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मुनस्यारी के किस्से

मुनस्यारी के किस्से

लवराज टोलिया

मुनस्यारी बड़ा छोटा सा शहर है साहब, इतना छोटा कि आज भी बच्चे-बूढ़े लहराते हुए 15 मिनट में शहर की छोटी-मोटी रैकी या तफरी सी काट आते है, वो अलग बात है कि मुझ जैसे “देशी तुम हुए नही, पहाड़ी तुम रहे नही ” छाप प्रजातियों का शिशु मंदिर से चौराहे तक की खड़ी चढ़ाई नापने में ही चार-छः बार फेफड़े हाथ मे आते हुए देखा जाना कोई खास बात नही है. मेरे जानकार, पेशे से निठल्ले और तबियत से डॉक्टर दोस्त अक्सर मेरी सिगरेट पीने की लत को मेरे घटते स्टेमिना की वजह बताते आये है. मैं बरहराल हमेशा अपने तथाकथित डाक्टर मित्रों का धारणा “बदली हुई हवा पानी और कुर्सी तोड़ नौकरी” से झुठला देता हूँ . सिगरेट के शरीर पर पढ़ने वाले कुप्रभाव को मैं नकारता नही हूँ बस एक सच्चे तलबी की तरह सिगरेट के अलावा भी स्टेमिना घटाने वाली अन्य संभावानाओं को झुठला नहीं पाता और ऐसा भी नही है कि मेरे तर्क का वास्तविकता से कोई सम्बंध ना हो, गाँव के उड़्यार, बंजर-खेत और खंडहर घर गवाह है कि सिगरेट की दरिद्र बहन बीड़ी से मेरा और मेरे तथाकथित डाक्टर मित्रों का बड़ा पुराना याराना रहा है और 90 के दशक में इन सभी ऐतिहासिक स्थलों ने हमें धुँए के गोल-गोल छल्ले बनाने की ब्रह्म विद्या में पारंगत किया हालाँकि बड़ों के मतलब के इस शौक ने तब कभी हमारी शारीरिक चपलता पर कोई दुष्प्रभाव डाला हो ऐसा मुझे नहीं लगता. दुकानों से सोया के पैकेट, झीलों से ककड़ी, तड़ी पार कर के हमारे खड़ी चढाइयों में उसेन बोल्ट हो जाने के किस्से आज भी गाँव के चचा लोग कैरम खेलते हुऐ बड़े चाव से सुनाते हैं.

इधर पिछले कुछ सालों से मुनस्यारी बड़ा बोझिल सा शहर हो गया है, वजह शायद यह है कि शहरी मापदण्डों के अनुसार बच्चों के अभिभावक अब जरा जागरूक हो गये हैं और अपने पाल्यो को हिंदी और अंग्रेजी में टयाम टुम करवाने की उनकी हसरत का नतीजा ये होता है कि कुल जमा कक्षा एक पास करते-करते ये जागरूक अभिभावक हल्द्वानी, रुद्रपुर या देहरादून में डेरा जमा लेते हैं. 90 के दशक में पहाड़ की बहुत सी समस्यायें रही होंगी पर बच्चों की घटती जनसंख्या उनमें से एक नहीं थी ऐसा मेरा पूरा विश्वास है, उल्टा साथी इतने अधिक थे कि कई बार बमुश्किल घात लगा लगा के घुटने छिलवा के हरण किये गये मुर्गों की बस तरी भर देखने को मिलती थी. एक बार बल्लेबाजी करने के लिये उन दिनों छः-छः पारियों तक की गयी फील्डिंग और बल्ले को पाने के लिये किये गये मुक्का लात ने बढ़ती जनसंख्या के दुष्प्रभाव पर मेरे कान्सेप्ट कम उम्र में ही क्लियर कर दिये थे.

90 के उस दौर में अंग्रेजी रहन-सहन हमारे लिये मंगल ग्रह था. अंग्रेजी हमारे लिये पूर्ण रूप से बिदेसी भाषा थी. जो कुल मिला कर दो चार शराबियों के श्रीमुख से ही एक आध पव्वा घोड़िया रम अंदर जाने के बाद बरसती थी. उनके द्वारा धुत अवस्था में कहे जाने वाले फलाना धिमकाना इज़ द पिरिनसिप्ल ऑफ़ दि सन जैसे जुमले हमारे लिये पंचाम्रत हुआ करते थे. कुछ जिज्ञासु, ज्ञान के भूखे हमउम्र ये तकिया कलाम अपनी कापी में भी नोट कर लिया करते.

हमारा आचरण और रहन सहन पूर्ण रूप से स्वदेशी था. हमारी पीढ़ी एक आदर्श भ्यास, होकलेट किस्म की पहाड़ी नस्ल थी. हालांकि ऐसा बिल्कुल नही था कि पहाड़ पर उन दिनों हम जैसे पहाड़ी घुघुते ही पाये जाते थे. हमारे अलावा मैदानों में बसी, हमारे चाचा-ताऊ-बुआ-फूफा के कुलदीपकों की भी एक प्रजाति थी. यह प्रजाति हमसे जरा अधिक जेंटलमैन हुआ करती थी. सामान्य रूप से मैदानों में बसने वाली यह नस्ल बिरादरी के काज कामों के मौसम में प्रवासी पक्षियों की तरह गाँव में अवतरित होती.

सात जेबों वाली कार्गो की पैंट पहनने वाले ये चचेरे-ममेरे भाई-बहन हमारे लिये भीषण डाह का विषय हुआ करते थे. हमारी जुबान “टू बन जा टू” करने में लड़खड़ाया करती औऱ हमसे ठीक उलट देश के यह कर्णधार हमारे अभिभावकों को टिंकल-टिंकल-लिटिल-इस्टार सुना के बलायें लेते. इस प्रतिभा प्रदर्शन का हमारे अभिभावकों पर बड़ा ही गहरा प्रभाव पड़ता था. नैसर्गिक रूप से इनके पूरे प्रवास के दौरान सबसे गर्म रोटी इन्हीं की थाली में गिरती थी. मानव स्वभाव के अनुसार इनमें से कुछ बगुले बड़े काइयाँ और टुच्चे किस्म के होते थे. झुठी मार का बहाना बना के डुदाट मार कर रोना उनकी पसन्दीदा हॉंबी हुआ करती थी. हमारा चरम अवस्था तक कूटा जाना ही उनके लिये मोक्ष था. ऐसे काइयाँ चचेरे-ममेरे भाई यदा-कदा आर्गनाइज एक्सीडेंट के तहत बिच्छु घास की झाड़ियों के हवाले किया जाते थे. मौका मिलने पर किये गये ऐसे विद्रोह के किस्से साहब आपको मुनस्यारी में उस दौर में रहा कोई भी लौंडा सुना देगा. यह प्रवास बड़ा घातक हुआ करता था. प्रवासी पंछियो के निकल जाने के बहुत दिनों बाद भी हमारे अभिभावक उनके हैंगओवर में रहते थे. नतीजन वो 19 का पहाड़ा अंग्रेजी में याद कराने की जिद पकड़ लेते. इसका परिणाम हमें अगले कुछ हफ़्तों तक लतियाये जाने के रूप में भुगतना पड़ता था. ‘मेहँदी के छूटने पर रँग दिखाने’ वाली कहावत का सही-सही मतलब मैंने उसी दौर में कभी सीखा.

हमारे भूगोल के लिये वो बड़ा अजीब सा समय था साहब. शेष भारत जब सोनी टीवी में सी.आई.डी देख रहा था हम धूप में रेडियो के सेल सूखा रहे थे. टेलीविजन पाया जरूर जाता था मगर गाँव के इक्के-दुक्के धन्ना सेठो के घरों में. हर किसी के लिये इसे खरीद पाना संभव नही था. इसके अलावा बिजली की आवाजाही भी उन दिनों भगवान भरोसे ही थी. ऐसे में यह कह देना की टेलीविजन सिर्फ मनोरंजन का साधन था जरा सा गलत होगा. लोग दिखावे के लिये भी टेलीविजन खरीदते थे. टेलीविजन को राजा के हाथी की तरह सजाया जाता था. टेलीविजन के कवर घर की औरतें बाकायदा हाथ से डिजाइन करती थी. कवर पर फूल पत्तियां बनी होती. कुछ ज्यादा कलात्मक और माडर्न महिलायें कभी-कभार मोर जैसा दिखने वाला कोई पँछी भी काढ़ देती थी. रंगीन टीवी हमने कभी देखा नहीं था.

अलबत्ता एक घर के भावी वैज्ञानिक ने अपने टेलीविजन की स्क्रीन पर एक लाल रँग की पन्नी जरूर चढ़ा दी थी. जिसके चलते चित्र लाल दिखाई देते थे. आप इस जुगाड़ को एक प्रकार का मोनोक्रोमेटिक कलर टेलीविजन भी समझ सकते है. दुरदर्शन के अलावा कोई और चैनल अधिकतम आबादी ने नही देखा था. जाड़ों की छुट्टियों में हल्द्वानी, रुद्रपुर को निकलने वाले नौनिहाल वापस आने पर जरूर बताते थे कि उधर टेलीविजन पर कुछ अन्य चैनल भी आते है. उनका दावा था कि एक चैनल विशेष पर मूसे-बिलौरे दिन भर कुकरयोल मचाये रखते हैं. टॉम एंड जैरी से मेरा पहला परिचय इसी रूप में हुआ.

खैर दुरदर्शन पर मनोरंजन का ज्यादा स्कोप नही था. हमारे मतलब के पिरोगराम सिर्फ रविवार को आया करते थे . सास-बहू की कटाकाट देखने की हमारी कोई खास इच्छा नहीं रहती थी. महिलाओं की एक टोली जरूर थी जो हर रोज टेलीविजन के सामने चौपाल जमाती थी. चाय पकौड़ो के साथ हर दिन टीवी पर चल रहे डेली सोप पर गम्भीर चर्चा होती थी. किरदारों के चरित्र का पूरा पूरा पोस्टमार्टम किया जाता. शादी ब्याह के सीन आने पर कई बार कुछ महिलाओं चुपचाप सुबकते हुए भी दिख जाती थी. हमारा पूरा समय इस दौरान तफरी काटने में जाता.

रविवार को हालांकि टेलीविजन के लिये हमारा मोह जागता था. उस दिन हम उन साथियों की पूरी चिरौरी करते जिनके घर में शक्तिमान और चंद्रकान्ता का पिरोगराम सेट किया जा सकता था. ऐसे अमीरजादे टाइप के मित्र कई बार हद दर्जे के उज्जड भी हुआ करते थे. हाथापाई के सीन आने पर इस बात की पूरी संभावना होती थी कि इन लौंडों के अंदर नायक की आत्मा आ जाये. ये घर के शेर कभी भी आपको एकाध फ्लाइंग किक लगा सकते थे. सतर्कता ही इन छोटे शक्तिमानों से आपकी सुरक्षा की गारंटी थी.

पिछले कुछ सालों से रोजी रोटी में ऐसा उलझा हुआ हूँ कि तीज त्योहारों, कौतिको के दौरान घर जाना कम ही हो पाता है. यही हाल मेरे हमउम्र मित्रों का भी है. लगभग सब अलग-अलग शहरों में घिस रहे हैं. सबका एक साथ बैठ पाने का संयोग कम ही बन पाता है.

फोटो जयमित्र सिंह बिष्ट

कौतिक खैर अब बेमतलब से भी हो गये है. आखिरी बार 2014 में डाना धार का कौतिक देखा था. लोगों की घटती भीड़ और उल्लास को देखकर निराशा ही हुई. मनोरंजन के विकल्प अब इतने बढ़ गये हैं कि लोगों के लिये कौतिक जरा अप्रासंगिक हो गये हैं. एक समय था जब इन कौतिकों के लिये गजब की दीवानगी हुआ करती थी. बच्चे, बूढ़े, अपने सबसे नये कपड़े इन कौतिकों में पहनने के लिये तह कर के रखते थे. कौतिक के दिन बड़ी भारी भीड़ देखने को मिलती थी. लोग बाकायदा 25, 30 किलोमीटर का भी सफर तय कर के आते थे. बीस रुपये भी उन दिनों जेब-खर्च के लिये बहुत ज्यादा हुआ करते थे. इतने पैसों में आप दबा के जलेबी और अमरूद सूत सकते थे. खाने के बजट में थोड़ी कटौती कर ली जाये तो दस रुपये में एक प्लास्टिक की बन्दूक भी आ जाया करती थी. इन बन्दूकों में प्लास्टिक की शंकुआकार गोलियां जाती थी. हालांकि कुछ काइयाँ किस्म के लौंडे बन्दूक की नलियों में छोटे-छोटे पत्थर भर के भी दागा करते थे. अमूमन इनका निशाना कौतिक में बिकते गुब्बारे हुआ करते थे. इन काइयाँ लौंडो में से कुछ का दुस्साहस यदा-कदा सातवें आसमान पर भी पहुँच जाता. ऐसा होने पर ये बकलोलियों की हद पार करते हुऐ साथियों की खोपड़ी को निशाना बनाना शुरु कर देते. जनहित के लिये इन लौंडों की बराबर घेराबंदी की जाती थी. मौका मिलते ही इनकी बन्दूकों की इहलीला समाप्त कर दी जाती. कौतिकों में कभी-कभार घर आये फौजी रिश्तेदार भी दिख जाया करते थे. उनके चरण छूने में हमें जरा भी हिचकिचाहट नहीं होती थी. ऐसा करने के पीछे उनके प्रति सम्मान से अधिक हमारा निजी स्वार्थ काम किया करता था. कौतिकों में ये रिश्तेदार ओल्ड मोंक का पव्वा मार कर दानवीर कर्ण मोड में घूमा करते थे. हमारे संस्कारों से प्रभावित हो कर ये अकसर हमारे हाथों में बड़े वाले गाँधी जी पकड़ा दिया करते. उनकी चैरिटी से ही कौतिक में गिम अर्जी का पिरोगराम निपटाया जाता था.

फोटो लवराज टोलिया

इन दिनों तीज त्यौहार भी बड़े फीके से हो गये है. यह बड़ा दुखद है कि होली भी अब बड़ा बोकस त्यौहार लगता है. उस समय होली की बड़ी रंगत हुआ करती थी. घर से हम लोग बाकायदा भूखे पेट निकलते ताकि दूसरे घरों में दबा के आलू राजमा सूत सके. आलू के गुटके वही बढ़िया होते हैं जो पड़ोसी के घर में बने हो. ब्रह्मांड का यह गूढ़ रहस्य मुझे उन्हीं दिनों किसी आँगन में बैठे-बैठे समझ आया था. इक्के-दुक्के घरों में आलू राजमा से ऊपर मटन का प्रावधान होता. उन घरों में “बदन पे सितारे लिपेटे हुए” गाने वाले लौंडों की सँख्या में भारी इजाफा देखा जाता था. होली ने मुझे या मेरे हमउम्रों को जितना सोसियल बनाया. भाई साहब भाँग की फुन्तरी आज उतना सोसियल, पर्सनली डेवलपमेंट का कोई क्रेस कोर्स आदमी को बनायेगा.

किस्सागोई कोई खेल नही है साहब, किस्से सुनाने के लिये जरूरी है किसी जमाने में किस्सों का हिस्सा होना. किस्से साथ बैठने से बनते हैं. भटकने से बनते हैं, जिंदगी को जीने से बनते हैं. आवश्यकता अगर आविष्कार की जननी है तो अनुभव किस्सागोई का बाप है. जिसे जिंदगी ने रगड़ा नहीं है वो किलमोड़े की जड़ (मतलब क्या ख़ाक) आपको किस्से सुनायेगा. इधर घर जाने पर देखता हूँ कि वो सारे ठोर ठिकाने (अड्डे) जहाँ किस्सागोई के रंगरुटों की भर्ती होती थी वीरान हो गये है.

कभी कभार एक दो बच्चे दिखते भी हैं तो मोबाइल में सर घुसाये हुए. ओ ईजा को हनी सिंह का यो यो निगल गया है. इन दिनों अँगीठी की जगह भी हीटर ने ले ली है. अलाव तो खैर बीते जमाने की बात समझ लीजिये. एक समय था जब ये अलाव किस्सागोई के इंस्टिट्यूट टाइप की चीज हुआ करते थे. अलग-अलग उम्र के लौंडे अलग-अलग जगहों पर अलाव जला कर घंटों बैठे रहते.

अलाव के पास बैठकर ईरान तुरान की बातें की जा सकती थी. किस्सों का कोई खास विषय नहीं हुआ करता था. वो किसी भी विषय पर हो सकते थे. फिल्मों पर भूत पिशाचों पर किसी व्यक्ति विशेष की हरामखोरी पर आग सेंकते हुए हर रोज अलग अलग किस्म के दावे पेश किये जाते थे. कुछ दावे तो भाई साहब दावे क्या थे, अव्वल दर्जे की गप थे. उदाहरण के लिये एक मित्र का दावा था कि उसके अमुक अमुक गुरुजी ने पँचाचूली के टुक्के में दो सौ साल तपस्या की है. एक दूसरे मित्र का दावा था कि उसके फलाना फलाना चचा, आदमी को कबूतर बनाने की गुप्त विद्या जानते है. यह भी कि कभी कभार ये चचा खुश हो कर उसे भी कबूतर बना देते हैं. कबूतर बन कर वो हल्द्वानी नैनीताल तक घूम आता है वगैरह वगैरह. एक गप्प तो ऐसी भी थी जिसने हमारे बचपन के कई साल गाँव के उड़ियारों के नाम कर दिये. इस गप्प का ठीक ठीक साल मुझे याद नहीं है. बस इतना भर ध्यान आता है कि किसी गपोडिये के सरताज ने एक रोज यह दावा किया था कि हमारे पुरखे गाँव के उड़ियारों में बहुत बड़ा खजाना छुपा गये थे. बस फिर क्या था तय किया गया कि हर रोज स्कूल से लौटने के बाद एकाध घण्टे इन उड़ियारों में छुपे हुए खजाने को तलाशा जायेगा. ये गप्प इतना फैली कि इन उड़ियारों में आस पास के गाँवों से आये खोजी दस्ते भी देखे जाने लगे. कई बार इन घुसपैठियों से हमारी अच्छी खासी झड़प भी हुई. सालों तक हम सबने इन संकरे उड़ियारों में अपने घुटने छिलवाये हैं. खजाना क्या कभी एक चवन्नी भी नहीं मिली. इतना जरूर है कि जो यादें बनी वो भी किसी खजाने से हर्गिज कम नहीं हैं.

90 का दशक वो समय था जब हर समूह में एक ना एक गपोड़ी ऐसा हुआ करता था जो दूसरों के किस्से भी कई बार अपनी आपबीती बता कर सुना दिया करता था. इन गपोडियों को बड़े सम्मान से देखा जाता था. यही अमूमन हर टोली के एल्फा नर हुआ करते थे. किस्सों की प्रमाणिकता से हमें ना कोई लेना देना था ना हमारे पास ऐसे संसाधन थे जिनसे प्रमाणिकता की जाँच की जा सके. वह प्रमाणिकता का नहीं सम्भवनाओं का दौर था.

मैं कोई तोप कहानीकार या कवि नहीं हूँ साहब. लिखने का मुझे जो थोड़ा बहुत शौक है उसकी नींव गाँव के उन जलते हुए अलावों के आसपास ही कही पड़ी है. मेरे लेखन में रचनात्मकता मत तलाशियेगा. साफ साफ कहे देता हूँ कि मेरी कहानियों या कविताओं में आपको भाँग के दाने जितना भी वजन नही मिलेगा. अगर आप भाषा के जानकार है तो उल्टा मात्राओं की एकाध किलो गलतियां जरूर मिल जायेंगी. मैं बस झुंड का वो गपोड़ी हूँ जो किसी और के किस्से आप को सुना रहा है. अब जब किस्सागोई का कच्चा मसाला मेरी जमीन से खत्म सा होता जा रहा है, मैं डरता हूँ कि कहीं किस्सागो नाम की नस्ल ही खत्म ना हो जाये.

मुनस्यारी के रहने वाले लवराज टोलिया वर्तमान में स्टेट बैंक में कार्यरत हैं. परिक्रमा बैण्ड के हैड लवराज टोलिया का पहला कविता संकलन जल्द ही समय साक्ष्य प्रकाशन से प्रकाशित होने वाला है.

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Girish Lohani

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  • बहुत अच्छी जानकारी और पुरानी यादें ताज़ा हो गई

  • क्या बढ़िया भाषा में बात करते हैं लवराज !
    हम मुनस्यारी घूमने गए
    डॉ पांगती जैसे मार्गदर्शक मिले
    डॉ शेर सिंह पांगती अपने संग्रहालय में साक्षात मिले
    और अब मिला यह लेख !
    परिक्रमा पूरी हुई, धन्यवाद लवराज !

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