Featured

सुदर्शन शाह बाड़ाहाट यानि उतरकाशी को बनाना चाहते थे राजधानी

रामचन्द्र नौटियाल

अंग्रेजों के रंवाईं परगने को अपने अधीन रखने की साजिश के चलते राजा नेे मन मसोसकर टिहरी को बनाया ठिकाना

गोरखों के आतंक से गढ़वाल राज्य को राहत दिलाने के बाद अंग्रेजों ने अगर रंवाई परगना अपने कब्जे में न लिया होता तो आज की टिहरी रियासत बाड़ाहाट रियासत के नाम से जानी जाती. क्रूर गोरखों से ऐतिहासिक युद्ध लड़कर जब अंग्रेजों ने गढ़वाल रियासत को मुक्ति दिलाई तो युद्ध में सहयोग करने के बदले राजा सुदर्शन शाह से क्षतिपूर्ति के लिए गढ़वाल रियासत का बड़ा हिस्सा मांग लिया और राजा की रियासत को टिहरी उत्तरकाशी जनपद के अंतर्गत सीमित कर दिया. श्रीनगर छिनने के बाद सुदर्शन शाह के लिए नई राजधानी स्थापित करने की चुनौती आई तो उन्होंने बाड़ाहाट को राजधानी बनाने का फैसला लिया. लेकिन ऐन मौके पर ईस्ट इंडिया कंपनी ने रवांई परगना भी हड़प लिया. मजबूरन राजा सुदर्शन शाह को टिरी (टिहरी) को राजधानी के लिए चुनना पड़ा. (Sudarshan Shah Uttarkashi Capital)

यूं तो गढ़वाल रियासत में गोरखों ने 1792 में ही दस्तक दे दी थी, एक समझौते के तहत वह गढ़वाल रियासत से दूर रहे लेकिन सितंबर 1803 में जब गढ़वाल समेत हिमालयी क्षेत्र में विनाशकारी भूकंप आया तो बड़े पैमाने पर मची तबाही को मौका मानकर गोरखों ने गढ़वाल पर हमला कर दिया. राजा को जान बचाकर परिवार के साथ पलायन करना पड़ा. देहरादून में गोरखों से लड़ते हुए प्रद्युमन शाह मारे गए तो राजगद्दी का वारिस सुदर्शन शाह भी अगले 12 सालों तक मैदानी इलाकों में परिवार संग शरण लिए रहा. 1814 में ईस्ट इंडिया कंपनी सेना ने देहरादून के खलंगा में गोरखों को शिकस्त देकर गढ़वाल को गोरखा शासन से मुक्त करवाया. इस युद्ध की क्षतिपूर्ति के लिए राजा के पास ब्रिटिश सेना को देने के लिए संसाधन नहीं थे. हालांकि, अंग्रेज इस बात से भी नाराज थे कि युद्ध के दौरान निर्वासित राजा ने गोरखाली और अंग्रेजों के बीच युद्ध छिड़ जाने पर भी इस युद्ध में अंग्रेजों की जीत सुनिश्चित करने के लिए कोई भी कोशिश नहीं की.

1815 में जब गढ़ राज्य पूरी तरह से गोरखा मुक्त हो गया तो ईस्ट इंडिया कंपनी ने अलकनंदा नदी के पश्चिम भाग में स्थित क्षेत्र को राजा को सौंपने का आदेश जारी कर दिया लेकिन इसके साथ ही सैन्य दृष्टि से महत्वपूर्ण देहरादून और रवांई परगने को अपने पास रखने का फैसला किया. कंपनी के प्रमुख सर डेविड अख्तरलोनी ने सैनिक महत्व को देखते हुए रवांई परगने को ब्रिटिश राज्य के अंतर्गत रखने का फैसला लिया. हालांकि, राजा के पास विकल्प था कि वह अपने पूर्वजों की राजधानी श्रीनगर में रह सकता है लेकिन फिर उसे अलकनंदा के उस पश्चिमी हिस्से से भी वंचित रहना पड़ेगा जिसे ब्रिटिश सेना ने राजा को दिया था. युद्ध से पहले ही यह निश्चित हो गया था कि राजा को आधा राज्य ईस्ट इंडिया कंपनी को सौंपना पड़ेगा क्योंकि कंपनी उस दौर में हड़प नीति के तहत काम करती थी, जिसमें राजाओं की रियासत हड़पना या कुछ शर्तों पर राजाओं को रियासत में शासन करने देना शामिल था.

इसे भी पढ़ें : कत्यूर शासकों ने जोशीमठ से राजधानी क्यों बदली

इसलिए युद्ध के निर्णय से पूर्व ही राजा सुदर्शन शाह ने नई राजधानी बसाने की तैयारियां शुरू की. इस दौरान राजा और उसके सहयोगियों को नई राजधानी के लिए बाड़ाहाट सबसे मुफीद जगह लगी. बाड़ाहाट इतिहास में जब संपूर्ण हिमालयी क्षेत्र में नाग राज्य था तो नाग राजाओं की राजधानी भी बाड़ाहाट का जिक्र मिलता है. ऐतिहासिक महत्व के साथ ही बाड़ाहाट में स्थित काशी विश्वनाथ मंदिर, शक्ति स्तंभ त्रिशूल होने से इसका धार्मिक महत्व भी था. साथ ही इस हिमालयी हिस्से में बाड़ाहाट में राजधानी के प्रसार के लिए पर्याप्त मैदान था.

बाड़ाहाट राजधानी स्थापित करने का फैसला राजा ले पाता, उससे पहले ही तिब्बत सीमा से सटे इस हिस्से में संभावनाओं को देखते हुए अंग्रेजों ने समझौते के तहत रंवाई पगरना भी अपने अधीन ले लिया. ऐसे में राजा को 1815 में अपने परिवार और राजदरबारियों के साथ भिलंगना और भागीरथी नदी के संगम पर स्थित एक टिरी गांव में अपनी राजधानी स्थापित करनी पड़ी

अगले साल ही राजा का सौंप दिया रंवाई परगना

अंग्रेजों ने 1815 को समझौते के तहत अलकनंदा का पूर्वी हिस्सा, देहरादून, जौनसार बाबर और रंवाई परगना अपने अधीन कर लिया था. लेकिन, अंग्रेजों को रंवाई परगना रास नहीं आया. रवांई परगने में ब्रिटिश सेना को पहले भरपूर संभावनाएं दिखी लेकिन जब वहां अपनी सेना रखने की बारी आई तो ब्रिटिश अफसरों को अहसास हुआ कि रंवाई परगने को अपने पास रखकर कंपनी से भूल हुई है. वहां के विषम भौगोलिक हालात और स्वच्छंद मिजाज के लोगों पर राज करना आसान नहीं है. तब कंपनी की ओर से सीमा निर्धारण के लिए गार्डनर को नियुक्त किया था. 1816 में गार्डनर ने कंपनी को सुझाव दिया कि ब्रिटिश गढ़वाल को अपनी सीमा मंदाकनी की पश्चिमी सीमा पर स्थित पनढ़ाल तक मान कर ही संतोष करना चाहिए और रंवाईं परगने को वापिस राजा सुदर्शन शाह को सौंप देना चाहिए.

गार्डनर ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि विस्तृत फैले रंवाई परगने में गोरखाली सेना कुल 12 हजार गोरखाली रूपए का राजस्व जुटा पाती थी जो ब्रिटिश सरकार के 9 हजार के बराबर है, जबकि यहां प्रशासन चलाना ज्यादा खर्चीला है. इसे ब्रिटिश राज्य में रखने से फायदा कम और नुकसान ज्यादा होगा. लिहाजा 1816 को गर्वनर जनरल के सहायक एजेंट लेफ्निेंट रौंस ने रवांई परगने को राजा सुदर्शन शाह को सौंप दिया और रंवाई परगना कुछ महीनों तक ब्रिटिश सेना के अधीन रहने के बाद टिहरी रियासत का हिस्सा बन गया. (Sudarshan Shah Uttarkashi Capital)

शिक्षक, साहित्यकार रामचन्द्र नौटियाल उत्तरकाशी, उत्तराखण्ड के रहने वाले हैं.

हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Sudhir Kumar

Recent Posts

अंग्रेजों के जमाने में नैनीताल की गर्मियाँ और हल्द्वानी की सर्दियाँ

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…

2 days ago

पिथौरागढ़ के कर्नल रजनीश जोशी ने हिमालयन पर्वतारोहण संस्थान, दार्जिलिंग के प्राचार्य का कार्यभार संभाला

उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…

2 days ago

1886 की गर्मियों में बरेली से नैनीताल की यात्रा: खेतों से स्वर्ग तक

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…

3 days ago

बहुत कठिन है डगर पनघट की

पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…

4 days ago

गढ़वाल-कुमाऊं के रिश्तों में मिठास घोलती उत्तराखंडी फिल्म ‘गढ़-कुमौं’

आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…

4 days ago

गढ़वाल और प्रथम विश्वयुद्ध: संवेदना से भरपूर शौर्यगाथा

“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…

1 week ago