बीसवीं शताब्दी के उस दौर में वाडिया बंधु उस दौर में हंटरवाली के निर्माण की योजना बना रहे थे जब दुनिया भर में दुनिया खुद को नए सिरे से ईजाद करने में लगी हुई थी. भारत अंग्रेजों को गुलाम था. 30 जनवरी 1930 को कांग्रेस ने ‘पूर्ण स्वराज’ संबंधी प्रस्ताव पारित कर दिया था. हिन्दुस्तानी अवाम खुलकर बर्बर, अत्याचारी हुकूमत से मुक्ति के लिये पूरी तरह उठ खड़ा था. 1935 में वाडिया मूवीटोन की फिल्म आयी ‘हंटरवाली’. इस कहानी और कहानी को प्राण देने वाली नाडिया के हैरत भरे कारनामों से अवाक लोगों ने जब होश संभाला तो हॉल में तालियों की गूँज थी और टिकट खिड़की पर खनखनाते सिक्कों की.
7 जनवरी 1908 को आस्ट्रेलिया के शहर पर्थ में नाडिया अंग्रेज पिता और ग्रीक मां के घर में जन्मी जिसका असल नाम मेरी इवांस था. पिता हर्बर्ट ब्रिटिश सेना में थे. 1912 में पिता समेत मेरी का परिवार बम्बई आया और चार साल की मेरी यहीं की होकर रह गयी. बाद में एक ज्योतिष की सलाह पर उसने अपना नाम मेरी से नाडिया कर लिया.
बारह-तेरह साल की उम्र से नाडिया ने बैले डांस उस दौर के मशहूर मादाम अस्त्रोवा से सीखना शुरू किया. उसके बाद उसने देश भर में अलग-अलग समूहों के साथ काम किया और फिर जरको सर्कस में शामिल हुई. इसी जगत में नाडिया वाहवाही लूट रही थी वहीँ हालीवुड की मार-धाड़ वाली डगलस फैयरबैंक्स की फिल्मों से प्रेरित होकर वाडिया बन्धु फ़िल्में बना रहे थे.
1934 में यह योग बन गया. बड़े भाई जमशेद के मन में नाडिया को लेकर हालीवुड की एक्शन फिल्मों के ‘लेडी दर्शन’ की तमन्ना जाग गई. दिक्कत यह थी कि नाडिया के पास स्टंट करने का साहस तो था मगर बाकी सारी चीजें उसके विरुद्ध थी एक तो उसका विदेशी रूप-रंग और दूसरा उसकी भाषा.
भारतीय दर्शकों की प्रतिक्रिया जानने के लिये वाडिया ने 1934 में नाडिया को अपनी दो फिल्मों ‘देश दीपक’ और ‘नूर-ए-यमन’ में छोटे-छोटे किरदार दिये. फिल्म ‘नूर-ए-यमन’ में नाडिया को हीरो की दो बहनों में एक बहन का किरदार मिला. फिल्म में एक संवाद था – जब दिल न रहा काबू में तो मेरी खता क्या’. शूटिंग के दौरान कई कोशिशों के बाबजूद नाडिया की जबान से निकलता- ‘ जब दिल न रहा काबुल में तो मेरी खता क्या’. ऐसे में सवाल यह था कि ऐसी भाषा के साथ काम आगे बढ़े कैसे.
दोनों फिल्मों में नाडिया के दोषपूर्ण उच्चारण, सुनहरे बाल और विदेशी रंग-रूप पर दर्शकों ने खूब तालियां ठोकी सो वाडिया का काम आसान हो गया. बाकी रही जोखिम की बात तो नाडिया ने सारे स्टंट को खुद अंजाम देकर अपने अदम्य साहस का सबूत दिया. जिसका देश की जनता ने खुले दिल से स्वागत किया और फिल्म सुपरहिट रही.
फिल्म ने सामाजिक रूप से भी काफी असर डाला. एक ऐसे समय जब औरत को पर्दे की आड़ में छुपा कर रखा जा रहा था उस समय दस-दस मर्दों पर घूंसे और चाबुक बरसाती और उन पर भारी पड़ती नाडिया. रेलगाड़ी की रफ्तार से तेज घोड़ा भगाती नाडिया. यहाँ वहां छतों पर कूदती-फांदती नाडिया. कसरत करती नाडिया. उस दौर में शक्ति का प्रतीक बन गई.
हंटरवाली नाम का जादू फिल्मों में ऐसा चला कि जिन निर्माताओं को नाडिया बतौर हीरोइन न मिल सकी उन्होंने हंटरवाली के नाम की नक़ल कर ही काम चलाने की कोशिश की और कुछ लोग इसमें सफल भी हुये. अकेले 1938 में ही इस तरह की चाबुकवाली, साईकल वाली, घूंघटवाली नाम से फ़िल्में बन गई.
हंटरवाली के बाद नाडिया की भी दर्जनों फिल्म बनी जिनका नाम जंगल प्रिंसेस, सर्कस क्वीन और मिस फ्रंटियर मेल जैसे थे मगर नाडिया को पहचान आज भी हंटरवाली से ही मिली.
वसुधा के हिन्दी सिनेमा बीसवीं से इक्कसवीं सदी तक में राजकुमार केसवानी के छपे लेख नारी शक्ति को आवाम का सलाम आधार पर.
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