पुराने जमाने में हमारे दादा-दादी (लला-त्यित्यि) व माता-पिताजी कहानियां सुनाया करते थे. ये कहानियां काल्पनिक न होकर सच्ची घटनाओं पर आधारित हुआ करती थीं जिसे सुनकर श्रोतागण दांतों तले ऊंगली दबाने को मजबूर हो जाया करते थे. वैसे तो ग्यारवीं-बारहवीं शताब्दी की सच्ची कहानियां भी हैं लेकिन पुराने जमाने की अधिकांश किस्से कहानियां वक्त के थपेड़ों की वजह से धुंधली हो चुकी हैं और वो कहानियां भी सत्यता से हटकर अजीब मोड़ ले चुकी होती हैं. काफी पुराने जमाने की कहानियां न लिखकर उन्नीसवीं सदी की सत्य घटनाओं पर आधारित वीर रस से परिपूर्ण कुछ रौकली पहलवानों के रोचक किस्सों को अमटीकर के माध्यम से पाठकगणों तक पहुंचाना चाहता हूं ताकि लोग जान लें कि कभी ऐसे लोग भी हुआ करते थे. ये घटनाएं बहुत ज्यादी पुरानी नहीं है. उन्नीसवीं सदी की घटनाएं हैं. जब तक ये पहलवान जीवित थे, पूरे रं राजू में चर्चित थे. उनके स्वर्गवास के बाद आज भी बुजुर्ग लोग उन पहलवानों के किस्सों को सुनाया करते हैं.
उन्नीसवीं सदी के रंकोंग गांव में बहुत ही बुद्धिमान, दूर-दृष्टि वाला नेक इन्सान रहता था, उसका नाम था ‘छिरन’. उसकी बुद्धिमत्ता को देखकर अंग्रेजों ने उसे मालगुजार नियुक्त किया था परन्तु उसकी अचानक मृत्यु के बाद उसके छोटे भाई धनपाल को मालगुजार नियुक्त किया गया. धनपाल बहुत ही पहलवान होने के साथ-साथ अक्खड़ व अहंकारी था. लोगों को नीचा दिखाने, अपने बल का प्रदर्शन करने, लोगों को परेशान करने में उसे बड़ा आनन्द आता था. उसने अपने भाइयों के लिए तीन मंजिला मकान भी बनवाया था. उस मकान की नीव व दीवारें इतने बड़े पत्थर से बनायी गयी कि उसे देखकर कोई भी यकीन नहीं कर सकता कि किसी इन्सान ने इन पत्थरों को उठाकर रखा होगा. वह अपने मकान के छतों पर स्लेट डालने के लिए गांव से 3-4 किमी दूर धंज्यूं पेयर बुग्यालों से इकट्ठा कर, उन बुग्यालों में नाबी गांव वालों द्वारा छोड़े गये झुप्पु जानवारों के पीठ पर बिना काठी के रस्सी से स्लेट बांधकर गांव तक पहुचाया. शक्ति प्रदर्शन के ऐसे व्यवहार से सभी गांव वाले बहुत डरते थे. लोग धनपाल को ‘पैकू’ अर्थात ‘पहलवान’ के नाम से सम्बोधित किया करते थे. अधिकतर गांव के झगड़ों का निर्णय वह अपनी ताकत के बल पर ही करता था.
दारमा व व्यांस वाले नेपाल क्षेत्र के डुंग और लंगम नामक जगह से व्यापार हेतु आते-जाते थे, जहां भेड़-बकरियों पर नमक का करखा लादकर ले जाते तथा उसके बदले में अनाज ले आते थे. इस तहर सभी लोग अपनी जीविका भी चलाते थे. एक बार व्यापार हेतु धनपाल पहलवान अपने कुछ साथियों के साथ बकरियां लेकर नेपाल गया तो धारचूला से जाते समय नेपाल के गांव पहुंचने से पहले एक 2-3 किमी की खड़ी चढ़ाई चढ़ते समय धनपाल पहलवान को अत्यधिक प्यास लग गई. उस जगह पानी का स्रोत न होने की वजह से आगे किसी हुंती नामक गांव जा पहुंचा. जैसे ही गांव पहुंच, वह पानी की तलाश में किसी के घर जा पहुंचा. उस घर के पास पहुंचकर अहंकार से गरजते हुए पूछा-इस मकान मेंकोई रहता है क्या? इस तरह की ऊंची आवाज से चिल्लाने की आवाज सुनकर उस मकान मालिक न सोचा कि शायद कोई पहलवान ही होगा जो कि इतना अकड़कर पूछ रहा है. उस घर का मालिक भी हूंती गांव का एक नामी पहलवान था. बाहर आकर देखा तो एक हृष्ठ-पुष्ठ, लम्बा-चैड़ा, बड़ी-बड़ी मूंछों वाला पहलवान सा व्यक्ति खड़ा है. धनपाल पहलवान ने उसे देखते ही पूछा कि मुझे प्यास लगी है, पानी पिला सकते हो? धनपाल पहलवान के बात करने के ढंग से उसे समझते देर नहीं लगी. उसे भी एक शरारत सूझी, अन्दर जाकर करीब 30-40 किलो भारी पानी का घड़ा (फूंली) उठा लाया और कहा ‘‘लो पियो अब’’ (हां धन तुंड).
धनपाल पहलवान भी उस हूंती के पहलवान की शरारत को समझ गया कि यह मेरी परीक्षा लेना चाहता है. उसने आव देखा न ताव, फूंली के गरदन को पकड़कर प्यास बुझने तक पीता रहा और धन्यवाद देते हुए फूंली को जमीन पर रखकर उसके सहारे जैसे ही खड़ा हुआ फूंली पिचककर जमीन में मिल गया और बचा हुआ पानी बाहर फैल गया. उस पहलवान ने मन नही मन धनपाल पहलवान के बल की सराहना की. इस तरह हुती गांव से धनपाल पहलवान की चर्चा आग की तरह फैल गयी, उसे देखने के लिये कई गांवों के लोग आते-जाते रहे.
लोग बताते थे कि धनपाल पहलवान के पैर के आकार का जूता भी नहीं मिलता था. उसके पैर का आकार 18 इंच लम्बा था जिसके लिए अगल से नाप लेकर जूते तैयार किये जाते थे. सम्पूर्ण रं क्षेत्र, तिब्बत-नेपाल से धनपाल पहलवान की दादागिरी के किस्से हमेशा चर्चा में रहे. दादागिरी इन्सानों के साथ ही नहीं थी, राक्षसों (भूतों) के साथ भी उसकी दादागिरी चर्चा में थी.
एक बार की बात है एक घाट जिसे लोग ‘बूगल की मशानी घाट’ कहते हैं, गांव वाले मृतक का दाह संस्कार उस घाट में ही किया करते थे. जिस दिन कोई दाह-संस्कार नहीं होता था, घाट का राक्षस किसी भी इन्सान या जानवर को उठा ले जाता था. नेपाल जाने वाला रास्ता उसी घाट से होता हुआ जाता था. घाट में अच्छी हरियाली होने के बावजूद भी भेड़-बकरी वाले भूत के डर से वहां पड़ाव डाले बिना आगे निकल जाते थे. उस दौरान धनपाल पहलवान व उनके अन्य साथीगण भेड़-बकरियों को लेकर नेपाल में नमक का व्यापार करने जा रहे थे. जब उसी रास्ते से होकर आगे बढ़ रहे थे तो धनपाल पहलवान ने उस जगह की हरियाली को देखकर अपने साथियों को उस दिन वहीं पर पड़ाव डालने को कहा तो साथियों ने मशानी घाट के किस्सों को सुनाकर पड़ाव डालने से मना कर दिया. धनपाल पहलवान ने मन ही मन मुस्कराकर अपने अहंकार में आकर उस राक्षस से निपटने हेतु अपने साथियों का पड़ाव डालने पर विवश कर दिया. वह जो भी कहता, पत्थर की लकीर होती थी.
अंततः पड़ाव डाला गया. फिर सुबह का भोजन कर जानवरों को चरागाहों पर छोड़ा गया. अपने साथियों को लकड़ियां इकट्ठा करने के आदेश देकर उसने विश्राम किया. सूर्यास्त के बाद भेड-बकरियां को सुरक्षित स्थान पर रखकर सभी ने भोजन ग्रहण किया. धनपाल पहलवान के सभी साथी डर के मारे बिस्तर में सो गये, पर कहां से नींद आती. धनपाल पहलवान ने लकड़ियों को इकट्ठा कर उस पर बहुत बड़ी आग लगाई. आग की लपटें बढ़ती जा रही थी. धनपाल पहलवान कुछ डण्डों व पत्थरों को अपने बिस्तर के सिरहाने पर रखकर राक्षस के इन्तजार में लेट गया. आखिर मध्यरात्रि मे बड़े-बड़े दांतों वाला, भयानक आकार वाला राक्षस आया और आग के सामने बैठकर फूंक मारने लगा. इतने में धनपाल पहलवान जागा और उठकर जोर-जोर से चिल्लाकर हुंकार भरता हुआ उसकी तरफ लाठी डण्डों व पत्थर के शिलाओं से प्रहार करता रहा. उन प्रहारों से चोट खाकर चिल्लाता हुआ राक्षस वहां से भाग गया और धनपाल पहलवान उसका पीछा करता हुआ बोला ‘‘तुम जानते हो मैं कौन हूं, मैं धनपाल रौंकली पहलवान हूं.’’ उस घटना के बाद बताते हैं कि उस राक्षस का आतंक कम हो गया. उसके बाद से जब भी किसी व्यक्ति पर ऐसी मुसीबत आती थी और वह व्यक्ति अपने आपको धनपाल रौंकली पहलवान का रिश्तेदार बताता और वह राक्षस उसको नहीं छेड़ता. कई सालों तक लोग वहां आते-जाते समय धनपाल रौंकली पहलवान का आदमी बताकर भयमुक्त होकर चलते रहे, बेखौफ होकर पड़ाव डालकर भेड़-बकरी को चरागाहों पर छोड़ते रहे. तभी से यह कहावत भी प्रचलित हुई कि राक्षस भी पहलवान से डरता है. इस तरह धनपाल पहलवान की दादागिरी 1930-35 तक चलती रही. अन्त में , उसका युग खत्म हो गया. उसके बाल-बच्चे तो नहीं थे पर उनके भाइयों के वंशज आज भी जीवित हैं.
मंगल सिंह रौंकली द्वारा लिखा यह लेख अमटीकर 2010 से साभार लिया गया है.
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