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जौनसार की दैवीय चिकित्सा

गढ़वाल हिमालय के देहरादून जिले में कालसी और चकराता ब्लॉक में निवास करती है जौनसारी जनजाति जो पांडवों को अपना पूर्वज मानती है. पांडवानी संस्कृति की छाप यहाँ के सामाजिक जीवन में देखी जाती है. जौनसारियों की धार्मिक संकल्पनाओं व लोक संस्कृति में अन्य हिमालयी क्षेत्रों से कुछ भिन्न रीतिरिवाज रहे. जौनसार का इलाका प्रकृति दत्त अद्भुत वनस्पतियों और भेषजों से सघन व समृद्ध रहा है. जिसके प्रयोग की परंपरा सदियों से विकसित होते हुए स्थानीय निवासियों के स्वास्थ्य व विविध रोगों के उपचार में सहायक बनी रही.
(Tradition of Jaunsari Uttarakhand)

जौनसार के इस इलाके में जड़ी बूटियों की व्यापक उपलब्धता है और यहाँ के निवासी इनके बारे में काफी जानकारी रखते हैं. यहाँ जड़ी बूटियों के विशिष्ट जानकार हैं जिन्हें ‘जड़ियारे’ कहा जाता है. जौनसार के ये जड़ियारे यहाँ पाई जाने वाली भेषजों और वनस्पति से स्थानीय जनसमूह के निरोग रहने और इलाज के लिए स्वभूत नुसखों से साधारण व असाध्य बीमारियों का इलाज करते आए हैं. व्याधियाँ  दैहिक, दैविक व भौतिक मानी जाती हैं जिनके उपचार के लिए दैवीय शक्तियों को पूजा जाता है. रोगी के जन्म चक्र -कुनले -कुंडली को ध्यान में रखा जाता है. यही कारण है कि जौनसार के समाज में सुख शांति निरोग व स्वस्थ रहने के लिए जड़ी -बूटी, तंत्र -मंत्र व ज्योतिष का अद्भुत समन्वय दिखाई देता है. यह दैवीय चिकित्सा पद्धति कहलाती है.

जौनसारी समाज का ईष्ट है महाशिव का अवतार, “महासू”. यही कुलदेवता है. लोक मान्यता है कि यहाँ के सभी कारबार और गतिविधियां महासू देवता के ‘वाक्या’ या माली के हुकुम से चलतीं हैं. माना जाता है कि कोई भी बीमारी या आपदा विपदा, दुख-कष्ट तब आते हैं जब प्रचलित धार्मिक नियमों का पालन न किया गया हो . ऐसे काम जाने- अनजाने हो पड़े हों जो मन और शरीर पर बुरा प्रभाव डालें. मौसम के हिसाब से खानपान और दिनचर्या में लापरवाही की गई हो. वहीं पूर्व काल में किए कर्म भी दोष देते हैं.हर किसी के जीवन में ऐसा समय भी आता है जब उसके ग्रह नक्षत्र अस्त हों, कमजोर पड़ गए हों या उनकी युति से उसके मन, सोच, शरीर और घर-परिवार पर बुरे प्रभाव पड़ रहे हों.देवता अवतरित माली लोगों पर आ रही आपदा-विपदा के साथ ही उन पर किए अत्याचार-अन्याय की धाल या पुकार भी सुनता है. लोग अपनी आपबीती माली को बताते हैं तो शरण में आए विपदा ग्रस्त को देवता उस समस्या से मुक्त होने का मार्ग सुझाता है.

जौनसारी समाज का दृढ़ विश्वास है कि किसी भी विपरीत परिस्थिति से उन्हें उनका ईष्ट ही मुक्त कर सकता है. उन्हें अपने देवी देवताओं पर अटूट विश्वास है. बुरे समय में देवी देवता को प्रसन्न करते हुए मनौती मांगी जाती है. ईष्ट आराध्य देव महासू हैं, वह सबके रक्षक हैं. इस लोक विश्वास के चलते उसके सहारे कई प्रकार के कर्मकांड व पूजन पद्धतियों पर निर्भर रह समस्या को सुलझाया जाना ही एकमात्र उपाय होता है. आस्था और समर्पण से भरी यह भावना देवी देवता के सम्मुख छत्तर चढाती, टीका चढ़ाती व रोटाड़ी की भेंट, घांडवा चढ़ाना व जातर चढ़ा अपने विश्वास को बलवती करती है. इन सारे क्रिया कलापों में महासू देवता का वाक्या या माली समुचित मार्गदर्शन करता व निर्देश देता है. वह देवता की पूजा के विधि विधान समझाता व उसे संपन्न करने के उपाय समझाता है.

जिस व्यक्ति पर देवता आता है उसे माली या बाकी कहा जाता है.देवता का यह अवतार सामने आए जन की परेशानी विपदा आपदा का हाल जान उसको दूर करने के उपाय बताता है. यदि कोई जड़ी -बूटी, औषधि लेनी हो तो जड़ियारों के पास जाने की सलाह देता है. बुरी शक्तियों को साधने के लिए जंतर-मंतर, गंडा-ताबीज, जादू-टोना का उपाय है. भूत-प्रेत, परी-आंचरी, डाग-डायन की पूजा है. काट करने, घात करने को को भूत प्रेत का मारण-वशीकरण-उच्चाटन है. दैवीय व तांत्रिक उपचारों के साथ जड़ी बूटियों की लोक चिकित्सा पद्धति का विषद अनुभव प्रचलित परम्पराओं के अनुसार जड़ियारे करते हैं जो यह मानते हैं कि बीमारी कमजोरी का कारण भी दैवीय प्रकोप है. जड़ी बूटियों से औषधि बनने व रोगी को देने के काम भी उचित समय या पैट-अपैट देख किए जाते हैं.

अपने ईष्ट को अपना कार्य सिद्ध होने, मनौती पूर्ण होने पर सभी बंधु-बांधवो के साथ सपरिवार महासू के दरबार जा दर्शन करना जातर चढ़ाना कहा जाता है. देवता को छत्र अर्पित किए जाते हैं. स्वर्ण व चांदी के छोटे कड़े भेंट करना टीका चढ़ाना कहा जाता है. महासू देबता के मंदिर में जीवित बकरे की भेंट देना घांडवा कहा जाता है. वही देबता को खुश रखने या देंण बनाए रखने को सवा मुट्ठी आटा चढ़ाना ही काफी होता है. देबता के दरबार में फल मिठाई व खास रोट-भेट भी चढ़ती है.

ग्रामीण समाज में आपसी बैर, ईर्ष्या व दूसरे की तरक्की देख जलन- कुढ़न के मामले होते ही रहते हैं. जमीन-जायदाद के प्रपंच होते हैं. ऐसे में अक्सर अपने विरोधी पर घात डाल दी जाती है.कोई भी जन किसी देवता की चौखट में जा अपने विरोधी की खिलाफ घात डाल देवता से निवेदन करता है कि उसकी बात रखने पर देवता को चढ़ावा चढ़ाएगा. लोक विश्वास इतने गहन हैं कि बिरादरी में लोग थाने कचहरी न जा सीधे अपने देवता के यहाँ जा घात डालते हैं. जौनसार और रवाईं के इलाके में नृसिंह, पोखू व दुर्योधन मुख्य देवता तथा कालिका उग्र देवी हैं जिनकी शरण में जाया जाता है.
(Tradition of Jaunsari Uttarakhand)

परिवार कुटुंब बिरादरी में किसी को रोग शोक होने पर उसे वाक्या या माली के पास ले जाया जाता है. अब माली यह तय करता है की उस पर कैसी विपदा आई है. झाड़ फूंक से निदान होगा या तंत्र मंत्र लगेगा. हर उपाय के अलग नियम और क्रियाएं हैं. अगर भूत- प्रेत- पिशाच लगा हो तो इसको दूर करने के लिए काले मुर्गे या बकरे की बलि दी जाती है. जौनसार में डाग डागिनी की माया का प्रकोप भी चलन में है. डाग हुई डायन. कहा जाता है कि ये जिस पर चिपट गईं तो उसके प्राण हर लेती हैं. डाग भी दो तरह की मानी गई. पहली तो वह जो अपने जनम से ही सब बुरे प्रभाव रखती रहीं हैं. इनका जनम भी भादों माह की अमूस या अमावस्या को हुआ माना जाता है. दूसरी तरफ ऐसी डाग जो सारी विधियां सिखा कर तैयार की जाती है. ऐसा सारा काला जादू वह अपनी गुरू से तंत्र मंत्र सिद्ध कर सीखती हैं और राग द्वेष से भर इसका प्रयोग करतीं हैं. जैसे जैसे जौनसारी समाज शिक्षा व ज्ञान विज्ञान से लाभान्वित होता रहा डाग डागिनी के भ्रम भी कमजोर पड़े हैं. पहले लोक विश्वास था कि जिसके पीछे डायन पड़ती तो पहले वह उसके सोये होने पर अपवित्र स्थान की मिट्टी या जानवरों की हड्डी इत्यादि से उसे अशुद्ध कर देती और फिर अपने जाल में फँसा लेतीं. डाग पड़ने का पता चलने पर वाक्या या माली तंत्र मंत्र से निदान करता. निवारण की पूजा शुरू होती. मीठे भोजन और काले मुर्गे की बलि चढ़ाई जाती.

प्रभावित के आंग में मात्रियों का बुरा दुष्ट असर न हो इसके लिए रक्षा कवच के रूप में चांदी से बना खगाईली धारण करवा दिया जाता है. लड़कियों पर डाग डाकिनी की छाया ज्यादा पड़ती है सो असर पड़ गई कन्या को कन्या कोंगा में नेहला धुला कर फिर गुरू के द्वारा खगाइली को मंत्र फूँक प्रतिष्ठित करा धारण करवा दिया जाता है.

ऐसी बीमारी और रोग जो किसी उपाय से काबू में न आ रहा हो उसके निदान के लिए पोथी की शरण में जाया जाता है. पोथी गणना की विद्या है. इसका हाथ से लिखा पोथा या ग्रन्थ गाँव के गुरू पुरोहित के पास सांचा के रूप में होता है जिसे बागोई कहा जाता है..सांचे पर एक पासे को तीन बार लुड़काया जाता है. यह पासा कस्तूरी मृग के दाँत से बना हुआ बताया जाता है. जो जन किसी समस्या रोग-आपदा से बहुत कष्ट में हो वह बागोई पर चावल व दक्षिणा चढ़ाता है. अब गुरू पुरोहित पाशे को ईष्ट स्मरण व प्रश्न कर्ता की समस्या के समाधान के निवेदन के साथ बोगोई के पृष्ठ पर तीन बार लुढ़काता है. तीन बार पाशा डालने से जो तीन अंक मिलते हैं उन संख्याओं की होरी के फलादेश को ग्रन्थ में देख कर निवारण के उपाय देखे जाते हैं. इस ग्रन्थ में तंत्र – मंत्र -यँत्र के द्वारा सभी किस्म के रोगों का निवारण, संक्रामक व्याधियों से बचाव, रक्षा कवच, रक्षा यँत्र, मशाण दोष व भूत प्रेत बाधा से मुक्ति के उपाय दिए जाते हैं. जौनसारी समाज में पोथी विद्या के ग्रन्थ को पूजनीय व पवित्र माना जाता है और इसे सदैव लाल वस्त्र में लपेट कर रख धूपदीप दी जाती है. मान्यता है कि यह विद्या महाभारत काल से चली आ रही है. पांडवों में सबसे छोटे भाई सहदेव इसके विद्वान रहे. बोगोई को जिस लिपि में लिखा गया है उसका उदगम कश्मीर में हुआ.

ऐसे ही एक स्थानीय ग्रन्थ है “सांचा” जिसमें ज्योतिष और तंत्र की विषद जानकारी निहित है. ज्योतिषी, पुरोहित एवं तांत्रिक सांचे के सूत्रों से आम जनों की विभिन्न समस्याओं और परेशानियों का निवारण करते हैं. इस तरीके को ‘गणाद’ कहा जाता है. गणाद का मतलब है किसी का अहित करना जिसके लिए तांत्रिक खराब व अहितकारी पदार्थों जैसे मरे पशु पक्षी कुछ खास मन्त्रों के जाप के साथ उस जन के घर गोठ के कोने में गाड़ देता है जिसे परेशान किया जाना है. धीरे धीरे इसका प्रभाव दिखाई देने लगता है.उस गणाद किए कुटुंब पर रोग शोक व्याप्त होने लगता है. असाध्य रोगों से परिवार घिरता है. घर के पालतू जानवर तक इसकी लपेट में आ जाते हैं.
(Tradition of Jaunsari Uttarakhand)

समाधान और अरिष्ट निवारण के लिए परिवार सिद्ध पुरोहित व गणाद के जानकार की मदद ली जाती है व दोष का निवारण कर लिया जाता है. यदि गणाद से उचित समाधान न मिले तो गुप्त वस्तु की ढूंढ खोज के लिए मांत्रिक तरीके “चोई” का प्रयोग किया जाता है. जो कुटुंब प्रभावित था वह मांत्रिक से इसका उल्टावा भी करवा सकता है जिससे नुकसान करने वाले पर ही विपदा आ जाती है.

कई रोगों को ‘बायथा ‘या झाड़ -फूँक कर दूर किया जाता है. गाय के दूध में गोमूत्र डाल कर पक्षी के पंखो से पीड़ित जन के आंग में छिड़का जाता है तथा लगातार मन्त्रों का उच्चारण किया जाता है. दूसरी कुछ विधियों में थाली बजा कर मंत्र पढ़े जाते हैं. अनिष्ट करने वाली शक्तियों को जगा कर उनसे संपर्क किया जाता है तथा उससे आंग को छोड़ जाने के उपाय किए जाते हैं. उसे क्या चहिये और क्या पा कर वह जाएगा जैसे सवाल किए जाते हैं. जब वह पीछा छोड़ने को राजी हो जाये तो उसकी मांग पूरी की जाती है व उसे भेंट दी जाती है. इस तरीके से होने वाला इलाज ‘भानी’ है. बायथा व भानी जैसी उपचार पद्धतियां “ऊँजा”कहलाती हैं.

लोगों के भय और डर को दूर करने की परंपरागत चिकित्सा में “पुंगरा” की मदद ली जाती है. झसक से प्रभावित जन को ठीक करने के लिए उसके सामने किसी खाली पतीली या भड्डू में तेज आग देती कोई चीज डाल देते हैं. फिर उस पात्र को पानी से भरे एक तसले में उलट देते हैं. धीरे -धीरे तसले में रखा पानी उस भड्डू या पतीली के भीतर चला जाता है. सारा पानी सोख लेने पर तसले को दोनों पैरों की गिरफ्त में रख ऊपर के बर्तन को जोर लगा कर उठा लिया जाता है. ऐसा करने में जोर की आवाज होती है व पानी तसले में लौट आता है. यह उपाय शाम के समय किया जाता है.

खोयी हुई वस्तु या गुप्त वस्तु का पता लगाने के लिए “तोमड़ी” या “चोई” चलाने की प्रथा भी अपनायी जाती है. तोमड़ी या तुम्बी पेड़ पर सूख गई लौकी या तुमड़ा है. जिसे जाँच परख उसके ऊपर के भाग पर छिद्र कर देते हैं. फिर रिंगाल या निंगाल के डंडे या लट्टी को तुमड़ी के भीतर डाल हिलाया जाता है. अब इस विद्या के जानकार गुरू के हाथ में लाल वस्त्र से तुम्बी व रिंगाल को बांध दिया जाता है. सिन्दूर को अभिमंत्रित कर गुरू के मस्तक पर लगाया जाता है. धूपदीप चढ़ा तुम्बी को सतनाजा चढ़ाया जाता है. यह क्रिया संपन्न होने पर यह विश्वास किया जाता है कि अब तुम्बी चाल पड़ेगी. पहले वह अपने ग्राम देबता “ठारी”या “चौरी” को प्रणाम करने निकलती है. तीन बार नमन कर वह खोयी या गुप्त धन प्राप्ति के अपने उद्देश्य के संधान में लग जाती है. जिस स्थान में खोयी हुई, चोरी हुई वस्तु या गड़ा धन होगा वहाँ जा तुमड़ी फूट पड़ती है. जानकार बताते हैं कि तोमड़ी का यह तरीका इच्छित की प्राप्ति के लिए लम्बे समय तक प्रयोग में लाया जाता रहा पर अब इसे प्रतिबंधित कर दिया गया है.
(Tradition of Jaunsari Uttarakhand)

सुदूर सीमांत में निवास कर रहे जनमानस ने अपनी संस्कृति, रीति रिवाज, परंपरा व जीवन यापन के तरीकों से जिस दैवीय व मांत्रिक चिकित्सा पद्धति का अनुसरण किया वह कई अर्थो में विशिष्ट हैं. नई चिकित्सा पद्धति का प्रवेश इन इलाकों में बहुत सीमित प्रभाव ही उपजा पाया अभी भी स्वास्थ्य केंद्रों और अस्पतालों की दशा अवस्थापना व अंतर्संरचना के अभाव से ग्रस्त है. ऐसे में लोक की शारीरिक मानसिक व अन्य बाधाओं के निवारण में पारम्परिक तरीकों पर ही स्थानीय निवासियों की आस्था बनी रही. जौनसार बाबर में प्रचलित इन विधाओं का विवेचन मेजर जयपाल सिंह राणा एवं रतनसिंह जौनसारी के सन्दर्भ ग्रंथों में विस्तार से किया गया है.

हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्व विद्यालय के इतिहास एवं पुरातत्व विभाग के शोधार्थियों दीपक कुमार, पवन दास व प्रोफ़ेसर डी पी सकलानी के कार्य उल्लेखनीय हैं. लोक थात की रोचक जानकारी स्थानीय जनों से बातचीत कर पता चलती है जिनसे यह विश्वास और प्रबल हो जाता है कि जौनसार में उनका रक्षक महासू देव उन्हें हर आपदा -विपदा से हर लेता है.
(Tradition of Jaunsari Uttarakhand)

प्रोफेसर मृगेश पाण्डे

जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

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