रेल यात्रा
-शरद जोशी
रेल विभाग के मंत्री कहते हैं कि भारतीय रेलें तेजी से प्रगति कर रही हैं. ठीक कहते हैं. रेलें हमेशा प्रगति करती हैं. वे बम्बई से प्रगति करती हुई दिल्ली तक चली जाती हैं और वहाँ से प्रगति करती हुई बम्बई तक आ जाती हैं. अब यह दूसरी बात है कि वे बीच में कहीं भी रुक जाती हैं और लेट पहुँचती हैं. पर अब देखिए ना, प्रगति की राह में रोड़े कहाँ नहीं आते. कांग्रेस के रास्ते में आते हैं, देश के रास्ते में आते हैं तो यह तो बिचारी रेल है. आप रेल की प्रगति देखना चाहते हैं तो किसी डिब्बे में घुस जाइए. बिना गहराई में घुसे आप सच्चाई को महसूस नहीं कर सकते.
हमारे यहाँ कहा जाता है – “ईश्वर आपकी यात्रा सफल करें.” आप पूछ सकते हैं कि इस छोटी-सी रोजमर्रा की बात में ईश्वर को क्यों घसीटा जाता है? पर जरा सोचिए, रेल की यात्रा में ईश्वर के सिवा आपका है कौन? एक वही तो है जिसका नाम लेकर आप भीड़ में जगह बनाते हैं. भारतीय रेलों में तो यह है, आत्मा सो परमात्मा और परमात्मा सो आत्मा! अगर ईश्वर आपके साथ है, टिकट आपके हाथ है, पास में सामान कम और जेब में पैसा ज्यादा है तो आप मंजि़ल तक पहुँच जाएँगे, फिर चाहे बर्थ मिले या न मिले. अरे भारतीय रेलों का काम तो कर्म करना है. फल की चिंता वह नहीं करती. रेलों का काम एक जगह से दूसरी जगह जाना है. यात्री की जो भी दशा हो – जि़न्दा रहे या मुर्दा, भारतीय रेलों का काम उसे पहुँचा देना भर है. अरे, जिसे जाना है वह तो जाएगा. बर्थ पर लेटकर जाएगा, पैर पसारकर जाएगा. जिसमें मनोबल है, आत्मबल, शारीरिक बल और दूसरे किसिम के बल हैं, उसे यात्रा करने से कोई नहीं रोक सकता. वे जो शराफत और अनिर्णय के मारे होते हैं, वे क्यू में खड़े रहते हैं, वेटिंग लिस्ट में पड़े रहते हैं. ट्रेन स्टार्ट हो जाती है और वे सामान लिये दरवाजे के पास खड़े रहते हैं. भारतीय रेलें हमें जीवन जीना सिखाती हैं. जो चढ़ गया उसकी जगह, जो बैठ गया उसकी सीट, जो लेट गया उसकी बर्थ. अगर आप यह सब कर सकते हैं तो अपने राज्य के मुख्यमंत्री भी हो सकते हैं. भारतीय रेलें तो साफ कहती हैं – जिसमें दम, उसके हम. आत्मबल चाहिए, मित्रो!
जब रेलें नहीं चली थीं, यात्राएँ कितनी कष्टप्रद थीं. आज रेलें चल रही हैं, यात्राएँ फिर भी इतनी कष्टप्रद हैं. यह कितनी खुशी की बात है कि प्रगति के कारण हमने अपना इतिहास नहीं छोड़ा. दुर्दशा तब भी थी, दुर्दशा आज भी है. ये रेलें, ये हवाई जहाज, यह सब विदेशी हैं. ये न हमारा चरित्र बदल सकती हैं और न भाग्य.
भारतीय रेलों ने एक बात सिद्ध कर दी है कि बड़े आराम की मंजि़लें छोटे आराम से तय होती हैं. और बड़ी पीड़ा के सामने छोटी पीड़ा नगण्य है. जैसे आप ससुराल जा रहे हैं. महीने-भर पहले आरक्षण करा लिया है, घण्टा-भर पहले स्टेशन पहुँच गये हैं, बर्थ पर बिस्तर फैला दिया है और रेल उस दिशा में दौड़ने लगी है जिस दिशा में आपका ससुराल है. ससुराल बड़ा आराम है, आरक्षण दोटा आराम है. बड़े आराम की मंजि़ल छोटे आराम से तय होती है.
इसी तरह बड़ी पीड़ा के सामने छोटी पीड़ा नगण्य है. मानिए आपके बाप मर गये. (माफ़ कीजिए, मैं एक उदाहरण दे रहा हूँ. भगवान उनकी लम्बी उमर करे अगर वे पहले ही न मर गये हों तो.) आप ख़बर सुनते हैं और अपने गाँव जाने के लिए फ़ौरन रेल में चढ़ जाते हैं. भीड़, धक्का-मुक्का, थुक्का-फजीहत, गाली-गलौज. आप सब-कुछ सहन करते खड़े हैं. पिताजी जो मर गये हैं. बड़ी पीड़ा के सामने छोटी पीड़ा नगण्य है.
मैं एक दूसरा उदाहरण देता हूँ. मानिए एक कुँवारे लड़के को उसका दोस्त कहता है कि जिस लड़की से तुम्हारी शादी की बात चल रही है वह होशंगाबाद अपने मामा के घर आयी है, देखना चाहो तो फ़ौरन जाकर देख आओ. आरक्षण का समय नहीं है. कुँवारा लड़का न आव देखता है न ताव और रेल के डिब्बे में चढ़ जाता है. वही भीड़, धक्का-मुक्का, थुक्का-फजीहत, गाली-गलौज. मगर क्या करे? लड़की से शादी जो करनी है, जि़न्दगी-भर के लिए मुसीबत जो उठानी है. बड़ी पीड़ा के सामने छोटी पीड़ा नगण्य है.
भारतीय रेलें चिन्तन के विकास में बड़ा योग देती हैं. प्राचीन मनीषियों ने कहा है कि जीवन की अंतिम यात्रा में मनुष्य ख़ाली हाथ रहता है. क्यों भैया? पृथ्वी से स्वर्ग तक या नरक तक भी रेलें चलती हैं. जानेवालों की भीड़ बहुत ज़्यादा है. भारतीय रेलें भी हमें यही सिखाती हैं. सामान रख दोगे तो बैठोगे कहाँ? बैठ जाओगे तो सामान कहाँ रखोगे? दोनों कर दोगे तो दूसरा कहाँ बैठेगा? वो बैठ गया तो तुम कहाँ खड़े रहोगे? खड़े हो गये तो सामान कहाँ रहेगा? इसलिए असली यात्री वो जो हो खाली हाथ. टिकिट का वज़न उठाना भी जिसे कुबूल नहीं. प्राचीन ऋषि-मुनियों ने ये स्थिति मरने के बाद बतायी है. भारतीय रेलें चाहती हैं वह जीते-जी आ जाए. चरम स्थिति, परम हल्की अवस्था, ख़ाली हाथ्, बिना बिस्तर, मिल जा बेटा अनन्त में! सारी रेलों को अन्तत: ऊपर जाना है.
टिकिट क्या है? देह धरे को दण्ड है. बम्बई की लोकल ट्रेन में, भीड़ से दबे, कोने में सिमटे यात्री को जब अपनी देह तक भारी लगने लगती है, वह सोचता है कि यह शरीर न होता, केवल आत्मा होती तो कितने सुख से यात्रा करती. भारतीय रेलें हमें मृत्यु का दर्शन समझाती हैं और अक़्सर पटरी से उतरकर उसकी महत्ता का भी अनुभव करा देती हैं. कोई नहीं कह सकता कि रेल में चढ़ने के बाद वह कहाँ उतरेगा? अस्पताल में या श्मशान में. लोग रेलों की आलोचना करते हैं. अरे रेल चल रही है और आप उसमें जीवित बैठे हैं, यह अपने में कम उपलब्धि नहीं है.
रेल-यात्रा करते हुए अक़्सर विचारों में डूब जाते हैं. विचारों के अतिरिक्त वहाँ कुछ डूबने को होता भी नहीं. रेल कहीं भी खड़ी हो जाती है. खड़ी है तो बस खड़ी है. जैसे कोई औरत पिया के इंतज़ार में खड़ी हो. उधर प्लेटफ़ॉर्म पर यात्री खड़े इसका इंतज़ार कर रहे हैं. यह जंगल में खड़ी पता नहीं किसका इंतजार कर रही है. खिड़की से चेहरा टिकाये हम सोचते रहते हैं. पास बैठा यात्री पूछता है – “कहिए साहब, आपका क्या ख़याल है इस कण्ट्री का कोई फयूचर है कि नहीं?”
“पता नहीं.” आप कहते हैं, “अभी तो ये सोचिए कि इस ट्रेन का कोई फयूचर है कि नहीं?”
फिर एकाएक रेल को मूड आता है और वह चल पड़ती है. आप हिलते-डुलते, किसी सुंदर स्त्री का चेहरा देखते चल पड़ते हैं. फिर किसी स्टेशन पर वह सुंदर स्त्री भी उतर जाती है. एकाएक लगता है सारी रेल ख़ाली हो गयी. मन करता है हम भी उतर जाएँ. पर भारतीय रेलों में आदमी अपने टिकिट से मजबूर होता है. जिसका जहाँ का टिकिट होगा वह वहीं तो उतरेगा. उस सुन्दर स्त्री का यहाँ का टिकिट था, वह यहाँ उतर गयी. हमारा आगे का टिकिट है, हम वहाँ उतरेंगे.
भारतीय रेलें कहीं-न-कहीं हमारे मन को छूती हैं. वह मनुष्य को मनुष्य के क़रीब लाती हैं. एक ऊँघता हुआ यात्री दूसरे ऊँघते हुए यात्री के कन्धे पर टिकने लगता है. बताइए ऐसी निकटता भारतीय रेलों के अतिरिक्त कहाँ देखने को मिलेगी? आधी रात को ऊपर की बर्थ पर लेटा यात्री नीचे की बर्थ पर लेटे इस यात्री से पूछता है – यह कौन-सा स्टेशन है? तबीयत होती है कहूँ – अबे चुपचाप सो, क्यों डिस्टर्ब करता है? मगर नहीं, वह भारतीय रेल का यात्री है और भारतभूमि पर यात्रा कर रहा है. वह जानना चाहता है कि इस समय एक भारतीय रेल ने कहाँ तक प्रगति कर ली है?
आधी रात के घुप्प अँधेरे में मैं भारतभूमि को पहचानने का प्रयत्न करता हूँ. पता नहीं किस अनजाने स्टेशन के अनचाहे सिग्नल पर भाग्य की रेल रुकी खड़ी है. ऊपर की बर्थवाला अपने प्रश्न को दोहराता है. मैं अपनी ख़ामोशी को दोहराता हूँ. भारतीय रेलें हमें सहिष्णु बनाती हैं. उत्तेजना के क्षणों में शांत रहना सिखाती हैं. मनुष्य की यही प्रगति है.
भारतीय रेलें आगे बढ़ रही हैं. भारतीय मनुष्य आगे बढ़ रहा है. आपने भारतीय मनुष्य को भारतीय रेल के पीछे भागते देखा होगा. उसे पायदान से लटके, डिब्बे की छत पर बैठे भारतीय रेलों के साथ प्रगति करते देखा होगा. कई बार मुझे लगता है कि भारतीय मनुष्य भारतीय रेलों से भी आगे हैं. आगे-आगे मनुष्य बढ़ रहा है, पीछे-पीछे रेल आ रही है. अगर इसी तरह रेल पीछे आती रही तो भारतीय मनुष्य के पास सिवाय बढ़ते रहने के कोई रास्ता नहीं रहेगा. बढ़ते रहो – रेल में सफ़र करते, दिन-भर झगड़ते, रात-भर जागते, बढ़ते रहो. रेलनिशात् सर्व भूतानां! जो संयमी होते हैं वे रात-भर जागते हैं. भारतीय रेलों की यही प्रगति है. जब तक ऐक्सीडेण्ट न हो, हमें जागते रहना है.
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