उत्तराखण्ड के कई पर्यटन स्थल सरकारी पर्यटन नीति के रहमोकरम पर नहीं हैं, इनमें से एक है नैनीताल. नैनीताल मसूरी के बाद राज्य का दूसरा सर्वाधिक लोकप्रिय पर्यटन स्थल है. सैलानियों के बीच नैनीताल की लोकप्रियता के कई कारण हैं. दक्षिण भारतीय राज्यों के जो आमजन उत्तराखण्ड राज्य तक का नाम नहीं जानते वे नैनीताल को बखूबी जानते हैं.
अब हमारी सरकारों के हालत जैसे हैं उसमें वे नैनीताल का कुछ भला तो कर नहीं सकतीं, ये दूरदर्शी सरकारें बहुत से बहुत नैनीताल की किसी सार्वजनिक संपत्ति को बेचने, लीज या ठीके पर देने की योजना भर बना सकती हैं.
नैनीताल की खासी आबादी का घर-बार पर्यटन व्यवसाय से ही चला करता है, जो कि साल-दर-साल चौपट हुआ जा रहा है. इसे चौपट करने में शासन-प्रशासन की महती भूमिका है. हालत इतने ज्यादा बुरे हो चुके हैं कि इस साल नगर के होटल और रेस्टोरेंट व्यवसाइयों ने एकाधिक बार शासन-प्रशासन के रवैये के खिलाफ ब्लैक आउट करने की धमकी दी. आखिर उन्हें यह करना भी पड़ा. उनका कहना है कि इस सीजन में उनका कारोबार 60 फीसदी तक कम हुआ है. होटल एंड रेस्टोरेंट एसोसिएशन का यह भी कहना है कि स्थानीय शासन-प्रशासन का यही रवैया रहा तो नैनीताल का पर्यटन व्यवसाय तबाह होते बस दो-चार साल ही लगेंगे.
हर साल टूरिस्ट सीजन से पहले जिले के विभिन्न प्रशासनिक अमले पर्यटन सीजन के लिए तैयारी बैठकें करते हैं, योजनाएँ बनती हैं. प्रेस कांफ्रेंस करके बाकायदा घोषणा की जाती है कि जिला प्रशासन और पुलिस सीजन के लिए पूरी तरह मुस्तैद है, इस बार चमत्कार होने वाला है. जब ये ख़ुफ़िया प्लान सार्वजनिक किया जाता है तो सामने आता है एक ‘ट्रैफिक मिसमैनेजमेंट प्लान.’
यहां से आने वाली गाड़ियों को वहां रोक लेंगे, वहां से आने वालियों को यहां. इसे वहां से भेज देंगे, उसे यहाँ से. बसों को यहां से आगे नहीं जाने देंगे, वगैरह. इन अस्थायी बैरियरों पर हगने-मूतने तक की कोई व्यवस्था नहीं होती, बाकी तो दूर की बात है. आप रोज सुबह बसों से कोल्टेक्स (हल्द्वानी) में उतार दिए गए उनींदे यात्रियों को चालक-परिचालक से भिड़ते और हैरान-परेशान, हलकान देख सकते हैं. इन सैलानियों को आगे ले जाने की प्रशासन के पास कोई व्यवस्था नहीं होती, इन्हें टैक्सी वालों के रहमोकरम पर छोड़ दिया जाता है. यदा-कदा अधिकारीयों का मूड अच्छा होने पर इनके लिए तत्काल बसें भी मंगवा ली जाती हैं. इस बात का हर साल ध्यान रखा जाता है कि इसके लिए कोई ठोस और स्पष्ट योजना न बनायी जाए.
कार वालों के लिए ‘ट्रैफिक मिसमैनेजमेंट प्लान’ के तहत सरप्राइज की भी व्यवस्था होती है. उन्हें रानीबाग से वाया भवाली भेजा जा सकता है, वहीं पर रोककर गाड़ी खड़ी करवाई जा सकती है. ज्योलीकोट के बाद बाईपास से भेजा जा सकता है, वहीं खड़ा किया जा सकता है. मतलब कुछ भी हो सकता है.
इस साल हद तब हो गयी जब लेक ब्रिज चुंगी को कस्बे से किलोमीटरों बाहर ले आया गया. यहां नैनीताल न जाकर आसपास के गाँवों या बाईपास मारने वाले वाहन चालकों से भी चुंगी वसूल ली गयी. नैनीताल जाने वाले वाहनों से चुंगी वसूल ली गयी और आगे पुलिस ने पार्किंग फुल हो जाने का हवाला देकर उन्हें रोक लिया, इत्यादि. मजेदार यह है कि सीजन से निपटने का यह प्लान गिरगिट की तरह रोज रंग बदलता है, जैसी सनक सवार हो वैसा कर लो.
इस प्लान का नतीजा यह होता है कि पर्यटक का दिल्ली, यूपी, पंजाब से नैनीताल आने का समय और खर्च तो नियत है, जिले की सीमा में घुसने के बाद उसे कितना वक़्त लगेगा, गाँठ से कितने रुपए खर्च होंगे, यह निश्चित नहीं है. वह नैनीताल पहुँच जायेगा इसका भी कोई भरोसा नहीं है. हालत ऐसी है कि स्थानीय लोग भी गर्मी में पहाड़ का रुख करने से कतराने लगे हैं, जाने क्या चमत्कार देखना पड़ जाए.
अब प्रशासन के इस ‘ट्रैफिक मैनेजमेंट प्लान’ को पर्यटक सीजन के लिए ठोस रणनीति मान भी लिया जाए तो इसका नतीजा सिफ़र ही है. ट्रैफिक की अराजकता, जाम और अफरातफरी को रोकने या कम करने के लिए यह योजना कई सालों से अमल में लायी जा रही है, इसका कोई नतीजा नहीं निकलता. जाम, अराजकता, अफरातफरी होती है और जमकर होती है. शासन-प्रशासन की योजना उसे कई गुना बढाती ही है.
नैनीताल आने वाले ज्यादातर सैलानी जिन जगहों से आते हैं वहां जाम जीवनचर्या का हिस्सा हैं. उन्हें जाने दिया जा सकता है वे जहाँ जाना चाहें, खुद भुगतें, चाहें तो नतीजा निकालें. शिमला, मनाली यहाँ तक कि मसूरी में भी यही व्यवस्था है. जैसे प्रशासन की व्यवस्था में घोर अव्यवस्था है वैसे ही सैलानियों की अव्यवस्था में भी व्यवस्था हो सकती है.
अगर इस स्थिति से निपटना है तो ठोस और कारगर उपायों की दरकार है. ये उपाय राज्य की सीमा से ही अमल में लाये जाने चाहिए. इसके लिए एक दूरदर्शी सोच की जरूरत पड़ेगी, जिसके लिए बाहरी विशेषज्ञों की सेवाएं लेने में शर्म महसूस नहीं की जानी चाहिए. उत्तर-पूर्व, भूटान तक के विशेषज्ञ इसमें मदद कर सकते हैं. हमें मान लेना चाहिए हमसे न हो पाएगा.
ऐसे में यह सवाल भी महत्वपूर्ण है कि जब शासन-प्रशासन अपने दम पर खड़े पर्यटन स्थलों को संभाल पाने की स्थिति में नहीं हैं तो यह अपेक्षा कैसे की जा सकती है कि वे राज्य में नए पर्यटन स्थल विकसित कर सकेंगे. उनके पास बेचने, लीज पर देने, किराये पर चढ़ाने आदि से आगे की सोच का अभाव है. वे इससे आगे सोचते हैं तो प्राकृतिक झील के चारों तरफ दीवार बनाने तक पहुँच पाते हैं.
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