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उसकी पलकों का क्षितिज न मिला, फूल मेरी नफीस मुहब्बत का न खिला

पहाड़ और मेरा जीवन – 53 ( Sundar Chand Thakur Memoir)

(पिछली क़िस्त: मनुष्य परिस्थितियों का दास नहीं, परिस्थितियां उसकी गुलाम हैं)

ग्यारहवीं कक्षा की डायरी हाथ आने के बाद बहुत कुछ तो उसमें मुझे बकवास लगा क्योंकि उन दिनों आज की तरह हमारे पास मोबाइल हुआ नहीं करते थे, पढ़ाई भी कोई करे तो कितनी करे, खासकर हम जैसे कितना पढ़ लेते. बारहवीं में मेरे ठीक 60 पर्सेंट नंबर यानी प्रथम श्रेणी आई थी, तो इतने नंबरों के लिए आखिर मैंने कितना पढ़ा होगा. और मैं तो परिवार के साथ भी नहीं रहता था कि घर के दूसरे सदस्यों के साथ बातें करने आदि में समय चला जाता.

मैं था और कमरा था. बावजूद इसके कि बाद में मैं लगभग रोज शाम को पिथौरागढ़ की बाजार जाने लगा था, मेरे पास समय बहुत इफरात में होता. मैंने इसी समय का उपयोग किया और बेहिसाब कविताएं लिख डालीं. जो डायरी मेरे हाथ लगी है उसमें मैंने कविताओं की संख्या भी दर्ज की है. पूरी 230 हैं. इन कविताओं में गजब का आदर्शवाद भरा हुआ है. ऐसा लगता है कि जैसे देश और समाज को ठीक रास्ते पर ले जाने का सारा दारोमदार मेरा ही था.

कविताओं में यत्र-तत्र मोहब्बत जैसे शब्दों का भी इस्तेमाल हुआ है, पर बहुत ही दबे स्वर में, शर्माते हुए. बारहवीं की कक्षा तक आते-आते मैं अठारह साल का होने को था और लड़कियों के प्रति अब ज्यादा बुरी तरह आकृष्ट होना इस उम्र का सहज स्वभाव होता है. मगर छोटे कस्बे में ‘अच्छे लड़कों’ के लिए जरूरी नैतिक आचरण का दबाव रहा होगा कि मैंने कविताओं में प्रेम को बहुत शालीनता से व्यक्त किया है, थोड़ा वैसे ही जैसे पुरानी फिल्मों में नायक-नायिका के बीच शारीरिक संबंध दिखाने के लिए दो फूलों को आपस में मिलते या दो चिड़ियों को एक दूसरे से चोंच रगड़ते दिखा देते थे.

मसलन ‘मौन मोहब्बत’ के नाम से लिखी कविता की पहली चार पंक्तियां देखें –

‘ये दूर तक फैला नीला आकाश
और ये दूर तक फैली धरती
कितने चुपचाप, गुमसुम रहते हैं
पूर्ण मौन, एक दूसरे को निहारते हैं.’

मुझे वाकई समझ नहीं आया कि मैं इस कविता में क्या कहना चाह रहा हूं. जरूर बात यह होगी कि मैं किसी से मोहब्बत करता रहा हू्ंगा पर उसे कह नहीं पा रहा हूंगा. इस कविता में कवि की यही मन:स्थिति बयां हुई दिखती है. ऐसी कविताएं लिखने की वजह मुझे एक कविता में ही दिखाई दी, जिसका शीर्षक है – ‘तुम्हारी पलकों का क्षितिज मिल जाता’. अब ये पलकों का क्षितिज क्या होता है, इसका मुझे सचमुच कोई इल्म नहीं. इस कविता को अब पढ़ा तो ये मुझे इकतरफा मोहब्बत का जबरदस्त दस्तावेज लगी क्योंकि कवि अपनी संभावित प्रेमिका द्वारा अपने स्वीकार किए जाने और अस्वीकार किए जाने, दोनों स्थितियों का विवरण दे रहा है और खुद भी दोनों स्थितियों को सहर्ष स्वीकार कर रहा है. कविता के पहले दो पैरा देखिए –

‘तुम्हारी चितवन से जुड़ जाती हैं
एकाएक मेरी कई आशाएं
तुम्हारा मुझे नजरअंदाज करना
एक बार फिर मुझे खींचता है तुम्हारी ओर
तुम्हारे क्षणिक सामीप्य के एहसास मात्र से ही
मेरे भीतर जन्म ले लेती हैं कविताएं
और गीत पिघलकर उतर जाते हैं कागज पर’

और ये अगला पैरा-

‘वैसे भी मुझे तुम्हारा हिमालय नहीं चाहिए
मात्र तुम्हारी झुकी पलकों का क्षितिज मिल जाता
तुम्हारे सवेरे की रोशनी का मैं क्या करूं
तुम्हारे आंसू का रहस्य मिल जाता
कौन चलता है किसी के साथ सफर के अंत तक
बस इस मोड़ से अगले मोड़ तक का हमसफर मिल जाता
आखिर मैं पत्थर नहीं एक धड़कती जान हूं
बसने को मुझे तुम्हारी सिसकियों पर बसा कोई शहर मिल जाता.’

बहुत ही मुश्किल कविता लग रही है क्योंकि पढ़ने के बाद कवि का मन दुविधाओं से भरा प्रतीत होता है. अब इसका क्या अर्थ कि वह अपनी तथाकथित प्रेमिका के साथ सिर्फ इस मोड़ से उस मोड़ तक ही साथ सफर की इच्छा जता रहा है, पूरा जीवन कमिट करने का उसका कोई इरादा नहीं. इसका भी क्या मतलब कि उसे उसकी सिसकियों पर बसा शहर ही चाहिए. कवि यूं जबरन सिसकियां क्यों पैदा करना चाह रहा है ? वह खुशियों या मुस्कराहट पर बसे शहर में क्यों नहीं बस सकता? असल में यह कविता मेरी उस उम्र की बहुत ही भ्रमित मानसिक स्थिति को ही दिखा रही है. आजकल तो माता-पिता अपने बच्चों के मार्गदर्शक भी होते हैं. वे करियर की राह चुनने में उनकी मदद करते हैं.

पर मेरे मामले में मैं पूरी तरह से स्वछंद था क्योंकि मां को तो खैर कुछ पता ही नहीं था कि साक्षरों की दुनिया में क्या होता है, उसे बस इतना यकीन था कि अगर वह इतना बलिदान देकर बच्चों को पढ़ा रही है, तो कुछ अच्छा ही होगा, पिताजी को खुद से ही फुर्सत नहीं थी, सो वे क्या मेरे बारे में सोचते. बस बड़ा भाई था, तो उन दिनों वह खुद अपने करियर की चिंता में उलझा हुआ था. मुझे याद है बारहवीं करने वाले वर्ष किसी लड़की द्वारा भविष्य को लेकर की गई किसी बात पर मैंने उसे साफ कह दिया था- मेरे लिए करियर पहले है, बाकी सबकुछ बाद में. संभवत: करियर को लेकर मेरा यह डर और सजगता मेरे भीतर इतना गहरे पैठी हुई थी कि इसीलिए मेरी रगों में फुंफकारते प्रेम के दावानल ने जब भी कविताओं में अभिव्यक्त होना चाहा, मैंने उसे थोड़ा-सा दबा दिया.

यही वजह है कि मैंने उन दिनों जो गजलें लिखीं, उनमें से बहुत कम ही मोहब्बत पर थीं, ज्यादातर में मेरे जीवन के उसूल झलकते थे. पहले मैं यहां आपको मोहब्बत वाली गजलों की बानगी पेश करता हूं-

‘जिंदगी के वो हसीं लम्हें हमें याद हैं
तुम और तुम्हारे वे सभी जलवे हमें याद हैं,
तुम्हारा सर झुकाकर शरमोहया से लाल पड़ जाना
और वो हौले से मुस्कराना हमें याद है,
तुम्हारी नजरों से मिलता वह ‘सुंदर’ नजराना
और तुम्हारा उसको तड़पाना हमें याद है.’

अब यह जो सुंदर को इनवर्टेड कोमा के अंदर रखा है, इससे दो अभिप्राय हो सकते हैं. एक तो यह मेरा तखल्लुस हो सकता है, हालांकि दूसरी कई जगहों पर बतौर तखल्लुस मुझे ‘सुंदर’ की बजाय मुझे ‘सागर’ पढ़ने को मिला और दूसरा इस शब्द को इनवर्टेड कोमा में रख मैं उस व्यक्ति को कोई खास संदेश देने की कोशिश भी कर रहा हो सकता हूं, जिस व्यक्ति को जेहन में रख मैंने ये पंक्तियां लिखीं. शायद प्रेम का उन दिनों मतलब छिपाना होता था यानी अगर आप कुछ छिपा रहे हो, तो वह जरूर प्रेम जैसा कुछ है. आज की पीढ़ी को प्रेम की ऐसी परिभाषा बताई जाए, तो वह आपकी बातों को बकवास बताने में एक पल नहीं गंवाएगी क्योंकि इस पीढ़ी के लिए तो प्रेम से कहीं पहले ‘डेट’ होती है, जो हमारे समय में कई बार तो प्रेम के पौधे के सूख जाने के बाद भी ख्वाबों में ही संभव बनी रहती थी, हकीकत न बन पाती थी.

अगर गजल प्रेम पर नहीं लिखी, तो उसमें मेरे क्रांतिकारी विचार होना तय था. ऐसी कविताएं हैं, जिन्हें पढ़कर लगता है कि जैसे मुझे पूरा यकीन था कि मेरी कविताएं अकेले ही दुनिया बदलने वाली थीं. अब इसी गजल को देखिए-

‘रुख पलट दे हवाओं में ऐसा जोर होना चाहिए
शाम के धुंधलके में भी अब भोर होना चाहिए,
हमले मत करो तुम अपनी तरफ से कभी
जवाब जो भी दो करारा, मुंहतोड़ होना चाहिए,
मझधार में अटकते हैं वो जिन्हें अनुभव नहीं नदी का
तुम्हारा तो हर कदम नदी का छोर होना चाहिए.’

इन गजलों और कविताओं में, जिनमें से बहुत-सी नैनीताल समाचार समेत दैनिक जागरण जैसे राष्ट्रीय अखबारों में भी प्रकाशित थीं, जिसकी सूचना बाकायदा मैंने डायरी में कविता के साथ दी हुई है, ज्यादातर अप्रकाशित ही है क्योंकि वह प्रकाशित होने लायक भी नहीं. पर इन अप्रकाशित कविताओं में से एक कविता ऐसी है जिसे मैं किसी मंच से जरूर सुनाऊंगा क्योंकि इसमें मैंने अपने पिताजी द्वारा मुझे संयोग से पूरे होशोहवास में सुनाई गई उनकी अंग्रेजी में स्वरचित कविता के शब्द हैं. ‘दुनिया चलती रहेगी’ शीर्षक से लिखी इस कविता में मुझे वह भावुकता दिखी, जिसने मुझे उस उम्र में कविताओं की ओर खींचा. इस कविता की कुछ पंक्तियों के साथ कविताओं पर अपनी बात पूरी करता हूं.

दुनिया चलती रहेगी
नदिया बहती रहेगी
लोग आते रहेंगे
लोग जाते रहेंगे
कसमें खाया करेंगे
वादे तोड़ा करेंगे
दिल धड़का करेंगे
शोले भड़का करेंगे
लोग लिखते रहेंगे
लिख के बिकते रहेंगे
तन्हा रोया करेगी
रुसवा रूठा करेगी
दिन चीखा करेंगे
रात नीरव रहेगी
नैन तरसा करेंगे
चैन आता रहेगा
बात तब भी चलेगी
शाम तब भी ढलेगी
दुनिया चलती रहेगी
नदिया बहती रहेगी
तुम भी कब तक रहोगे
मैं भी कब तक रहूंगा
इक दिन तुम भी न होगे
इक दिन मैं भी न हूंगा
इंसां तब भी रहेंगे
रातें तब भी तो होंगी
लोग बातें करेंगे
बातें करते रहेंगे
यहां कौन रहा है
यहां कौन रहेगा
तुम भी इक दिन चलोगे
मैं भी एक दिन चलूंगा
दुनिया चलती रहेगी
नदिया बहती रहेगी. 

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सुन्दर चन्द ठाकुर

कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे.

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