‘बाबुल की दुआएं लेती जा, जा तुझको सुखी संसार मिले’ गीत को उत्तर भारत की शादियों का राष्ट्रीय विदाई गीत कहना गलत नहीं होगा. फिल्म नीलकमल के लिए साहिर लुधयानवी के लिखे इस गीत को मोहम्मद रफ़ी ने अपनी भावप्रवण आवाज से मार्मिक बना दिया है. उत्तर भारत की कोई भी शादी इस गीत के बगैर संपन्न नहीं होती. उत्तराखण्ड की भी हर शादी में बैंड और म्यूजिक सिस्टम में यह गीत जरूर बजा करता है. (Touching Wedding Song of Uttarakhand)
इस गीत की रिकॉर्डिंग से कुछ पहले रफ़ी साहब ने बेटी की सगाई की थी और दो दिनों बाद उनकी बेटी की सगाई थी. इस गीत को गाते हुए रफ़ी अपनी बेटी को याद कर फूट-फूटकर रोने लगे. गौर से सुनें तो उनकी भर्राई आवाज को दिल में उतरते हुए सहज ही महसूस कर सकते हैं.
हालांकि किन्हीं गीतों की तुलना करना ठीक नहीं होता. लेकिन फिर भी यह कहना गलत नहीं होगा कि उत्तराखण्ड के पास भी इतना ही भावप्रवण विदाई गीत है ‘बाट लागी बरयात चेली भैट डोली मा, जा त्यारा सौरास चेली भैट डोली मा, नी लगा निसास चेली भैट डोली मा…’ ये उस दौर का गीत है जब कैसेट्स आये नहीं थे, रिकार्ड्स प्लेयर हर किसी के पास होता नहीं था. तब आकाशवाणी की प्लेलिस्ट का यह सबसे लोकप्रिय गीत था. यह मार्मिक विदाई गीत लोगों द्वारा खूब सुना जाता था. न जाने कितनी पहाड़ की बेटियां इस गीत को याद कर अपनी शादी में रुआंसी हो जाया करती. न जाने कितनी ब्योलियों के इजा-बाबू इस गीत को सुनकर अपनी बेटी की हो चुकी या होने वाली विदाई की याद या कल्पना कर रो दिया करते थे.
इस गीत में दुल्हन को बताया जाता है कि विदाई के मौके पर उदास मत हो, सास-ससुर ही माँ-बाप की तरह होंगे अब. यह भी कि पिता और भाई मिलने आएंगे और भिटौली भी लायेंगे. जो भी मांगोगी वह लेते आएंगे और तीज-त्यौहारों में तुम्हें बुलाएँगे. अपने माता-पिता का मान रखना. अब तेरे हाथ में दो घरों की लाज है.
ये उस दौर का गीत है जब परिवहन के साधन सीमित हुआ करते थे. तब विदाई के समय पैदल रास्तों से डोली पर बैठाकर विदा कर ससुराल लाया जाता था. तब तीज त्यौहारों और भिटौली के मौके पर ही ब्याहता को उसके मायके की कुशल भी मिल पाती थी, या फिर न के बराबर आने वाली चिट्ठी-पत्री के माध्यम से.
वक़्त बदला और वक़्त के साथ हम भी. हम भी ‘बाट लागी बरयात…’ छोड़कर बाबुल की दुआएं लेती जा… वाले हो गए. पिछले कई सालों से उत्तराखण्ड का लोक संगीत कानफोडू होता गया. लहंगा, बाज़ार, मधुलि, परुली, रम, बोतल वाले फूहड़ बोलों को पारंपरिक वाद्यों से छौंककर उन्मादी किस्म के गीत तैयार हुए. ये सभी गीत बारात, टैक्सियों और डीजे के लिए तैयार हुए. थोड़ा कर्णप्रियता बची न रह जाए इसके लिए ऑटोट्यून से कसर पूरी कर दी जाती है. ख़ास तौर से कुमाऊनी में तो ‘मेघा आ’ फिल्म के बाद शायद ही कोई कानों और रूह को सुकून पहुँचाने वाला भावप्रवण गीत रचा गया हो.
एक समय में हिंदी सिनेमा के जाने-माने संगीतकार सलिल चौधरी मोहन उप्रेती से अपनी फिल्म मधुमती के लिए दो धुनें लेकर गए और उन्हें इस्तेमाल कर कालजयी गाने तैयार भी किये. आज हम हिंदी फ़िल्मी गीतों के मोह में अपनी मजबूत संगीत विरासत को कहीं पीछे छोड़ आये हैं.
गौरतलब है कि उत्तराखंड की वरिष्ठ लोकगायिका बीना तिवारी ने ही सबसे पहले आकाशवाणी के लिए ‘छाना बिलौरी’ गीत भी गाया था. बीना तिवारी ने ओ परुआ बौज्यू, चपल के ल्याछा यस, पारा भीड़ा बुरुँशी फूली छ, झन दिया बोज्यू छाना बिलोरी, लागला बिलोरीक घामा ,आ लिलि बाकरी, लिलि तू – तू, बाट लागि बर्यात् चैली, बैठ डोली मा जैसे दर्जनों गीतों को अपनी मधुर आवाज से सजाया. बीना तिवारी का जन्म लखनऊ में ही 11 जनवरी 1949 को हुआ. उनकी माँ का नाम मोहनी तिवारी है और पिता का नाम कृष्णचंद तिवारी. उन्होंने लखनऊ के भातखण्डे संगीत विद्यालय से गायन में संगीत निपुण की उपाधि ली.
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गीत आपने सुना होगा आज जानिये कहाँ है घाम वाला असल छाना बिलौरी
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