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जब पहाड़ों में मां रोते हुए बच्चे से कहती थी चुप जा नहीं तो ‘हुणियां’ आ जायेगा

छुटपन में बच्चे जब किसी चीज के लिए जिद करते तो डराया जाता – चुप जा, नहीं तो ‘हुणियां’ आ जायेगा. आज की पीढ़ी भले ही हुणियों और उनके खौफ से वाकिफ न हों, लेकिन 60-70 साल पूर्व तक हुणियों का पहाड़ के गांवों में विशेष रूप से जाड़ों के दिनों में आवागमन आम बात थी. उनका हुलिया ही कुछ इस तरह का होता कि बच्चे तो क्या बड़े भी उनसे खौफजदा रहते. कहा जाता था कि ये इन्सान को भी जिन्दा खा जाते हैं. यह हकीकत थी या कपोल कल्पना, लेकिन उनके देखते ही बच्चे तो भयभीत हो ही जाया करते थे. Tibetans in Uttarakhand

बचपन की जो धुंधली याद उनके हुलिये की शेष बची है, वो कुछ इस तरह के होते थे-बड़ा सा चपटा मुंह, चपटी नाक, लटकी हुई भौंहें, आंख के नीचे लटकती झुर्रियां, सपाट दाड़ी केवल ठुड्डी व मूछों पर गिने-चुने लम्बे लम्बे भूरे से बाल, बड़े से लटकते कानों में हाथी दांत अथवा अन्य किसी चीज से बने भारी भरकम कुण्डल, सिर पर लम्बे बालों के साथ लटकती पौनी, सचमुच डरा देने के लिए काफी थी. वेषभूषा भी विचित्र होती – सिर में ऊनी टोपा, लटकता मफलरनुमा ऊनी वस्त्र, गले में बड़े बड़े दानों वाली रंगबिरंगी लटकती माला, ऊन से ही बना गाउननुमा लबादा और अधोवस्त्र इस तरह का होता, जिसमें ऊन से बने जूते भी अधोवस्त्र के अभिन्न भाग होते. Tibetans in Uttarakhand

दोनों कन्धों व पीठ पर लटकते झोलेनुमा थैलों के बारे में हमें डराया जाता कि इसमें वो बच्चों को डालकर ले जाते हैं. दरअसल इन झोलों में भरी होती हिमालयी क्षेत्र की दुर्लभ जड़ी-बूटियां, हींग, गन्द्रेणी और जम्बू. हिमालय क्षेत्र में सर्दियां शुरू होते ही ये उत्तराखण्ड की ओर अपने उत्पादों के साथ रूख करते और गांव-गांव घूमकर अपने उत्पादों को बेचा करते. इनका न तो हमसे पहनावा मेल खाता और न भाषा समझ में आती. केवल सांकेतिक भाषा में ही इनके साथ सौदेबाजी तय होती. दरअसल ये लोग सर्दियों में तिब्बत से आते और गर्मी का सीजन शुरू होते अपने देश को लौट जाते. 1962 के भारत-चीन युद्ध तक इनकी मुक्त आवाजाही बरकरार रही. 1962 के बाद सीमा में तनाव के चलते आवाजाही पर प्रतिबन्ध लगने से जो यहां थे, वे यहीं के होकर रह गये और जहां रहे वहीं की संस्कृति व सामाजिक परिवेश में रच बस गये.

हुणिये अथवा लामा नाम से मशहूर संभवतः हूण वंश के होने के कारण हुणिये कहलाये होंगे. हूण वंश का यों इतिहास काफी पुराना है, जिनका मूल स्थान वोल्गा के पूर्व में बताया जाता है. सन् 370 में ये यूरोप पहुंचे और वहां विशाल हूण साम्राज्य स्थापित किया. कुछ लोगों का मानना है कि हूण चीन के पास रहने वाली एक जाति थी. इन्हें चीनी लोग ’ह्यून यू’ अथवा ’हून यू’ कहते थे. कुछ लोग इन्हें मंगोल के इर्द-गिर्द पाते हैं. बहरहाल इतिहास कुछ भी रहा हो लेकिन ये खानाबदोश लोग अपनी बर्बरता के लिए कुख्यात थे.     

आज भी लामा लोग बहुतायत से हिन्दुस्तान में यत्र-तत्र पाये जाते हैं. आज भी व्यापार ही इनका मुख्य धन्धा है. यह उन्हीं हुणियों का भारतीय परिष्कृत रूप है. जो पूर्णतः यहाॅ के रहन-सहन, भाषा एवं संस्कृति में ढल चुके हैं. ज्यादातर लामा बौद्ध धर्म को मानते हैं,लेकिन कुछ रिवाज इनके आज भी रहस्य ही बने हुए हैं कि परिवार में किसी की मौत होने पर ये उसे जलाते हैं अथवा दफनाते है, इस बारे में स्पष्ट जानकारी का अभाव है. क्योंकि किसी लामा की शव यात्रा जाती दिखाई नहीं देती.

भुवन चन्द्र पन्त

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भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रसारित हो चुकी हैं

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