चराग़-ए-राह बुझा क्या कि रहनुमा भी गया
हवा के साथ मुसाफ़िर का नक़्श-ए-पा भी गया
– परवीन शाक़िर
-‘सर आई हैव स्टडीड ऑलमोस्ट एव्री एस्पेक्ट ऑफ वीमेन एम्पावरमेंट एंड आई फील कम्फर्टेबल…’
-‘ओके दैट्स ग्रेट हैव यू गोन थ्रो मित्रो मरजानी ऑफ कृष्ना सोबती’
-‘अ… नो’
-‘देन वी शुड नॉट वेस्ट टाइम एंड गो टू अनादर टॉपिक’
ये राष्ट्रीय स्तर की एक महत्वपूर्ण परीक्षा के साक्षात्कार के अंश हैं. किसी सीनियर ने लौटकर जब मुझे ये बताया था तब तक मैंने कृष्णा सोबती को नहीं पढ़ा था. प्रेमचंद की किस्सागोई से निकल कर ‘शेखर एक जीवनी’ की रूमानियत में उतर चुका था. इस इंटरव्यू की जानकारी के बाद कृष्णा सोबती से पहला साक्षात्कार ‘बादलों के घेरे’ कहानी से हुआ. मुझे घेर लिया गया.
कृष्णा सोबती (Krishna Sobti) का शुरुआती रचनाकाल वो समय था जब कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, मोहन राकेश जैसे समर्थ लेखकों का पूरे हिंदी लेखन संसार पर प्रभाव था. यही वो समय था जब स्वतंत्र भारत के सपनों की टूटन दिखने लगी थी, राजनीति का भ्रष्ट आचरण उभर रहा था, समाज के सभी नैतिक आडम्बर अपने ओछेपन के साथ एक्सपोज़ हो रहे थे. कृष्णा सोबती ने समय की इस सच्चाई को बहुत सूक्ष्मता से पकड़ा और निडर और बेबाक लहज़े में अभिव्यक्त किया.
साहित्य में ये छायावाद के सौंदर्य और प्रेमचंद के आदर्श से मुक्त हुआ काल था. इस मुक्ति का कोई निश्चित चेहरा नहीं था. स्त्री मुक्ति का तो विशेष तौर पर. स्त्री ‘डार से बिछड़ी’ तो दिखती थी लेकिन जाएगी कहां इसका बात का कोई ठिकाना नहीं था. ‘ए लड़की’, ‘मित्रो मरजानी’, ‘ज़िंदगीनामा’ या कृष्णा सोबती की बहुत सी अन्य कहानियां वर्तमान की उस स्त्री के वाजिब ठिकाने हैं.
अपने स्त्री चरित्रों की वजह से जानी जाएंगी कृष्णा सोबती. मुक्त, जीवट और जीवन में गहरे धंसी हुई. समाज की हर रूढ़ि को अंदर जाकर तोड़ने वाली, बेपरवाह, बिंदास और आदर्श के हर फ्रेम को तोड़ती हुई, औचित्य के हर प्रश्न से दो-दो हाथ करती हुई.
वर्जित प्रदेशों में निडर घुसपैठ की वजह से उनपर अश्लीलता और स्त्री की यौनिक कुंठा की अतिशय अभिव्यक्ति के आरोप लगे. कृष्णा देह की भाषा पहचानती थीं. अनुभूतियों के स्तर पर शायद बहुत से साहित्यकार ऐसा कर सकते हों लेकिन कृष्णा साहित्य की भाषा में इसे अभिव्यक्त करना जानती भी थीं और गलत समझे जाने का जोखिम भी उठाना जानती थीं. पाठकों का असीम प्यार इस जोखिम का प्रतिफल है.
अच्छा साहित्यकार जो कहना चाहता है वो अपनी कृति में कह देता है. जो नहीं कह पाता अक्सर उसका जीवन बोल देता है. उसके व्यक्तित्व और रचना में वैचारिक मतभेद साहित्य को संदिग्ध बना देता है. लेखक अपने लिखे से अलग हो सकता है अगेंस्ट नहीं. कृष्णा प्रतिबद्ध कथाकार हैं. वर्तमान समय और समाज की हलचल को न केवल कलम से पकड़ा है बल्कि साहित्येतर अभिव्यक्तियों में भी पीछे नहीं रही हैं. ख़राब स्वास्थ्य और बढ़ती उम्र भी उन्हें प्रतिबद्ध मंचों से अलग नहीं कर सकी.
सच यही है कि कृष्णा अपने समय का वास्तविक चेहरा हैं. उनके अंदर दिल्ली की ठंडी ठोस ज़िंदगी और हिलोरें लेता हुआ लाहौर दोनों मौजूद है. बंटवारे और साम्प्रदायिकता का दौर उन्होंने देखा, महसूस किया था इसलिए आज की साम्प्रदायिक प्रास्थिति पर उनकी चिंता अक्सर बहुत स्पष्ट तरीके से व्यक्त होते देखा गया. ‘गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान’ उनका आत्म कथात्मक उपन्यास ही नहीं विभाजन की त्रासदी को समेटे एक हासिल दस्तावेज भी है.
चौथाई सदी से ज़्यादा के उनके रचनात्मक कार्य में पांच उपन्यास- सूरजमुखी अँधेरे के (1972 ), ज़िन्दगी़नामा (1979), दिलोदानिश (1993), समय सरगम (2000), गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान -2017 (निजी जीवन की औपन्यासिक रचना).
बहुत से कहानी संग्रह जैसे डार से बिछुड़ी, मित्रो मरजानी, यारों के यार, तीन पहाड़, ऐ लड़की, जैनी मेहरबान सिंह और अन्य संस्मरण, आख्यान एवं यात्रा वृतांत हैं. नब्बे वर्ष से अधिक वय में भी उनकी मौजूदगी समय और समाज के सापेक्ष साहित्य की ज़िम्मेवार मौजूदगी थी. उनका जाना हिंदी के समकालीन परिदृश्य से एक बहुत ख़ुद्दार, स्वयं प्रकाशित और चमकीले प्रकाश बिंदु का चले जाना है.
मेरी और काफलट्री परिवार की तरफ से उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि.
पप्पन और सस्सू के न्यू ईयर रिज़ोल्यूशन
अमित श्रीवास्तव
उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं. 6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी दो किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता).
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