाया और उसे नाम दिया ‘ऊधम सिंह नगर’. आख़िर कौन थे ऊधम सिंह जिनके नाम पर इस जिले का नाम रखा गया?
ऊधम सिंह का जन्म 26 दिसम्बर 1899 को पंजाब के संगरूर जिले में हुआ था. उनका असली नाम शेर सिंह था. बचपन में ही उन्होंने अपने माता-पिता को खो दिया था. ऊधम सिंह बचपन से ही बहुत मेहनती थे. उन्होंने अमृतसर में रहकर ही 1919 में मैट्रिक की परीक्षा पास की. यह वही साल था जब रेजिनॉल्ड डायर के एक आदेश पर पंजाब के जलियाँवाला बाग़ में रॉलेट एक्ट के ख़िलाफ़ इकट्ठे हुई हज़ारों निहत्थे लोगों की भीड़ पर गोलियाँ चलवा दी गई. कहते हैं ऊधम सिंह उस शाम जलियाँवाला बाग़ में ही मौजूद थे. किसी तरह बच निकलने के बाद ऊधम सिंह ने जलियाँवाला बाग़ नरसंहार का बदला लेने की क़सम खाई. हालाँकि रेजिनॉल्ड डायर की मौत 1927 में ही हो गई. इसके बाद ऊधम सिंह का असल मक़सद माइकल ओड्वायर को मारना था. जिसने जनरल डायर के जलियाँवाला बाग़ हत्याकांड को जायज़ ठहराया था.
ऊधम सिंह, भगत सिंह और उनके क्रांतिकारी विचारों से बहुत प्रभावित थे. 1924 में ग़दर पार्टी में शामिल होने के बाद वो 2 साल के लिए विदेश चले गए और अंग्रेज़ी हुकूमत के ख़िलाफ़ लोगों को एकजुट करने लगे. 1927 में ऊधम सिंह को अवैध हथियारों व अंग्रेज़ों द्वारा बैन किये गये ग़दर पार्टी के क्रांतिकारी काग़ज़ों के दुरूपयोग के चलते 5 साल की सज़ा सुनाई गई. 1931 में जेल से निकलने के बाद ऊधम सिंह ने एक जाली पासपोर्ट बनाया. कहते हैं ऊधम सिंह भेष बदलने में बहुत माहिर थे. 1934 में वो लंदन पहुँच गए और नौकरी करने लगे.
आखिकार 21 साल के लंबे इंतज़ार के बाद 13 मार्च 1940 को वह दिन आ ही गया जब ऊधम सिंह को माइकल ओड्वायर को गोली मारने का मौक़ा मिला. लंदन का कैक्सटन हॉल उस दिन खचाखच भरा था. जहॉं पर ईस्ट इंडिया एसोसिएशन और सेंट्रल एशियन सोसाइटी की मीटिंग होनी थी. ऊधम सिंह ने अपनी जैकेट में 8 गोलियाँ व एक रिवाल्वर रखी और कैक्सटन हॉल पहुँच गए. ऊधम सिंह की तलाशी तो दूर किसी ने उनसे उस मीटिंग के टिकट के बारे में तक नहीं पूछा. ऊधम सिंह अंदर पहुँचे और कुछ ही देर में ओड्वायर के बिल्कुल क़रीब पहुँच गए. भाषण की समाप्ति के बाद जैसे ही लोग जाने के लिए उठने लगे ऊधम सिंह ने ओड्वायर पर एक के बाद एक दो गोलियाँ दाग दी और ओड्वायर हमेशा के लिए ज़मीन पर गिर पड़े.
ऊधम सिंह ने दो गोलियाँ सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट ऑफ़ इंडिया रहे लॉर्ड जेटलैंड पर भी चलाई जिससे वो ज़ख़्मी होकर गिर पड़े. इसके बाद ऊधम सिंह ने बंबई के पूर्व गवर्नर लॉर्ड लैमिंग्टन और पंजाब के पूर्व लेफ़्टिनेंट गवर्नर सुई डेन पर भी निशाना साधा. उस दिन ऊधम सिंह इन चारों को हमेशा के लिए दुनिया से मुक्ति दिला देना चाहते थे लेकिन ओड्वायर के अलावा बाक़ी सब बच गए. ऊधम सिंह की हॉल से भागने की चाल नाकामयाब रही और उन्हें पकड़ लिया गया और जेल भेज दिया गया.
ऊधम सिंह को जेल में बहुत यातनाएँ दी गई. कई बार वो भूख हड़ताल पर भी बैठे. आख़िरकार 31 जुलाई 1940 को ऊधम सिंह को फाँसी पर चढ़ा दिया गया और उनके शरीर को दफ़ना दिया गया. 1974 में उनके शरीर को कब्र से निकालकर भारत लाया गया जिसे पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्ञानी ज़ैल सिंह ने मुखाग्नि दी.
1995 में उत्तराखंड के एक जिले को ऊधम सिंह नगर नाम दिया गया और 2018 में जलियाँवाला बाग़ के बाहर ऊधम सिंह की एक मूर्ति बनायी गई. इस तरह मदन लाल ढींगरा के बाद ऊधम सिंह ऐसे दूसरे शहीद बने जिन्हें देश के बाहर फाँसी दी गई.
नानकमत्ता (ऊधम सिंह नगर) के रहने वाले कमलेश जोशी ने दिल्ली विश्वविद्यालय से राजनीति शास्त्र में स्नातक व भारतीय पर्यटन एवं यात्रा प्रबन्ध संस्थान (IITTM), ग्वालियर से MBA किया है. वर्तमान में हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय के पर्यटन विभाग में शोध छात्र हैं.
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…
उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…
(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…
पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…
आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…
“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…
View Comments
महान क्रान्तिकारी को शत् शत् नमन वंदन
कृपया जानकारी दुरुस्त करें. सरदार उधम सिंह ने स्वयं आत्मसमर्पण किया था. भागने की कोशिश नहीं की. ऐसा लिखने से एक आत्मबलिदानी की प्रतिष्ठा को ठेस पहुँचती है.
जिंदाबाद