मानसरोवर के निचले भागों में सरिता रूप लेने के क्रम में बांसबगड़, बिरथी, मुनस्यारी, नाचनी, हुबुली, बाघी क्विटी, झिनियां व बंजाणी की छोटी गाड़ें व नाले आकर मिलते हैं रामगंगा में. पुगाराऊं के स्योली, लोहाथल, तुसरेड़ा, सेरा, चौसाला, कोटगाड़ी से प्रवाहित जल धाराएं बरड़ रामगंगा में विलीन होती हैं जो और आगे कोसों दूर रामेश्वर के पास रामगंगा के रूप में, बागेश्वर से आई सरयू में मिल जाती है. बड़ायूं और पुंगराऊं पट्टी का प्राचीन तीर्थस्थल है और मुक्ति थाम है थल.
रामगंगा की गोद में कालीनाग, पिंगलनाग, धौलीनाग आदि नागराजों की उपत्यका में बसा है थल. इसे वानर राज बाली कि तपस्थली भी कहा जाता है. परिज्रावक व तीर्थयात्री पहले लोहाघाट, जागेश्वर, पाताल भुवनेश्वर होते कैलाश यात्रा के क्रम में थल पहुचंते थे जहां बालेश्वर मंदिर थल उनका पड़ाव होता था. थल से आगे जौलजीबी, व्यांस चौदांस घाटियों की बीहड़ दुरुह पद यात्रा से परिक्रमा संपन्न होती.
थल के पूर्व में नाचनी, बांसबगड़, तेजम, मिरथी, पश्चिम में मुवानी, कौलपानी, उत्तर में पुंगराऊं पट्टी तथा बड़ायू पट्टी के अनगिनत गांव तो दक्षिण में डीडीहाट, धौर पट्टा स्थित है. थल एक बीचों बीच रामगंगा प्रवाहित होती है. जिसके एक किनारे में प्राचीन मंदिर और पीपल का वृक्ष है तो दूसरे सिरे में पुंगराऊं पट्टी की एक बड़ी गाड़. मध्य में बने पुराने लोहे के पुल से रामगंगा को पार किया जाता है. दूसरे सिरे पर पुंगराऊं पट्टी की एक बड़ी गाड़ रामगंगा नदी में मिलती है. इसे बरड़ रामगंगा संगम कहा जाता है. रामगंगा में गंगाजी का सातवां अंश निहित माना गया है. मानस खंड में भी रामगंगा का उल्लेख है. मध्यकालीन मुग़ल इतिहासकार निमामुद्दीन ने तारीख़-ए-इमामशाही नदी में रामगंगा को रहब कहा है. पहले रथवहिनी और सुबामा नाम से भी इसे जाना गया.
ऐतिहासिक परिपेक्ष्य में काली कुमाऊं के अंतर्गत मांडलिक राज्य रहा सीरा जिसने डीडीहाट और निकट क्षेत्रों के साथ थल भी संबंधित था. पंडित बद्रीदत्त पांडे ने कुमाऊं के इतिहास में थल के राजा सूर सिंह महर का उल्लेख किया है. समय-समय पर सीरा के राजाओं द्वारा ही इसका प्रबंध किया गया जो कत्यूरी के अधीन था. कत्यूरी राजा सूर्यवंशी थे. जिन्होंने कई स्थलों पर सूर्य मंदिर बनाये. थल के समीप भी सूर्य की प्रतिमा पाई गयी है. ब्रह्मदेव नामक कत्यूरी राजा के काल में एक हथिया शिल्पकार का उल्लेख है जिसके द्वारा थल के बलितर गांव में एक देवाल एक ही शिला को तराश कर निर्मित हुआ है.
वत्यूली (थल) में मिले ताम्र पत्र के अनुसार इस क्षेत्र में मल्ल राजाओं का काल सन 1353 ई. बताया गया है. इसमें श्रीमहाराजाधिराज राई तरांमृगांक के पौत्र राईप्रताप नारायण के पुत्र निरेपाल (निर्णयपाल) का उल्लेख है. यहीं मिले एक अन्य ताम्रपत्र में महाराजाधिराज बलिनारायण 1442 का उल्लेख मिलता है. जेटी शासकों को पराजित कर बसेड़ा वंश ने सीरा पर अधिकार किया तथा तीन पीढ़ियों तक राज किया. इसके तीन राजा डुंगरा बसेड़ा, मदन सिंह बसेड़ा और राय सिंह बसेड़ा रहे. राय सिंह बसेड़ा को सोमा मल्ल ने पुनः पराजित कर सीरा पर अधिकार कर लिया. जिसका पुत्र हरिमल सीरा अंतिम डोटी शासक रहा. 1437 में भारती चन्द्र के द्वारा डोटी पर हमला कर डोटी के कुछ भाग के साथ सीरा, जुमला, बजांग और थल के क्षेत्र को जीत लेने का उल्लेख है. रुद्रचंद ने हीरामल्ल को हराकर सीरा पर विजय प्राप्त की थी.
रुद्रचंद की तीन-चार पीढ़ियों के बाद बाजबहादुर चंद का पुत्र उद्योतचंद राजा बना. 1886 में उद्योत चंद में आषाण महिने में बालेश्वर महादेव मंदिर का जीर्णोद्धार कराया. मंदिर का नाम बालेश्वर पढ़ने की दो धारणायें हैं पहली जनश्रुति यह है कि यहां वानर राज बलि ने शिव की तपस्या की और शिवलिंग स्थापित किया. दूसरी के अनुसार यहां शिव का बालरूप (बाल+ईश्वर) विद्यमान है. अंततः नाम बालेश्वर पड़ा.
बालेश्वर मंदिर से रामगंगा के घाट तक जाने की 55 सीढ़ियां हैं. मुख्य मंदिर परिसर में चार मुख्य और मध्यकाल में बने पुराने मंदिर हैं. इनमें महादेव मंदिर प्रधान है जिसमें मंडप से ऊपर शिखर से लगी शेर की पत्थर की मूर्ति है. मंडप में प्रवेश के लिये दो द्वार हैं. मंदिर की दीवारों से जुड़ी देवी की विविधरूपी मूर्तियां हैं तो द्वार पर पत्थर से निर्मित भैरव की मूर्ति. गर्भ ग्रह में शिवलिंग के साथ शक्ति स्थापित है. मंदिर के बाहर लगभग एक मीटर ऊंची द्वारपाल की मूर्ति है. महादेव मंदिर के सामने ही पार्वती मंदिर है. जिसके द्वार के शीर्ष पत्थर पर गणेश जी की मूर्ति उत्कीर्ण है. मंदिर की छत कलात्मक रूप से तराशे पांच पत्थरों से निर्मित है. चारों कोनों में पत्थरों को एक ओर कल्पपुष्प से और दूसरी ओर नागों से उकेरा गया है. समीप में कुछ छोटा हनुमान मंदिर है. जिसमें काले पत्थर से बनी मूर्ति स्थापित है. इसके द्वार के नीचले पत्थर पर दोनों सिरों पर मगरमच्छ में सवार और हाथ में कलश लिये गंगा का चित्र खुदा है. यह सभी तीर्थ नागर शैली से बने हैं. मुख्य मंदिर समूह में वर्तमान में निर्मित भैरव मंदिर और संतोषी माता का मंदिर है.
बालेश्वर मंदिर से एक किमी की दूरी पर बल्तिर और सत्याल गांव के बीच एक बड़ी शिला को काट कर बना ‘एक हथिया देवाल’ है.इसके तल छंद में एक गर्भग्रह और मंडप स्थापित है. पुर्वाभिमुख गर्भगृह में शिवलिंग है एक हथिया देवाल में शिला को पूरी तरह न काटकर आधा ही काटा गया है और आधी शिला को तराश कर बनाया गया है. मंदिर में शिखर व मंडप हैं. यहां शिवलिंग के चारों और जो अर्ध बना है वह अन्य शिवलिंगों की विपरीत दिशा में है. लोक विश्वास से ऐसे में अनिष्ट के भय से इसमें पूजा अर्चना संपन्न नहीं होती.
थल से लगभग दस किमी की चढ़ाई पर कत्यूरी शासन काल में आदित्य गांव का सूर्य मंदिर है. आदित्य गांव को बोल-चाल में मोण कहा जाता है. जनश्रुति है कि इसे पांडवों द्वारा अज्ञातवास अवधि में एक रात में बनाया गया. मुख्य मंदिर के समीप पांच अन्य मंदिर छोटे और आधे-अधूरे निर्मित हैं जिन्हें बाद में कत्यूरी शासकों ने पूरा कराया. इनेमं सूर्य मंदिर मुख्य और सबसे बड़ा है. जिसके भीतर सात अश्वों के रथ (सप्ताशव रथ) पर सवार भगवान सूर्य की एक बालिश्त बड़ी मूर्ति है. यह काले पत्थर पर बनी है. जिसके एक छोर पर गणेश तो दूसरे पर विष्णु भगवान की मूर्ति है. पास ही शिव पार्वती की नंदी पर सवार प्रतिमा, महिषासुर वध करती देवी का महाबली मंदिर, भगवान विष्णु की मूर्ति वाला सत्यदेव मंदिर, सरस्वती मंदिर, छोटे से द्वार लक्ष्मी मंदिर और हाल ही में बना भैरव मंदिर है.
इन मंदिरों के दाईं तरफ नौले के पास कलात्मक रूप से पत्थरों की चिनाई वाला देवी मंदिर है. जिसमें गणेशजी की नवीन शैली में बनी मूर्ति भी स्थापित है. इस उपत्यका के शिखर में नंदादेवी की संतान माने गये मूलनारायण का मंदिर है. इतनी ऊंचाई के बावजूद यहां एक लम्बी सुरंग के द्वार में जल स्त्रोत है. किवदंती है कि इस सुरंग का निकास काशी में है. जनश्रुति के अनुसार मूलनारायण के दो सुपुत्र हुए. एक नौलिंग और दूसरे बजैण. जो आपस में प्रतिद्वंदिता रखते थे. इससे कुपित हो मूलनारायण ने एक दिन अपने दोनों हाथों में उठा दोनों पुत्रों को पर्वत श्रृखंला के दो छोरों में उछाल दिया. जिनमें से एक सनगाड़ व दूसरा भनार में जा गिरा. दोनों छोरों कि दूरी मूलनारायण मंदिर के शिखर से लगभग बराबर है. सनगाड़ के नौलिंग मंदिर में एक सरोवर और छोटी सी धर्मशाला है. जहां क्वार मास में मेला लगता है और सामूहिक पूजा होती है दूसरी और भनार के मंदिर में गर्म पानी का एक नौला है. यहां धर्मशाला भी है.
थल की लोकथात में मुख्य त्यौहारों के साथ स्थानीय त्यारों की हुमक है. जैसे घी त्यार के दिन घी का सेवन. दुतिया में धान को भीगा-सूखा-भून-कूट कर बने च्यूडे का सेवन करते हैं और बल्दों के सींगों व खुरों में खूब तेल चुपड़ सिरों में रंगीन ‘फुन’ बांधते हैं. ‘घुघुतिया’ में गुड़ आटे के तेल में पके घुघुत, ढाल-तलवार, पुलैंड़ी, खजूर, मस्यूड़ के बड़े, छोटी नारंगी से लदी माला गले में लटका सुबह-सुबह बच्चे ‘काले-काले घुघूता खाले, ले कौव्वा पुलैंड़ी मेंकैन दिये… भल भल धुलेंणी’ कह कव्वों का आमंत्रण करते हैं. सातों-आठौं शिव पार्वती की लीला है गौरा रुष्ट होकर मायके आती है बस दहेज़ में सोना मांगती है. ‘ दी हालो बौजिया सुनू दियो दाज, लिजाओ गुस्यांण सुनू दियो दाज.’ इसी तरह गोधन को भर-पेट घास खिलाने का त्यार खतुड़वे का चलन भी जिसमें सांझ ढले प्रतीक रूप में तमचे नाच हेतु खतड़वा जलाते हैं, भांग की फुनगियों पर फूल बांध अग्नि में डालते हैं, ककड़ियां काट बंटती हैं और आग को फलांगा जाता है कि साल भर ठण्ड का प्रकोप न रहे. भिटौली पर चैत में ब्याहता चेली या बैंणी से भेंटने जाना और हलवा पूरी मिठाई स्ये देना उसे भेंट देना अनिवार्य है. हरेले में सात अनाजों की अंकुरित पातें जो ठ्या (पूजाघर) में ही उगती हैं काटकर तेल चुपड़ी दूब से बदन में छुआ कपाल मस्तक में रखी जाती है. इस दिन बैलों को भर-पेट घास खिलाते हैं और उसके कंधे पर जुआ नहीं रखा जाता. खेती के कामकाजों में गुडाई करते गुडौल संपन्न करते हुड़की बौल सामूहिक उत्साह का संचार करता हैं जिसमें हुड़के की थाप में मध्यस्थ गाना बजाता हैं और गुड़ाई करती मातृशक्ति उसे दोहराती पहाड़ के सेरों व सीढ़ीदार खेतों में अंकुरण हेतु धरती तैयार करती हैं.
पूस से चैत तक बालेश्वर मंदिर में रामगंगा घाट पर मेलों की रंग तरंग रचती बसती है. खड़ी होली के गान गूंजते हैं. शिवरात्रि और ठुल थल के मेलों में यहां की परम्परागत पोशाकों खान-पान रीति-रिवाजों की बानगी दिखती हैं. पंडित बद्रीदत्त पांडे के अनुसार पहले ठुल थल का मेला चैत पूर्णिमा को लगता था फिर इसका आयोजन विषुवत संक्रांति को किया जाने लगा. मेले में स्थानीय उत्पाद जैसे दानपुर से निंगालू और बांस की चटाईयां, डोक्के ब्यान, पुरोलिया, विमार, डालियां, सुप्पे शौका व रंडग जनजातियों द्वारा बने दन, पंखी, चुटके, थुलमों के साथ नेपाली शिलाजतु, कूट कूटकी, गंधरैण, जम्बू व ना ना भेषज, खम्पाओं के पिटारे जिनमें मोती से लेकर भोटिया मूंगा व विविध मालायें रहती हैं. पुंगराऊं के बने रामबांस से बने रेशे, जानवर बांधने की मजबूत रस्सी, भांग के टिकाऊ डोरों के साथ समीपवर्ती आगरियों के लोहे से बने बर्तनों दराती, कुटले व अन्य खेती के उपकरणों की शिल्पकला देखने को मिलती है. बागेश्वर से आई तांबे की गगरी के तो कहने ही क्या. साथ में गदबदे पर चुस्त दन पुरिये कुकुर पिल्ले. समीपवर्ती मुवानी के केले तो प्रसिद्ध हैं ही साथ ही मेले में बनी लाल जलेबी और नदी की छोटी मध्यम मछलियों वाला माछ भात तो आज भी खूब सपोड़-सपोड़ कर खाया जाता है.
लोकथात में बाड़ भगनौल यहां की परम्परागत विद्या रही. जिसमें बीती स्मृतियों को जोड़ों की तरह गाया जाता है. एक के द्वारा कही बात को उपालम्भ- व्यंग हास-परिहास की चासनी में लपेट उसका जवाब दिया जाता है. अब चांचरी ज्यादा प्रचलित है. जिसमें एक तरफ मैंस और दूसरी ओर सैंणियां गोल घेरे में थिरकते सधी पदचाप से नाचते हैं. बीच में हुडकिया होता है और साथ होता है बार करने वाला जो अब क्या गाना है का जोड़ समूह को देता है. यह समूह गानों की समृद्ध परम्परा रही है. जिसमें घटयाली जागर, जाग्ग, मालूशाही, हुड़की बौल, चांचरी व झोड़ा विशेष हैं. घटयाली स्थानीय देवताओं और वीर पुरुषों का स्तुति ज्ञान है. जिसमें किसी व्यक्ति के शरीर में देवताओं का कम्प होता है. असत आह्वान से पूछ भी होती है. घटयाली के बौलों में ‘बाबा द्विभाई रमौला रूनी सिनदुनी सागर…बाबा द्विदिनी साsगर रूनी द्वि दिन भाबर ssरss’ अद्भुत कम्प करता हैं. घटेलिये के दो तीन सहायकों को भाग लगाने वाले भागर कहते हैं जो एक बार घटेलिया के गाने बाद हाssआss की तान मन्द से तीव्र सप्तक में ले जाते हैं.
दूसरी और जागर संपन्न होता है जिसमें प्रायः अर्जुन की गाथा का समावेश है. उसका जाल में फसाना और उसके द्वारा जाल काटना दोनों शीर्ष बिंदु हैं. कांसे की थाली, हुड़के की तालों के आरोह-अवरोह के साथ ढोल नगाड़े की डमाडम के बीच किसी संवेदनशील शरीर पर औतार भी प्रकट होता है. जाग्ग में सामान्यतः गंगनाथ की गाथा का भखान होता है. जिसके साथ भाना बामणी के नृत्य का संपुट होता है. ‘महुआक ब्यान जै नाथ… पाणि मै बै उपण में उछे , आज मानैकी फाम ओ जै नाथ sss’ के स्वर तरंगित होते हैं. घटयाली की तरह ही मालूशाही में राजुला सौक्याणी व मालूशाही के राग-विरह-मिलन का काव्य छुपा है जो जाति धर्म से परे हैं अन-छुआ उद्दात एक-दुसरे के प्रति समर्पण का प्रतीक.
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