मुझे और मेरे सहपाठी रतन सिंह को जिस दिन चकराता से त्यूनी जाना था उसके एक रात पहले चकराता और आस पास के पहाडी क्षेत्रों में ज़बरदस्त बर्फ़बारी हो गयी थी और जिसकी वजह से लोखण्डी से त्यूनी जाने वाला रास्ता बन्द हो गया था. यह बात सन् 1992 के मार्च महीने की 26 तारीख़ की है. हमे अगले रोज किसी भी हालत में त्यूनी पहुँचना था क्योकि इसी महीने की 28 तारीख से हमारी बोर्ड की परीक्षाएँ शुरू होनी थी. हमारे पास मात्र दो अतिरिक्त दिन का समय था. अब गाडी से त्यूनी जाने का जो एक मात्र रास्ता रह गया था उसके लिए हमे पहले विकास नगर जाना पडता और फिर वहाँ से वाया नौगाँव पुरोला होते हुए त्यूनी. लेकिन जब हमने अपनी जेबों का जायज़ा लिया तो इस रास्ते से सफर का ख्याल दूर की कौड़ीहो गया.
क्योंकि सुबह तक मौसम भी साफ हो चुका था इसलिए अब तय यह हुआ कि हमारे पास दो दिन का समय है, लिहाज़ा पैदल ही वाया लोखण्डी होते हुए त्यूनी के लिए कूच किया जाय. इस सफर की भावी रणनीति के तहत पहले दिन कोटी, जो कि रतन का गाँव था, तक पहुँचना तय हुआ और अगले दिन सुबह-सुबह वहाँ से मेरे गाँव हटाल. उस जमाने मे भी आज की तरह ही हटाल से त्यूनी के लिए रोज़ाना सुबह और शाम के वक्त हिमाचल परिवहन की बसों की भरोसेमन्द सेवाएँ उपलब्ध रहती थी. इसी उधेड़ बुन के चलते तकरीबन १२ बजे के आस पास हम चकराता से पैदल-पैदल सड़कों सडक लोखण्डी की ओर चल दिए.
चकराता से लोखण्डी तक के रास्ते हमे कच्ची बर्फ़ मिली. उस पर चलना ज्यादा मुश्किल नही था लेकिन लोखण्डी से कोटी तक बर्फ़ का समन्दर मौजूद था. एक तो पुरानी बर्फ़ और उस पर गिरी ताज़ा बर्फ़. लोखण्डी से कोटी तक के पैदल सफर के दौरान हमारे जान के लाले पड गये. बर्फीले रास्ते में चलने के कारण हमारे घिसे हुए जूते टूट गये. पैर सूज गये और पैरों की उगलियों के पोर से खून निकलने लगा. लेकिन यह हमारी हिम्मत ही थी कि हम जैसे तैसे देर शाम तक कोटी गाँव में रतन के घर पहुच गये. हमारी हालत खराब थी. रतन और उसके घर, गाँव वाले सर्दी दर सर्दी इस तरह की परेशानियों से दो चार होते रहते थे. सो तुरत फुरत तसलों में गर्म पानी लाया गया. हमारे पैर, जो लगभग सुन्न हो चुके थे, उन भाप उगलते तसलों में डाले गये. लगभग घंटे भर में लकड़ी के मकानों के भीतर बाँज के कोयलों से सुलगती अँगीठी और गर्म पानी की सिकाई से हमारी शारीरिक और मानसिक स्थिति सामान्य हो गयी थी. रात के खाने में हमारे लिए सूखा गोश्त पकाया गया जिसने उस सर्द मौसम के चलते हमारी ख़स्ता हालत में दवा का काम किया.
अगले दिन अल सुबह उठकर हम लोग कोटी से हटाल के पारम्परिक पैदल रास्ते पर निकल पडे. दिन का दिन का खाना हटाल में खाने के बाद उसी दिन हमने शाम के वक्त त्यूनी के लिए बस पकड़ी और त्यूनी पहुँच गये.
इसे इत्तेफाक ही कहा जाना चाहिए कि जौनसार बावर के लोगो से जन संवाद में शरीक होने हेतु चौबीस बरस के अंतराल के बाद मार्च महीने की ठीक उसी 26 तारीख को एक बार फिर से चकराता से लोखण्डी होते हुए कोटी की ओर उसी रास्ते से गुजरना हुआ. लेकिन इस बार का सफर गाड़ी से तय हो रहा था क्योकि अब यहाँ इतनी बर्फ़ ही नही गिरती कि रास्ते बन्द हो जाए. लोखण्डी से कोटी तक जहाँ चौबीस बरस पहले बर्फ़ ही बर्फ़ होती थी, इस दफे वहाँ धूल उड़ रही थी.
क्योंकि कुछ हम ख्याल दोस्त इस बात से इत्तेफाक रखते थे कि जौनसार बावर के ग्राम गणों की बात दूर शहरों में बैठकर नही बल्कि उनके बीच जाकर होनी चाहिए, समस्याओं का अन्दाज़न आकलन स्थानीय समाज और उनके राजनीतिक अगुवाओं के साथ नाइंसाफ़ी मानी जाएगी. इसलिए इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए हम लोगों ने जौनसार बावर के चार छोरों, लखवाड, क्वानू, लाखामण्डल और हनोल से चकराता तक के रास्ते में पडने वाले गाँवो से गुजरते हुए जन संवाद की योजना बनायी. मुझे हनोल से चकराता के बीच पडने वाले गाँवो के लोगों से संवाद का ज़िम्मा सौंपा गया.
रात कोटी कनासर में गुज़ारने के बाद अगले रोज सवेरे-सवेरे हनोल का रूख किया गया. इस क्षेत्र में जन संवाद का आग़ाज़ यहीं से होना था. हम लोगों ने सोशल मीडिया के माध्यम से पहाड को लेकर चिंता जताने वाले बुद्दिजीवियों का आह्वान किया था. हमे उम्मीद थी कि पहाडो की समस्याओं को लेकर जन क्रान्ति की बात कहने और करने वाले बहुत से लोग इस यात्रा के हम सफर बनेंगे और अपने अनुभवों से ग्राम गणों को लाभान्वित करेगे. कुछ उनकी सुनेंगे, कुछ अपनी बताएँगे. लेकिन अफ़सोस! कोई नही आया. खैर, किसी के साथ ज़बरदस्ती नही की जा सकती थी. वैसे भी यहाँ न तो कोई मीडिया अटेंशन थी, ना राजनैतिक लाभ और न ही कोई बडा मंच. अगर यहाँ कुछ था तो वो थे पहाड और उसके वो बाशिन्दें जो सरकारो के लिए उनके मूल भूत अधिकारों समेत हाशिए पर है.
27 मार्च, 2016 को लगभग 11 बजे के आस पास हम लोग हनोल पहुँच गये थे. सर्वप्रथम एक आदिम समुदाय की जन भावनाओं के आराध्य महासू के मन्दिर में हाजिरी बजाई गयी. हमने मन्दिर प्राँगण में मन्दिर समिति के प्रतिनिधियों और श्रद्द्वालुओं के सामने अपने इरादों को पेश किया गया. वहाँ उपस्थित लोगों से अपनी बात कहने का आह्वान किया गया. हनोल के मौजीज शख़्स पूरण नाथ को हनोल की वास्तविक स्थिति जानने के लिए टटोला गया तो मालूम पडा कि तीर्थ स्थल होने के कारण हनोल कि समस्याएं जौनसार के बाकी गाँव कस्बों से बिलकुल भिन्न है. पूरण नाथ चाहते हैं कि हनोल को एक धार्मिक पर्यटन स्थल की तरह विकसित किया जाय. पूरण नाथ कहते हैं कि यहाँ चैत बैसाख़ और भादों में श्रद्धालुओं की बहुतायत के चलते अफ़रा तफ़री का महौल रहता है. ठहरने की उचित व्यवस्था न होने के चलते श्रद्धालु ख़ुले में रात गुजारने को मजबूर होते हैं. गर्म घाटी होने के चलते यहाँ साँप बिच्छूओं का डर अमूमन बना रहता है. अभी पिछले ही साल दो लोगों को साँप ने डंस लिया था. दूसरे यहाँ रात बिताने वाले श्रद्धालुओं में महिलाएं भी होती है उनके लिए रात बिरात शौच हेतु नजदीक में फ़िलहाल कोई सुविधा नहीं है. सार्वजनिक शौचालय बनाए गये हैं लेकिन वह मन्दिर परिसर से बहुत दूर है. जिसके रात के समय दिशा शौच के लिए जाने वाली महिलाओं के साथ होने वाली अभद्र घटनाएं होने का भय हमेशा बना रहता है. हम लोग चाहते थे कि शौचालय मन्दिर परिसर के नजदीक बनाया जाता लेकिन पुरातत्व विभाग के सख़्त आदेश है कि परिसर के 300 मीटर के दायरे में कोई भी नव निर्माण नहीं होना चाहिए. पूरण नाथ आगे कहते हैं कि आर्थिक उदारवाद ने लोगों की क्रय शक्ति बढा दी है. श्रद्धालुओं का एक बड़ा तबका सुविधाओं की अच्छी ख़ासी कीमत चुका सकता है. ऐसे में यहाँ पर साफ़ सुथरे होटलों, रेस्टोरेंटों, फ़ल एवं पेय स्टालों की सख्त दरकार है. यात्रा के दौरान परंपरागत श्रद्धालुओं को मन्दिर की ओर से उनके भोजन हेतु राशन दिया जाता है यदि उसमें सरकारी या गैर सरकारी इमदादों को शामिल कर एक अहर्निश भंडारे का रुप दिया जाय दूर-दूर से आने वाले गरीब श्रद्धालुओं के लिए यह किसी वरदान से कम नहीं होगा. इसके लिए मन्दिर समिति और स्थानीय प्रशासन की मजबूत ईच्छा शक्ति की जरुरत है जो कि फ़िलहाल कहीं भी नजर नहीं आती. सरकारी मदद अथाह रुप से आ रही है लेकिन जब आप धरातल पर नजर दौड़ाएंगे तो मालूम हो जाएगा कि स्थानीय प्रशासन के उदासीन रवैये, अर्द्ध शिक्षित चकड़ैतों और अपढ ठेकेदारों की कारगुजारियों के चलते सब कुछ अव्यवस्थित सा है. जातिवाद के सवाल पर पूरण नाथ चेहरे पर उभर आए दर्द को दबाते हुए कहने लगे, -पंडित जी, यह सब तो पूर्व जन्मों के कर्मों का प्रताप है. आप के कर्म ज्यादा अच्छे रहे होंगे इसलिए आपने ब्राह्मणके घर जन्म लिया और मैंने शायद अपने पूर्व जन्म के पापों के प्रायश्चित हेतु जोगी के घर जन्म लिया है.
पूरण नाथ ने पूर्वाग्रहों से ग्रसित तर्कों के साथ अपनी बात को समाप्त किया. मेरे पास पूरण नाथ की बात का जवाब था लेकिन मैं जानता था कि वो इससे संतुष्ट नही हो पाएगा, उल्टा मुझे वहाँ विराजमान पंड़ितों और वजीरों के कोप का भाजन बनना पड़ेगा. पूरण नाथ से विदा लेने के बाद अगले पड़ाव की ओर कूच किया गया.
हनोल से आगे के सफ़र के दौरान अब मैं अकेला था. लोगों से बात करनी थी, उनकी बात सुननी थी. ऐसे समय में, जब आप जन संवाद के लिए जा रहे हो, अकेले होना बहुत ख़लता है. क्योंकि सवाल जवाब के दौरान आप पहाड़ के गाँवों की समस्याओं के परिपेक्ष्य में कुछ कहने सुनने का दायरा बहुत सीमित हो जाता है. एक अकेला आदमी सब कुछ नहीं कह सुन सकता, ऐसे में स्थानीय मुद्दों और वहाँ की मुख़्य समस्याओं के नजरअंदाज होने का डर बराबर बना रहता है.
हनोल से अगले गाँव नीनूस का रुख किया गया. बागवानी एवं कृषि के लिए समृद्ध घाटी दारमी-गाड़ का एक गाँव. त्यूनी कथियान मोटर मार्ग से उत्तर की ओर निकली जंगलात महकमे की चार नंबर सड़क से हाल के दिनों में संपर्क मार्ग के रुप में बनी उबड़ ख़ाबड़ सड़क आपको नीनूस गाँव तक ले जाती है. रास्ते में पड़ने वाली क्यारी गाड़ से आपको ठेकेदार जन प्रतिनिधियों के द्वारा बनाई गयी, हर ओर को निकलती सूख़ी नहरे बहुतायत में मिल जाएगी. इन नहरों में शायद ही कभी पानी गया हो. आपको इस किस्म के कई निर्माण कार्य इस श्रेत्र में देखने को मिल जाएगें. यह इस क्षेत्र की भ्रष्ट व्यवस्था के जीते जागते स्मारक है. आप चाहें तो इसे नेताओं, सरकारी विभागों और ठेकेदारों की घालमेल का जीवंत इतिहास भी कह सकते है. साथ के साथ आप उन टूटे फ़ूटे प्लास्टिक के काले पाइपों से भी रुबरु हो सकते हैं जो स्थानीय मेहनतकश किसानों के व्यक्तिगत प्रयासों के चलते क्यारीगाड़ से उनके ख़ेतों तक पानी पहुँचा रहे है.
नीनूस पहुँचने पर मुझे बहुत से ऐसे पढे लिख़े युवा मिले जो कृषि क्षेत्र में उत्तराख़ण्ड सरकार की उदासीनता के बावजूद भी बागवानी और ख़ेती बाड़ी में ख़ुद को बेहतर साबित करना चाहते है. इस गाँव में ही मुझे प्रह्लाद जोशी नाम का एक युवक मिला जिसने लंबी बीमारी के बाद फ़िर से पढाई लिखाई शुरु कर दी है. यहाँ के ख़ेतों में हर ओर सेब के नवजात, युवा और प्रौढ पेड़ नजर आते हैं. नगदी फ़सलों की सिंचाई के चलते पानी की समस्या मार्च महीने में ही शुरु हो गयी है. जबकि पूरा ग़्रीष्म अभी सामने पडा हुआ है. समाधानों के आस पास होने के बावजूद भी समस्याओं के अंबार लगे हुए हैं. व्यवहारिक शिक्षा की बहुत जरुरत है. दुर्भाग्य इस बात का भी है कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली जिसे भी शिक्षित करती है वह पलायन कर शहर का हो जाता है और गाँव में बचा रहता है ख़ेत जंगलों से उलझता अपढ किसान जो सरकार सम्मत समस्याओं को अपनी परिणति मान लेता है.
नीनूस के बाद अगला पड़ाव पुरटाड़ गाँव था. जंगलात की उसी चार नंबर की सड़क से एक जीप कद रास्ता पुरटाड़ गाँव के लिए जाता है. यह सड़क ख़ुद में एक कहानी है. सरकार से सड़क की मनुहार लगाने वाले पुरटाड़ वासियों की राह में जंगलात रोड़ा बन कर आ रहा था. चार नंबर की वही सड़क जिसे एक जमाने में जगंलात महकमें ने जंगलों के दोहन हेतु बनवाया था, से पुरटाड़ गाँव तक संपर्क मार्ग पहुँचाने हेतु लगभग 100 मीटर जंगलात की भूमि रुकावट बन रही थी. जब बहुत कोशिशों के बाद बात नहीं बनी तो थक हार कर गाँव वालों ने मिलकर श्रमदान से सड़क बनाने की ठान ली. होली के दिन एक सामुहिक भोज का आयोजन कर सारा गाँव सड़क बनाने में जुट गया और गाँव वालों के गुजारे लायक सड़क बना डाली. जंगलात महकमे ने बाद में बहुत हाथ पैर पटके, जुर्मी काटने की धमकी दी लेकिन गाँव वाले भी अड़ गये और सड़क बन गयी. मुझे लगता है कि राज्य के एक कोने में स्थित अकेले गाँव के ग्राम वासियों के स्व प्रयासों से वजूद में आयी शायद यह उत्तराख़ण्ड़ की इकलौती सड़क होगी. सड़क बहुत ही उबड़ ख़ाबड़ है लेकिन सड़क तो है जो यह निश्चित करती है कि गाँव वालों को राशन अब पीठ पर ढो कर नहीं लाना पड़ेगा, जो यह निश्चित करती है कि अब हारी बीमारी के समय किसी मरीज को नजदीकी अस्पताल तक त्वरित और बिना शारीरिक श्रम के पहुँचाया जा सकता है. मैं जब पुरटाड़ पहुँचा तो अधिकतर लोग रोजमर्रा के कामों में व्यस्त थे. कुछ लोग मिले भी. यहाँ भी समस्याओं और समाधान के बीच छत्तीस का आँकड़ा था. ठेकेदारों को फ़ायदा पहुँचाने के लिए बनाई गई बिना पानी की नहरे यहाँ भी बहुतायत में देखने को मिल रही थी. गाँव के ठीक सामने जंगल में लगी आग, जो चीड़ के हरे दरख़्तों के बीच से सफ़ैद धुँआ उगल रही थी, को नजर भर देख़ कर वापिस उस सड़क पर लौट आया जिस पर चल कर मुझे अपनी यात्रा के अगले पड़ाव की ओर जाना था.
शाम होने को थी. मुझे अब अगले गाँव बागी जाना था. कथियान मोटर मार्ग पर पड़ने वाला यह पहला गाँव था. जौनसार बावर के गाँवो के बरअक्स यह अपर हिमाचल के गाँवो की तरह दूर-दूर बिखरे मकानों का गाँव है. बाग बगीचे, ख़ेती बाड़ी और सरकारी नौकरियों के चलते यहाँ के बाशिन्दे समृद्ध है. इस बात का सहज अन्दाजा इस गाँव के आलिशान मकानों को देख़कर लगाया जा सकता है. लेकिन ऐसा नहीं है कि यह गाँव भी रोजमर्रा की समस्याओं से अछूता हो. बातचीत के दौरान गाँव के निवासी सूरत राम डोभाल कहते हैं कि यहाँ भी पानी की समस्या मार्च महीने में ही शुरु हो गयी है और गर्मी के तीन महीने अभी आने बाकी है.
अन्धेरा होते-होते मैं अगले गाँव कूणा पहुंच गया था. सड़क के साथ ही लगती एक परचून की दुकान के मालिक से दुआ सलाम हुई तो पता चला की बन्दे को अरविन्द पँवार कहते हैं. थोड़ी देर में कुछ और लोग भी वहाँ आ जुटे. बाचचीत का दौर शुरु हुआ तो मालूम पड़ा कि अरविन्द सन् 2002 से बागवानी के काम में जुटे हुए हैं. उन्होने बागवानी से संबधित कोई उचित प्रशिक्षण नही लिया है लेकिन उनकी रुचि ने उन्हे समय के साथ-साथ बागवानी का अच्छा ख़ासा जानकार बना दिया. यदि फ़सल अच्छी रहे तो अरविन्द के बागीचे से लगभग 8 से 10 लाख़ रुपये का निकल आता हैं और परचून की दूकान सो अलग. बाकी के लोग भी कृषि और बागवानी की तरफ़ आकृषित तो है लेकिन जानकारी और जमीन संबंधी संसाधनों के अभाव से हाल बुरा है. अरविन्द की तरह अपने दम पर जितना किया जा सकता है, किया जा रहा है.
रात के अगले पहर कूणा के युवाओं से विदा ली गयी और अगले ठिकाने, जहाँ रात गुजारनी थी, मित्र रवि राणा के घर बास्तिल गाँव का रुख किया गया. समय की कमी के चलते मैं चाहता था कि यहाँ के लोगों से रात को ही बात कर ली जाय लेकिन उस दिन भारत आस्ट्रेलिया के बीच क्रिकेट का मेच ख़ेला जा रहा था सो मामला सुबह पर ड़ाल दिया गया.
सुबह बास्तील के मौजीज लोगों से राय शुमारी करने हेतु गाँव की सामुदायिक चौपाल, जो कि वहाँ कि पारंपरिक बैठक है, पर आसन जमाए गये. बावर के समृद्ध गाँवो में से एक गाँव बास्तील भी है. नौकरी पेशा लोगों की गाँव में अच्छी ख़ासी तादात है. बागवानी और खेती बाड़ी अच्छी होती है. पशु पालन भी गुजारे भर का होता ही है. लोग हद तक के जागरुक है, लेकिन केवल खुद भर के लिए. क्योंकि पूरा का पूरा गाँव एक चट्टान पर है इसलिए शौचालय जैसी आम समस्या से जूझ रहा है. वैसे हाल के दिनों में सीवर लाईन स्वीकृत होने की ख़बर है लेकिन सीवर लाईन बिछेगी कब इस बारे में कोई जानकारी नहीं है. बिरनाड़ बास्तील के बगल का गाँव है, दोनो गाँवों में स्कूल समेत दूसरे भी कई महकमों के भवन आस पास बनाए गए है लेकिन सभी में ताले पड़े थे. जब स्कूल में शिक्षक की बावत पूछा गया तो एक अधेड़ ने बगल में ख़ेल रहे बच्चे से उसके बारे में जानकारी चाही. रबर के पाईप को गोल कर बनाए गए टायर से खेलते हुए बच्चे नें बड़ी लापरवाही से जवाब दिया कि अभी तो होली की छुट्टियाँ चल रही है, जबकि होली को बीते आज छ दिन हो चुके थे. गाँव के साथ लगते गदेरे में देवदार और बांज के युवा पेड़ो का एक छोटा सा जंगल है जो कि गाँव की सामुदायिक मिल्कियत है.
सुबह का सूरज जब आसमान में लगभग आदमी भर की ऊँचाई ले चुका था, मैने बास्तील वालों से विदा ली और अपने अगले गाँव चौसाल का रुख कर दिया.
सड़क के जिस छोर से चौसाल गाँव की हद शुरु होती है वही पर है गाँव का प्राथमिक विद्यालय. विद्यालय में गया तो वहाँ स्थानीय निवासी जगवीर से मुलाकात हुई. लगभग ग्यारह बजने को थे. जगवीर स्कूल की मरम्मत में मय मिस्त्री के जुटे पड़े थे. स्कूल की बारहदरी में जो दो बच्चे खेल रहे थे वे दोनो बच्चे जगवीर के ही थे. बातचीत के दौरान मालूम पड़ा कि जगवीर स्कूल अभिभावक संघ के अध्यक्ष है लिहाजा यहाँ की राजनीतिक प्रथा के हिसाब से स्कूल की मरम्मत का ठेका भी उन्हे ही हासिल हुआ था. जगवीर से परिचय के बाद जब स्कूल के शिक्षकों और विद्यार्थियों के बारे में पूछा गया तो जगवीर नें मेरा यही सवाल बारहदरी में ख़ेल रहे अपने बच्चों की तरफ़ उछाल दिया. बच्चों से पता चला कि यहाँ भी अभी होली की ही छुट्टियाँ चल रही है, कब तक चलेगी यह इन्हे नहीं मालूम. जगवीर नें मुझे चाय का निमन्त्रण दिया जो मैने सहर्ष स्वीकार कर लिया. बातचीत का एक और दौर शुरु हुआ. चर्चा शिक्षा, स्वास्थ्य से होती हुई ख़ेती बागवानी से जुड़े महकमे उद्यान विभाग तक पहुँच गयी. जयवीर कहने लगे कि जितना नुकसान उद्यान विभाग नें किसानो का किया है, उतना कोई और नहीं कर सकता. मेरे पिताजी ने उद्यान विभाग से सेब के पौधे लिए. हम अपढ लोगों ने सेब के पौधे अपनी उपजाऊ जमीन मे रोप दिये. ख़ूब मेहनत की, मजदूरी कर पैसा कमाया और लगाए गए पौधों की दवा खाद में खर्च किया. लगभग डेढ दशक की जी तोड़ मेहनत और पेट काट कर बचाए गए गांठ के पैसों को ख़र्च करने के बाद इन पौधों पर फ़ल लगे तो पता चला कि यह तो सेब की ऐसी दोयम नस्ल है जिसका बाजार भाव सबसे कम होता है. हमारे यहाँ उद्यान विभाग फ़लों के ऐसे कलमी पौधे देता है जिसकी किस्म बिलकुल घटिया होती हैं. हम कहते हैं कि हमे पावल्टी (बीज बोकर उगाया हुआ पौधा) दे दो, हम कलम खुद कर लेगें लेकिन दो सौ से चार सौ रुपये की दर से खरीदे गए कलमी पौधों में कमीशन की भरपूर गुंजायश रहती है, जबकि पावल्टी तो पाँच रुपये में मिल जाती है और उसमे अधिकारियों कर्मचारियों के खाने कमाने की संभावनाएं बहुत कम रह जाती है. ऐसे में भला कोई क्यों कलमी पौधें न खरीदें. आजकल सेब के फ़लदायी पैड़ों में फ़ूल आ रहे हैं, वो फ़लों में तब्दील होने तक पैड़ों पर बने रहे, इसके लिए इन फ़ूलों पर छिड़कने के लिए दवा चाहिए. चौसाल में उद्यान विभाग का सचल दल कार्यालय है लेकिन वहाँ दवाएं नहीं है. मैने कहा कि चलो, उद्यान विभाग के कर्मचारी से मिला जाय, तो जयवीर कहने लगे कि वहाँ भी अभी होली की छुट्टियां चल रही होगी. अभी कोई नहीं मिलेगा वहाँ भी.
चौसाल में जगवीर के घर से आगे बढा तो सड़क से नीचे की ओर एक सेब के क्लेक्शन सेंटर पर नजर पड़ी. यह क्लेक्शन सेंटर किसी कोल्ड स्टोर वाले की मिल्कियत है. राह गुजरते लोगों से उसके बारे में जानकारी की तो पता चला कि यह अगस्त में खुलता है जबकि कम ऊँचाई होने के कारण यहाँ अधिकतर सेब जुलाई अंत तक बाजार का रुख कर लेता है. थोड़ा आगे बढा तो सामने सड़क साथ ही लगते एक ढलवा छत वाले मकान के बाहार उद्यान विभाग का जंग लगा बोर्ड नजर आने लगा. नजदीक जाने पर देखता हूँ कि अभी तक देखे गए हर सरकारी कार्यालय की तरह इस पर भी ताला लटका हुआ है. हाथ से लिखी गयी बन्द किवाड़ के उपर चस्पा सूचियाँ, जो उस पर नजर आ रही तारीख के हिसाब से साल भर पुरानी मालूम होती थी, के अलावा वहाँ और कुछ भी नजर नहीं आ रहा था.
लगभग दो सौ मीटर के करीब आगे जाने पर नीचे की ओर निकलती हुई एक पगडंडी पकड़ी जो गाँव कोटी की ओर जाती थी. कोटी गाँव का अपना एक ऐतिहासिक महत्व है. ब्रिटिश काल के दौरान इस कोटी गाँव में बावर देवघार का एक मात्र स्कूल था. आज भले ही हिन्दोस्तान की महत्वकाँक्षाएं मंगल को छू आयी हो लेकिन कोटी गाँव का यह स्कूल अभी भी प्राथमिक स्तर का ही है. स्थानिकों से समस्याएं पूछी तो यहाँ पानी की किल्लत का जिक्र प्राथमिकता पर था. बागवानी करने वाले कुछ लोग मिले, जो अपनी पीठ पर पानी से भरे ड्र्म लाद कर सेब के फ़ूलों पर दवा का छिडकाव करने हेतु अपने बागीचों की ओर जा रहे थे. उनसे बात की तो पता चला कि गाँव की पाईप लाईन यहाँ से लगभग 20 किलो मीटर दूर ऐठाण से आती है और ये लाईन जिन-जिन गाँवों, खेड़ों से गुजरती है,इस पाईप लाईन का पानी वहाँ-वहाँ खर्च होता हुआ हम तक थोड़ा बहुत ही पहुँच पाता है. यह पाईप लाईन अक्सर टूटते रहती है. पहाड़ का 20 किलोमीटर कोई मामूली दूरी नहीं होती और लाईन के साथ-साथ चलते हुए पैदल तय करना. कभी-कभी तो दो दिन में लौटना हो पाता है. रोज की जद्दोजहद है. इतनी दूर जब तक हम लोग पानी की लाईन दुरुस्त कर वापिस लौटते हैं तब तक कोई न कोई कहीं न कहीं से इसको तोड़ा देता है. आप समस्याओं की पूछ रहे हैं, तो देख लिजिए. जीवन के लिए पानी जैसी जरुर चीज के लिए जो लोग संघर्ष कर रहे हैं उनके लिए बाकी बुनियादी सुविधाएं तो फ़िलहाल गौण ही समझिए. इन पर बात करना तो बेमानी होगा.
कोटी गाँव से विदा लेने के बाद मैं अपने अगले पड़ाव कथियान की ओर चल पड़ा.
(जारी)
स्वयं को “छुट्टा विचारक, घूमंतू कथाकार और सड़क छाप कवि” बताने वाले सुभाष तराण उत्तराखंड के जौनसार-भाबर इलाके से ताल्लुक रखते हैं और उनका पैतृक घर अटाल गाँव में है. फिलहाल दिल्ली में नौकरी करते हैं. हमें उम्मीद है अपने चुटीले और धारदार लेखन के लिए जाने जाने वाले सुभाष काफल ट्री पर नियमित लिखेंगे.
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