हम नब्बे के दशक के लौंडो के लिए ट्वेंटी-ट्वेंटी शब्द युग्म एक सपने की तरह आया था. जितना हम उस दौर में अपने ख्वाब में ‘कभी लिंकिंग रोड कभी पैडल रोड’ पर रैन्देवू विथ रवीना टण्डन करते उससे ज़्यादा इस जुमले को. इसका रूप-गन्ध-स्वाद अलग-अलग स्वरूप में उपस्थित होता. विज़न ट्वेंटी-ट्वेंटी, मिशन ट्वेंटी-ट्वेंटी, अलाना ट्वेंटी-ट्वेंटी, फलाना ट्वेंटी-ट्वेंटी, ट्वेंटी-ट्वेंटी ट्वें-टूँ-टां-टां-टुस! यद्यपि मानव सभ्यता का इतिहास एक निश्चित समय पर पिछले पूरे समय के हासिल समुच्चय से बनता है लेकिन हमें ये लगने लगा था कि साल 2020 बीतते-बीतते हमारी जेब में कोई सौ-दो सौ करोड़ रुपए होंगे, हाथ किसी बानी या डानी (अम्ब या अड्ड उपसर्ग वाले) के कंधों पर दोस्ताना धौल दे रहा होगा और कोई ‘हुस्न परी कोई जाने जहान’ हमारे साथ न जाने किस उच्च वर्गीय सोसाइटी में टहल-कदमी कर रही होगी. यानी नौकरी-छोकरी के चुटकुलाना तुकबंदियों में कुछ तो सच्चाई पनपेगी.
(Twenty20 Amit Srivastava Column)
उस वक्त यानी इस भुस्कैटिया सदी की निहायत ही अकलात्मक इमारत के विस्टा प्रोजेक्ट को अपनी पीठ पर लादने वाले दशक में, ऐसे विज़न-मिशन का दबाव इतना ज्यादा था कि इसरो से लेकर पिसरो उर्फ़ ‘पप्पू इंस्टिट्यूट ऑफ कम्प्यूटर साइंस रिसर्च ऑर्गनाइजेशन’ तक के बीस सूत्री लक्ष्य उठाए-बनाए-दिखाए गए. नई सदी के शुरुआती सात-आठ सालों में तीन एक टारगेट हासिल भी किये पिसरो ने, जिसमें आठ बाई आठ का ईस्टमैन कलर साइन बोर्ड बनवाना सबसे प्रदर्श लक्ष्य हासिल हुआ. फिर अगले तीन चार साल योजनाओं को नीति बनाने में भुस्स हो जाने के बाद इंटिट्यूट अपने मौलिक स्वरूप उर्फ पप्पू आटा चक्की को प्राप्त हुआ. देश को क्या प्राप्त हुआ? देश किसको प्राप्त हुआ?
आर्थिक गुलाटियां खाए देश को तीन दशक पूरे होने को हैं और अभी भी पेट की मितली और सिर का चक्कर नहीं रुकता दिखता (मैं कहना चाहता हूँ कि पेट की मितली और सिर का चक्कर रुक के नहीं दे रहे लेकिन ऐसा कहना कतई दिल्लीयाना हो जाएगा. हर चीज़ को देखने कहने की निगाह दिल्ली दरबार से क्यों आए? मुल्क में कलकत्ता से लेकर नागपुर तक अनेक शहर हैं) जिस तरह से हिलोरें मार-मार के मजदूर उलटे हैं बड़े-बड़े नगरों ने, देश की अर्थव्यवस्था का सारा खाया-पिया बाहर आ गया. हालांकि ये तो बस इसी साल की बात हुई. इन महानगरों का पेट कई सालों से फूल रहा है. ये फूड प्वाईजनिंग का नहीं लीवर सिरोसिस का मामला है. छोटे शहर, कस्बे, गाँव धीरे-धीरे उलीचते रहे ये हाड़ मास के मानुस. उनमें न वो ताब रही जो उन्हें पक्के मेदा का बना सके, न तर्बियत जो पाक और पाचन के पुष्ट रिश्तों की बारीकी खोल सके, न ही ताकत कि वो उन्हें खुद पचा सकें. बिजली, पानी, सड़क और सड़क पर लम्बलेट पड़ी गाय अभी भी प्रमुख मुद्दे हैं इस अपची समाज के. अभी भी. जवानी की दहलीज़ पर कदम रखती इस नई सदी में भी. ट्वेंटी-ट्वेंटी में भी. विज़न में भी मिशन में भी. शिक्षा और स्वास्थ्य तनिक लग्ज़री वाला माल हैं आज भी. उसके ऊपर वाले मसले तो महज़ एक ख्वाब हैं. इस ख्वाब से तू प्यार न कर. भूल जा, तकदीर से तकरार न कर. तकदीर को दिल्लीयाना लहजे में ‘भगत’ कह सकते हैं क्या?
वैसे सपने देखना हर दौर के लड़के-लड़कियों का वाजिब हक़ है. मैं सोचता हूँ इतिहास की विस्मृति और करियाए कल की आशंका से लैस इस अहद में आज के लौंडे क्या देखते होंगे सपने में? दिव्या भारती भी सात समन्दर पार से पीछे-पीछे आने से रही इनके पास. फिर? रैन्देवू विथ माँ भारती? उनके भी असल स्वरूप से कहाँ मिल पाते होंगे. कौन से साल का मिशन सेट करते होंगे? किस विज़न के साथ? किस `आनी’ के कंधे पर हाथ रखने के? देखना पाते भी होंगे ख्वाब या नहीं? क्योंकि ख़्वाब देखने के लिए न्यूनतम मनुष्यता की दरकार भी तो होती है. अब जब जाति और धर्म पूछते-पूछते समय, आपकी नागरिकता पूछने लग जाए तो आगे कौन हवाल? इतिहास पलटी मार जाए तो यही होता है.
कुछ अरसे पहले तक औरत को ये साबित करना था कि वो भी हाड़-मास का पुतला है. उसके भी सांस-डकार आती है. मार खा कूबड़ निकला हुआ ही सही, उसका भी एक अदद अस्तिव है. इसी चुनौती `साबित करो कि तुम होमो सेपियंस में से से कुच्छ हो’ से पिछड़ी जातियों का भी साबका पड़ता रहा. पिछड़ी की चाहे जितनी परिभाषा आपको रटाई जाए आप यही मानना कि चार सौ मीटर रेस में बकिया सब तीन चक्कर लगा कर फिनिश पॉइंट के थोड़ा पहले पहुंच रहे हैं और तब इनके लिए भी स्टार्टिंग पिस्टल का धांय किया गया. अब पूछा गया कि जब हम पसीना बहा रहे थे तब तुम कहाँ थे? ये प्रश्न बिहारी से, दिहाड़ी से, उदारी से, समरसता-झारी से यानी हर उस व्यक्ति की ओर फेंका गया जो किसी न किसी लिहाज़ से कमज़ोर है, मनुष्यवत है, या कम से आँख में पानी तो रखता ही है. वैसे भी `तब तुम कहाँ थे’ को सदी का ब्रह्मवाक्य होने का गुरूर हासिल है. अब ये जुमला किंवा ब्रह्मवाक्य आपसे यानी प्रश्नकर्ता से भी दागा जा सकता है, अलग-अलग शब्दों के साथ. वो दिन दूर नहीं जब अपनी दोनों आंखों में उंगली ठूंस कर या जीभ लपलपा कर या गोया सिर घुटवा कर ठप्पा लगवा कर यह साबित करना पड़ जाए कि हम दोपाए ही हैं, यही इसी देस की सोना उगलती धरती के बाशिंदे हैं.
ऐसा नहीं है कि सोना उगलती धरती पर कीचड़ ही कीचड़ (वैसे सोना के बरक्स गोबर का रूपक ज्यादा मुफीद लगता है लेकिन मुझे अपने कन्धों पर सिर चाहिए अभी) खिलता रहा. पिछले तीन चार दशक ज्ञान-विज्ञान के लिहाज़ से सबसे समृद्ध माने जाएंगे. लेकिन पिछले तीन-चार दशक मानवीयता के लिहाज़ से सबसे चुक गए भी माने जाएंगे. जिन लोगों को ये लगता है कि हिरोशिमा-नागासाकी मानव के विभत्सतम पतन की निम्नतर स्तर हैं उन्हें इस मुए इंटरनेट च सोशल मीडिया वल्द कम्प्यूटर महाशय के कमाल का पता नहीं. जिन्हें लगता है युद्ध की विभीषिका सिर्फ युद्ध के मैदान में होती है उन्हें वर्चुअल डैमेज के आग की तपिश का रत्ती भर भी अहसास नहीं. पिछले दो दशकों में ही ये आपको सेल्फ कंट्रोल्ड ह्यूमन बीइंग से आर्टिफिशियली कंट्रोल्ड वर्चुअल बीइंग में तब्दील कर चुके हैं. रीड इट अगेन, करने वाले नहीं हैं, कर चुके हैं!
इसी विजनिया-मिशनिया वाले दौर में देस में परिवर्तन और विकास की बयार बही लेकिन उसमें मरे हुए इंसान की बास थी. जीपीएस, डिजिटल कैमरा, सीसीटीवी और ड्रोन से लैस इस काल में हमारी भौगोलिक उपस्थिति तो सेकेंड के आठ सौ बत्तीसवें हिस्से तक दर्ज की गई पर नागरिक अवस्थिति शून्य के आस-पास खोंस दी गई, सामाजिक अवस्थिति शून्य से तीन डिग्री नीचे चली गयी और मानवीय अवस्थिति के बारे में ब्रह्मवाक्यों का अनुनाद इड़ा-पिंगला से शुषुम्ना तक पहुंचा दिया गया. फोटोशॉप ने अंतर्जाल के साथ महीन रिश्ते बुने और इतिहास की कब्र खोदने में कोई कसर बाकी न रही. इस मन माफ़िक उत्खनन में निकले धुंवाधार कोयले से दरअसल जाने वाले कल के काला होने से ज़्यादा आने वाले कल के कलपने की कोशिशें रही हैं.
इसी अहद, इसी दौर में आदमी का प्रतिरूप बनाने को सक्षम हुआ आदमी, असल आदमी बनाने में असफल होता जा रहा है. एक तरफ सात समन्दर पार से कोई डॉक्टर यहाँ किसी इंसान के गुर्दे बदल दे रहा है तो यहीं कोई बेहद चिरकुट सी बीमारी चीकट से अस्पताली बेड से किसी इंसान को उठा ले जाती है. बीमारियाँ आदमी की औकात के हिसाब से नहीं आती हैं लेकिन दवाई, शिफ़ा या मौत आती है.
(Twenty20 Amit Srivastava Column)
वक्त के इसी निष्ठुर मोड़ पर जब तकनीक की लचक ने विज्ञान को धक्का देकर हाशिये पर धकेल दिया है, सूचना ने संवेदना को फुटनोट से भी बहरिया दिया है. जब पूरी तरह शिक्षा के लिए समर्पित एक टकाटक सैटेलाईट देवलोक में धरती के चक्कर लगाती हो, उसी समय में `सबको शिक्षा’ का नारा जाने किन मजबूरियों की वजह से `सबको डिग्री’ में तब्दील हो जाता है और ‘एंटायर भूलोक’ में ये डिग्री, न तो बहता हुआ पसीना पोछने के काम आती है न लहू. वैसे ज्ञान-विज्ञान के बारे में कहते हैं कि पिछले तीन हज़ार सालों में मनुष्य ने जितना बटोरा उसे महज़ तीन सौ सालों में दुगना कर लिया और फिर तीस सालों में उसका भी दुगना ज्ञान हासिल कर लिया. मनुष्यता, अन्योन्याश्रित, सहजीविता, भोलापन, सादगी, प्रेम और सहिष्णुता का ऐसा कोई पैमाना है आपके पास? मुझे लगता है इनके ह्रास पर लगभग यही गुणा-गणित लगता है. जो था, इसी गति से रीत गया.
अब देखिये न जब सारी ख़बरें ब्रेकिंग थीं, सारी रपटें एक्सक्लूसिव, सारे टॉपिक हॉट, मृत्यु अपने सरलतम अनुवाद में उपस्थित हुई. आपकी सहजीविता, स्वतन्त्रता और मानवीयता इतनी जटिल हो चुकी है कि आप इस सरलता में भी उलझ गए. अब इस मिशनिया-विजनिया समय का हासिल यही है कि आपको दावत में बुलाया गया है, दस्तरखान बिछा हुआ है, पकवान सज गए हैं और आप जीमने को दशकों से तैयार होने के बावजूद खाने को हाथ भी नहीं लगा पा रहे. हर विज़न से विलोपित हर मिशन से बहिष्कृत आप किसी बेसुरे भजन पर खंजड़ी बजाते इस भोजन को बस ताक रहे हैं. छक-छका कर सरकारें हाथ झाड़-पोछकर किनारे खड़ी होती जा रही हैं, (कुछ ने डोंगे-कलछुल सम्भाल लिए हैं परोसने के लिए) और दावत उड़ाने बड़े-बड़े दिग्गज आ विराजमान हैं. आप खुशबू भी ले नहीं पाएंगे इस महाभोज की. नहीं! कोरोना से आपकी घ्राण शक्ति नहीं गई है, दरअसल दस्तरखान पर अब आप का ही कीमा परोसा गया है.
(Twenty20 Amit Srivastava Column)
डिस्क्लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं.
–अमित श्रीवास्तव
उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं. 6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी तीन किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता) और पहला दखल (संस्मरण) और गहन है यह अन्धकारा (उपन्यास).
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