रोज़ यदि हम एक ही जगह पर जाते भी हैं तो कई नये सुराख गुप्त रास्तों के रूप में मिल जाते हैं हमें उसी पुरानी जगह तक पहुंचने के लिए. मुक़ाम ज़रूरी है किसी भी सफ़र के लिए और यदि दरख़्त, नदी, आकाश, बादल, बर्फ़, मैदान, बुग्याल, कोहरा, वनस्पति कुछ भी पड़ाव हों सफ़र का तो हमारी चेतना की उर्वरकता की अभिवृद्धि हेतु कुछ ना कुछ आधार मिल ही जाता है. (Travelogue by Sunita Bhatt)
पिछली रात आकाश में बादलों ने आंदोलन किया सुबह ज़ोरों की बारिश हुई और एक भीगी हुई सुबह पर कल सूरज ने अपनी गुलाबी धूप बिखेरी. हम सभी का मन भी गुलाबी-गुलाबी हुआ और हमारा मुक़ाम मालदेवता हो गया.
मालदेवता में दो पुल हैं एक पुल से होकर “द्वारा” गांव की ओर जाते हैं दूसरे पुल से होकर कद्दूखाल वाली सड़क से होकर “सुरकंडा मंदिर” मसूरी की ओर पहुंचा जा सकता है.
तीन बजे हम घर से निकले हैं.इस बार हम “द्वारा” गांव नहीं दूसरे पुल से होकर कदूदूखाल वाली सड़क पर ड्राइव पर चलते जा रहे हैं. रास्ता बहुत ख़ूबसूरत, मनोहारी है. गीली-गीली सड़क और चेहरे पर प्रहार करती ठंडी चुभती हुई हवा. तीव्र मोड़ों को पार करते हुए सड़क के किनारे चीड़ के जंगलों का कारवां उन पर अठखेलियां करते सफ़ेद बादलों का बसेरा मानो जंगल में स्वर्ग की निस्सीम सत्ता.
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हम चलते जा रहे हैं पड़ाव निश्चित नहीं है. रास्ते और उनका मौन आचार-व्यवहार हमारे मन को भाता जा रहा है और हम ऊपर चढ़ाई की ओर बढ़ते ही जा रहे हैं, किसी तलाश में नहीं बल्कि तलाश को मन की तहों में दबाकर एक निरपेक्ष आनंद को जीते हुए आगे बढ़ते जा रहे हैं.
शाम बूढ़ी होने को है. रास्ते में बहुत से गांव जैसे धौलागिरी, खेंतु, दौंक, सतेंगर, कोकियाल, कुमाल्डा आदि से होकर हम गुजर रहे हैं. रास्ते में एक पेरु रिसार्ट भी मिला है. सभी गांवों की बसावट चीड़ के सघन जंगलों के बीच घुप्प कोहरे में नज़र आ रही है. उधर गांव के चूल्हों से उठता धुंआ शाम के घने कोहरे में समाहित होकर सांझ को और धुंधला कर रहा है इधर गांव के नौजवान इसी शाम में सड़कों पर दौड़कर फौज में जाने का सपना अपनी आंखों में संजोये सड़कों को उज्जवल कर रहे हैं.
अंधेरा घिर रहा है रास्ते में बुरांस के फूलों से लदे पेड़ मिल रहे हैं किंतु रात में ये सुर्ख़ रक्ताभ फूल मानो काले शाल पर लाल रेशमी फूलों की कशीदाकारी.
हम सभी को आज मोमोज खाने का बहुत मन है. रास्ते में इक्का-दुक्का चाय की टपरियां मिल रही हैं.चाय के अलावा मैगी तो सभी जगह उपलब्ध है लेकिन मोमोज़ कहीं नहीं मिल रहे हैं.
वैसे देहरादून की पहाड़ी जगहों पर चाय नहीं पी या मैगी नहीं खाई तो घूमने का मज़ा अधूरा है. कभी खाकर देखियेगा. हाड़-कंपाती ठंड में चटपटी मैगी नहीं खायी तो कुछ भी नहीं खाया
उसी तरह देहरादून के प्रसिद्ध स्ट्रीट फूड में मोमोज़ नहीं खाये तो समझिए आपने खाने का संपूर्ण आनंद ही नहीं लिया.
हम चाय घर से ही बनाकर लाये हैं मोमोज़ की तलाश जारी है. रास्ते भर पूछते हुए जा रहे हैं लेकिन मोमोज कहीं किसी दुकान में नहीं मिल रहे हैं. खेंतु गांव पहुंचकर कोई दुकान के बाहर बैठकर आग सेक रहा है उससे पूछा, उसने कहा थोड़ा आगे चलकर दौंक में मिलेंगे. सारे रास्ते में दो-तीन दुकानों का बाजार सजा हुआ है उन्हीं के ये नाम रखे गये हैं. हर दुकान पर लोगों का मजमा और बोरसी जलाकर सभी आग को घेरकर चारों ओर बैठे हुए हैं.
दौंक पहुंचने पर सभी ने मोमोज़ की उपलब्धता के लिए मना कर दिया है और हमने भी बिना मोमोज़ खाये वापस लौटने का मन बना लिया है तभी किसी ने अचानक से कहा कि “बस थोड़ी ही दूर एक-दो किलोमीटर की दूरी पर “आनंद चौक” है वहां पर एक बूढ़ा आदमी मोमोज़ बनाता है निश्चित ही वहां जाकर आपकी साध पूरी होगी मोमोज़ खाने के लिए हमने आगे जाकर भी कोशिश करने का निश्चय किया है.
मोमोज़ की तलाश में हम दो-तीन किलोमीटर और आगे आनंद चौक आ गये हैं.आनंद चौक देहरादून से लगभग 40 किमी दूर है लेकिन है बहुत ख़ूबसूरत जगह. एक ऊंची समतल व चौड़ी सड़क के दोनों ओर बसा हुआ चार-पांच दुकानों का शहर ना गांव ना शहर बस दोनों का घालमेल मानो विकास इधर डरते-डरते आकर किरिच-किरिच में अटक गया और देहरादून के मालदेवता में अपना नाम दर्शा गया.
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आनंद चौक में शाम को कोहरे से आच्छादित श्रृंगों की अद्भुत दृश्यावली है. मोमोज खाते हुए और घर से बनाकर लायी हुई चाय पीते हुए हमें यहां की चिलचिलाती हुई ठंड कतई परेशान नहीं कर रही है.
हम टिमटिमाती बिजली में आनंद चौक में इधर-उधर घूमकर तस्वीरें खिंचवाने का आनंद ले रहे हैं. इसी उपक्रम में हम वापसी की ओर हैं.
इधर पहाड़ों के तीव्र मोड़ पर गाड़ी में गाना चल रहा है “रात के हम सफ़र” उधर नीचे घाटी में रोशनी में नहाया हुआ देहरादून शहर किसी सजे हुए दूल्हे से कम नहीं दिखाई दे रहा है.
हम नौ बजे मालदेवता के बाज़ार में पहुंच गये हैं इस आश्वस्ति के साथ कि अब घर नज़दीक ही है. (Travelogue by Sunita Bhatt)
देहरादून की रहने वाली सुनीता भट्ट पैन्यूली रचनाकार हैं. उनकी कविताएं, कहानियाँ और यात्रा वृत्तान्त विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं.
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