उत्तराखंड में महिलाओं के आभूषण किसी को भी आकर्षित कर सकते हैं. इन्हीं आभूषणों में एक नाक की नथ या नथुली.
नथ, उत्तराखंड में विवाहित महिलाओं द्वारा नाक में पहना जाने वाला एक आभूषण है. एक पारंपरिक नथ तीन से चार तोले सोने की बनती है. पूरे उत्तराखंड में सबसे सुंदर और आकर्षक नथ टिहरी की नथ मानी जाती है.
भारत के बहुत से हिस्सों में नथ पहनने का प्रचलन है. वर्तमान में नथ को उत्तराखंड की परम्परा आदि से जोड़कर दिखाया गया है लेकिन असल में नथ हमेशा से ही एक स्टेट्स सिंबल रही है. जैसे की आज भी पहाड़ों में दुल्हन की नथ के आकार के आधार पर यह राय बना ली जाती है कि वह कितने अमीर परिवार से ताल्लुक रखती है.
भारत में विवाह कार्यक्रम एक पूरे उद्योग की तरह विकसित है. इस उद्योग का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है फैशन है और इसी फैशन में इन दिनों लोकप्रिय है नाक की नथ या नथुली.
भले ही आज इसे वैदिक काल से जोड़कर कहानियां बनायी जाती है और इसे सुहाग की निशानी बताया जाता हो लेकिन हकीकत यह है कि भारत में इसका प्रचलन ही सोलहवी शताब्दी में शुरु हुआ है. भारत में सोहलवी शताब्दी तक की कोई भी किताब उठा लीजिये वहां नाक में पहनने वाले किसी आभूषण का कोई जिक्र नहीं है.
सिंधु घाटी सभ्यता से लेकर पूर्व मध्यकाल तक भारत में नाक में पहनने वाले किसी आभूषण के कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं है. नाक में पहनने वाली नथ का पहला जिक्र रीतिकाल के कवियों के यहां मिलता है.
रीतिकाल सत्रहवीं अठारहवीं शताब्दी का काल है यहां बिहारी, केशव, देव और घनानंद तीनों के यहां नाक के आभूषण का जिक्र मिलता है. रीतिबद्ध और रीतिमुक्त दोनों ही कवियों के यहां नथ का वर्णन यह दर्शाता है कि इस समय तक नथ का प्रयोग आम जन के बीच भी किया जाने लगा था.
विश्व में पहली बार नाक छेदने के लिखित साक्ष्य मध्य पूर्व देशों में मिलते हैं. बाईबल में नाक छेदने का जिक्र इस बात को दर्शाता है कि मध्य पूर्व के देशों में 2000 साल पहले नाक छेदना एक सामान्य परम्परा थी.
ईसाईयों की धार्मिक पुस्तक जिनेसिस में लिखा है कि अब्राहम के बेटे इसाक ने अपनी होने वाली पत्नी रुबिका को Shanf तोहफे में दिया. Shanf का अर्थ है सोने की नोसपिन या नथ. मध्य पूर्व के देशों से लेकर अफ्रीका के बहुत से देशों में आज भी पुरुष द्वारा होने वाली पत्नी को नथ देने का प्रचलन है. नथ का आकार होने वाले पति की सम्पन्नता का प्रतीक माना जाता है.
इन तथ्यों के आधार पर यह माना जा सकता है कि नथ का प्रचलन मध्य पूर्व के देश या इजरायल में कहीं हुआ होगा. भारत में मुगलों के साथ सोलहवी सदी में नथ का प्रवेश हुआ.
भारतीय आयुर्वेद में महिलाओं की नाक के बाएं ओर छिद्र करने के विषय में लिखा गया है. आयुर्वेद के अनुसार नासिका के बाएं तरफ़ की एक नस महिलाओं के गर्भ से जुड़ी होती है जिसमें छिद्र करने से प्रसव में आसानी होती है. यह बात ध्यान देने वाली है भारत में बाएं ओर नाक छेदने की परम्परा केवल उत्तर भारत में है दक्षिण भारत में नाक में दाएं ओर छिद्र किया जाता है.
अब बात आती है कि गढ़वाल और कुमाऊं में कब और कैसे नथ का प्रवेश हुआ तो टिहरी की नथों में होने वाली विविधता और सुन्दरता के आधार पर कहा जा सकता है कि शायद गढ़वाल के राज परिवारों से नथ ने यहां के समाज में प्रवेश किया होगा.
उत्तराखंड में नथ आम लोगों के बीच अठारहवीं शताब्दी से प्रचलित हुई होगी. इस बात के अभी तक कोई साक्ष्य नहीं है कि कैसे यहां के लोगों ने नथ को सुहाग और कर्मकांड से जोड़ा.
जामिला ब्रजभूषण ने अपनी किताब में लिखा है कि नथ मुस्लिम धर्म में सबसे पहले सुहाग का प्रतीक बने.
संदर्भ :
painfulpleasures.com वेबसाईट.
शशिप्रभा दास की पुस्तक रीतिकालीन भारतीय समाज.
पी. एन झा की किताब North Indian social life during Mughal period.
जामिला ब्रजभूषण की किताब Indian Jewalary Ornament and Decoration Design
-गिरीश लोहनी
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अबे मूर्खों, मुस्लिमों में सुहाग नाम की कोई चीज होती भी है ? वहाँ शादी केवल अनुबंध होता है और अनुबंध में आत्मीयता नाम का कोई विचार नहीं होता । फर्जी लेख से किसे बेवकूफ बना रहे हो ।
यह लेख कहता है कि 16 वीं सदी में नथ की शुरआत हुई फिर अंत में कहता है कि आयुरवेद में लिखा है नक छिगवाना। साफ है लेखक खुद पढ़ा लिखा नहीं है। ये किसी साजिश के तहत गढवाली परंपराओँ को कमतर करने की कोशिश है। हो सकता है लेखक वामपंथी हो, क्योंकि ये लोग ही ऐसी अधकचरा ज्ञान रखते हैं और खुद एक्सपोज होते है। आयुरेवद खुद हजारो साल पुराना है।
लगता है लेखक महोदय पुरातन काल से जिंदा हैं और उन्हें सब कुछ पता है, भारत की परम्पराएं भी इन्ही के सामने शुरू हुई।
ऐसे लेख पढ़ कर तो लगता है कि लेखक को खुद ही नहीं पता है कि वह क्या बोल रहा है। शुरुआत मे बहुत अच्छे लेख आते थे पहाड़ से जुड़ी चीजों को बताते थे पर अब ऐसे विश्लेषण करके लेख लिखते हैं जैसे अंतर्यामी होंगे, ये पता नहीं कौन सी पढ़ाई करके लेख छाप रहे हैं।
पता नहीं लोगों को यह कब समझ आएगा कि गूंगे हिने का अर्थ यह नहीं होता कि सामने वाला सोच भी नहीं सकता।