उत्तरकाशी का टकनौर परगना जो जान्हवीं औरभागीरथी नदियों का जलागम प्रदेश रहा. वारागड़ी पट्टी इलाके तक फैला. साथ ही जिसमें कठूड़ पट्टी भी शामिल थी और प्रताप नगर भी. पहाड़ के इस अधिपति की बात ही निराली थी. अब जिसके सपने द्वारिकापति, को आएं जिसमें वो देखें बांकी रमोली, चौसिंगिया वाखरी, वार विसी वाकरी की मनमोहक हरीभरी धरती. अहा रे ! चहुँ ओर पसरी श्री समृद्धि. जहां के सेरों में लकदक लहलहाए असौज का हंसराज, बासमती और साली का धान अलग ही खुश्बू बिखेरे. वहां की घटडयाली सेरी में चारों पहर घराट अन्न पीसें. उसे ही कहते दशज्यूला इलाका. Gangu Ramol Sem Mukhem and Siduaa Biduaa
पैदावार भी थी और व्योपार भी तुरत-फुरत. खूब तगडी मोटी ताजी भेड़ें जिनमें अव्वल दर्जे का ऊन. इसी ऊन को पहाड़ी वनस्पतियों के रङ्ग इंद्रधनुष सी आभा दें. मेहनत से बारीकी से इसे कात बने दन, चुटके, ऊनी कपड़े. साथ में हिमालय की ऊंचाई से खोदी जड़ी बूटी, ताकत वाली कस्तूरी, पहाड़ों से रिसी शिलाजतु, बहुत ही उम्दा समूरें, चंवर और भोट तिब्बत से निकाला नमक और सुहागा.
अब व्यापार के तमाम रस्ते पर भी उसी का कब्ज़ा. जो एक तरफ तराई भाबर की मंडी तक जाते तो दूसरी ओर भीमगोडा -कनखल तक के बट्टे-खातों पर रहती पूरी दखल. इन सबसे बढ़ कर ये इलाका टिहरी जिले के ब्रह्मपुर राज्य में था जिसकी सीमा को स्वर्णगोत्र कहा जाता रहा. जहां भोट प्रदेश की पश्चिमी स्वर्ण खानों से मिलता था स्वर्ण चूर्ण. यह पिपीलिका स्वर्ण भी कहा जाता. होता यह कि सोने की खानों से चींटियां किनारों पर सोने के कणों का ढेर लगा देतीं थीं. इसके कई कट्टे -भारे -दोण कुलिंद नरेश सुबाहु ने राजा युधिष्ठिर के राजसूर्य यज्ञ तक पहुंचाए थे बल.
इस सुरजूकौंल जोत्रमाला की भोट गाथा का नायक है गंगू रमोला. उसके बेटे हैं सिदुआ और बिदुआ. यह तब की बात है जब कत्यूरी राजाओं का पतन हो चुका था और गढ़वाल राज्य अनेक गढ़ों में खंडित था. हर गढ़ के गढ़पति सामंत थे. इनमें से एक गढ़ टिहरी जिले की रमोली पट्टी में था जिसे मोल्यागढ़ कहते थे. मोल्यागढ़ का गढ़पति नागवंशीय सामंत गंगू रमोला था.
रमोली पट्टी हर्याली लकदक पेड़ों से भरी थी. नौले -धारे कल-कल बहते थे. पहाड़ों के पार जहां तक नजर जाए हिमाच्छादित चोटियां दिखाई देती थीं. चरागाह बुग्यालों में गंगू की अनगिनत भेड़ -बकरियाँ , गाय-बैल- भैंस निर्द्वन्द चरती थीं. उपराओँ -तलाऊँ के सीढ़ीदार खेतों में खूब अनाज -सब्जी -फलफूल होते थे. सेरों में खुशबूदार बासमती होती थी. अन्न- धन जैसे -जैसे बढ़ा, रमोली के गंगू रमोला की नाक चढ़ती रही आंग गर्माता रहा . वो हर काम अपनी मर्जी का करता. अपने फायदे के लिए करता. फिर पक्का जिद्दी, जैसा सुर चढ़ जाए. जब जी चाहे किसी की भी बकरियां उठा गाय भैंस हका ले. मनमानी करे. किसी की बात पे कान ना दे. उलट पलट सब करे. हद तो ये कि उसने अपने राज में भैंसों के साथ साथ अनब्याही कुंवारी कन्याओं पर भी कर ठोक दिया. Gangu Ramol Sem Mukhem and Siduaa Biduaa
ऐसी बुद्धि के साथ उसका तगड़ा भीमकाय बदन जिस पर पहनावा, ‘अठारा गजी चोला, नौ गजी ताणा, बागर भिलंग को भलो साजो राणा ‘. उस पर खदुवा भी पक्का. पूरा भसम रोगी. अझेल, तभी श्रीनगर दरबार में भोजन भंडारी ने खुसपुस कर राजा को बताया कि ये गंगू रमोला तो है भसम रोगी. यह बीस लोगों के बराबर अकेला भकोसता है. और क्या बताऊँ महराज! कि खाते बखत थाली के दोनों ओर दो लोटों की जगह पानी से भरी दो गागर रखता है. खाना खा दोनों हाथ गगरी पे टेकता है तो उन्हें पिचका थाली बना देता है. राजा ने बात प्रमाणित करने को छुप-छुप कर ये सब देखा. ऐसा झस्का कि अगले ही दिन उसकी विदाई कर दी अपने राज से. ये वचन ध्यान में रख कि -“रांड, सांड, भूरा, भैंसा, बिखड़ जाए तो होगा कैसा? ना धरम का, ना मानुष जैसे करम का. बात ठीक थी. गंगू ठैरा पक्का नास्तिक. अपनी ही ताकत जानता, किसी देवी देवता को नहीं मानता. बस काली माता को मस्तक नवाता.
ठीक इसी समय द्वारका में भगवान श्री कृष्ण विराजते थे. एक रात सपने में उन्हें गंगू रमोला का कारबार और रमोला पट्टी की हरी-भरी सम्पन्न खूबसूरत सम्पदा दिखाई दी. उनकी नींद टूट गई. अब यह सब उन्होंने अपनी रानी सत्यभामा को बताया. तय हुआ कि रमोलीगढ़ के सामंत गंगू के पास दूत भेज रमोली की धरती पर ढाई गज जमीन मांगने की बात कही जाए. दूत गया तो सन्देश की पाती पढ़ गंगू ने कहा कि अभी ढाई गज मांगता है कल पूरा इलाका मांगेगा. नहीं देता तिनड़ा भी. उलटे पैर दूत को फरकाया धमका भी दिया कि दुबारा यहाँ आया तो सर काट बद्रीनाथ में चढ़ा दूंगा.
अब भगवान श्री कृष्ण ने बूढ़े ब्राह्मण का भेष धरा. गरुड़ पर चढ़े और पहुँच गए गंगू के मोल्यागढ़ वाले महल. गंगू तब अपनी बकरियों के साथ हरयाली के जंगल गया था. महल में थी उसकी पत्नी रानी मैनावती जो धरम -करम, स्वागत -सत्कार में निपुण थी. सीधी-सच्ची थी.
बूढ़े ब्राह्मण का वेश धरे श्री कृष्ण भगवान ने मैनावती से कहा कि वह तो उनके कुल पुरोहित हैं. इधर बहुत समय बाद आना हुआ. आ ही गए हैं तो गंगू की पत्री बांच पुत्र योग भी देख लेंगे. साथ ही यह भी कहा कि ये गंगू अब बहुत हठी क्रूर, अहंकारी हो गया है. मनमानी करता है. अभी भी समय है संभल जाए. दुष्टता छोड़े. और अगर कहा न माना तो राजपाट के साथ खुद भी डूबेगा. ये चेतावनी दे किशन भगवान जो बामण के भेष में थे, अंतर्ध्यान हो गए.
गंगू लौटा तो मैनावती ने सब बताया. पति देव को समझाया. कहा कि अब तक जो किया उस पर छार डालो. अब भक्ति और श्रद्धा के रस्ते चल पुण्य बटोरो. ज्ञानी ध्यानियों कि संगत करो. अब तो खुद पुरोहित द्वार आया है. सुख शांति का वचन सुनाया है. ब्राह्मणों के बोल गलत नहीं होते. सिद्ध-महात्मा जो ठहरे. पर अड़याट, घमंडी गंगू क्योँ मानता.वो और खोरयां गया. गुस्से से आग बबूला हुआ. उसने अपनी पत्नी को खूब हड़काया. डांटा फटकारा. एक न माना. अपनी जिद पर अड़ा रहा. अब क्या होता फिर. रानी मैनावती बार-बार कहती ही रह गई.
थोड़े दिनों के बाद ही किशन भगवान का कोप गंगू पर पड़ गया. उसके जानवर मरने लगे. भगवान ने भी ऐसी लीला दिखा दी कि मरने के बाद वो सब जानवर पत्थर के हो गए . यही नहीं पानी के धारे नौले भी सूख गए. नदियों में रौखड़ पड़ गए. हरी -भरी धरती में बांजा पड़ गया. हरयाली सूख सिमट गई. अकाल पड़ गया. सारी श्री समृद्धि जाती रही. गंगू और बौरा गया. यहाँ वहां फिरने लगा.
जंगल में भटक रहे गंगू रमोला को उसकी दुर्गति देख किशन भगवान ने धाल लगाई कि में ही हूं तेरा ईष्ट. मेरी बात सुन. बोल -बचन मान. इतना कर बस कि तू सेम में मेरा मंदिर थाप. सब कुछ पहले जैसा कर दूंगा. आपदा-विपदा में मारा गंगू सब मानने को तैयार हो गया. साथ ही उसने किशन भगवान से एक विनती और की कि वन में रहने वाली राक्षशी जिसका नाम हिडिम्बा है, महा दुष्टा. वो उसके सारे चरवाहे-जानवर मार कर खा जाती है. उत्पात मचाती है. काबू में नहीं आती. तो प्रभुजी इस हिडिम्बा का भी नाश कर दो.
तथास्तु कह किशन भगवान ने बंसी बजाई. ऐसी मनमोहिनी सुरीली तान सुन हिडिम्बा ने अपूर्व सुंदरी का भेस धरा और शरणागत हो सेवा करने की इच्छा प्रकट की. भगवान ने कहा कि वो उन्हें झूला झुलाये. ख़ुशी-ख़ुशी हिडिम्बा ने पेंग बढ़ाने को झूले पर धक्का लगाया. पर झूला हिला ही नहीं. कितना जोर लगाया पर झूला जिसमें भगवान किशन विराजे थे.
तस से मस न हुआ. अब भगवान किशन की लीला सुनो. उन्होंने सुंदरी बनी राक्षसी से कहा कि वह झूले से उठते हैं. अब वह उसे झूला झुलायेंगे. खुशी-ख़ुशी इतराती हिडिम्बा झूले पर जा बैठी. किशन कन्हैया ने धक्का लगाया. ऐसा धक्का लगाया कि हिडिम्बा झूले से छटक आकाश में लहराती धड़ाम से कोसों दूर जमीन में आ गिरी और उसके अंग-प्रत्यंग इधर उधर गिर पड़े. जहां उसका मुख गिरा उस स्थान का नाम मुखेम पड़ गया. तो फिर इस गाँव का नाम ही सेम मुखेम हो गया. Gangu Ramol Sem Mukhem and Siduaa Biduaa
अब भगवान जी ने सपने में दर्शन दे गंगू से कहा कि वह सेम में उनका मंदिर बनाये. उनकी दया और उपकार के तले दबे गंगू ने फ़ौरन हामी भर दी और सात दिन में ही मंदिर का निर्माण कर दिया. मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा करने ढोल -दमाऊ, भंकोरा -तुर्री बजाते अपनी प्रजा, ब्राह्मणों और रानी सहित जब गंगू रमौल मंदिर की जगह गया तो ठगा सा रह गया. वहां तो मंदिर था ही नहीं. गंगू को सोच पड़ गए कि शायद भगवन को यह जगह पसंद नहीं . सो उसने तुरंत दूसरे ठौर पर मंदिर बनाया. सब कुछ हो गया तो अर्पण के दिन वह मंदिर भी अलोप हो गया.
गंगू भी जिद्दी और अब तो वो भक्त भी हो गया ठहरा. ये भी उसकी बुद्धि में आ गया कि भगवान जी उसके धैर्य की परीक्षा ले रहे हैं. सो उसने छः बार मंदिर बनाये जो अदृश्य होते रहे. सातवीं बारी में गंगू को फिर किशन भगवान ने सपने में बताया कि वह उसके संकल्प पूरा करने की लगन से बहुत खुश हैं. उसके द्वारा बनाये मंदिर उन्होंने खुद अभी विलुप्त कर रखे हैं ताकि कलियुग में वह उनके गुप्त आवास रहें. अब वह सेम पर्वत श्रृंखला में खिर्सू के दो पेड़ों जिनको भीम और अर्जुन कहे जाते हैं और जिनके बीच पत्थर की शिला हैऔर बीचों बीच एक छोटा वृक्ष भी, उस जगह पर मंदिर बना दे . इसे प्रकटा सेम कहा जाएगा. अंततः मंदिर बना. इग्यारह गते मंगसीर को पूरे विधि विधान से प्राण प्रतिष्ठा भी हुई. उत्सव मना. रौनक हुई. तभी से नागराज सेम का मेला इसी दिन-वार लगता है. जात भी संपन्न होती है.
फिर गंगू रमौल और मैनावती के दो पुत्र हुई जिनके नाम पड़े सौंड और कंडार. आठ बरस के होते-होते ये भी बहुत उद्दंड और अभिमानी हो गए. यहाँ तक कि अपने पिता की न सुन सेम मंदिर में जा भगवान को द्वन्द युद्ध के लिए ललकार आए. नाग राजा ने चेताया भी कि मैं तुम्हारा कुलदेवता हूं. मेरी पूजा अर्चना करो तो ऋद्धि-सिद्धि प्रदान करूँगा. जब सौंड और कंडार माने ही नहीं तो कुपित हो नागराज ने सुदर्शन चक्र से दोनों के मस्तक धड़ से अलग कर दिये.
गंगू रमौल ने नागराजा से विनती की. अपने पुत्रों की घृष्टता पर माफ़ी मांगी. निवेदन किया कि भगवान आपकी ही कृपा से पुत्र मिले. अब उनका अपराध माफ़ कर दया कर उन्हें जीवन दान दे दो. आखिर कार भगवान ने गंगू रमोला और मैनावती की पुकार सुन ली. सौंड और कंडार जैसे नींद से जगे उठ बैठे. उन्होंने बार बार प्रभुजी से माफ़ी मांगी. साथ ही अविरल भक्ति का वर भी माँगा. उन्हें यह वरदान मिला. आगे चल ये दोनों भाई गुरू गोरखनाथ पंथ से दीक्षित हो सिद्ध बने और सिदुआ-बिदुआ के नाम से मशहूर हुए. कृष्ण भगवान के अभिन्न सखा बने. हूंण देश तक जा उन्होंने कई बार बहादुरी दिखाई. अपने पिता गंगू रमोला के देहावसान के बाद उन्होंने नागराज सेम की शिला की बगल मैं गंगू रमोला की मूर्ति लगायी और सारे मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया.
सेम का नागराज दक्षिणी गढ़वाल और कुमाऊं के देवता के रूप में प्रसिद्धि पाया तो सिदुआ -बिदुआ बद्रीनाथ के राजा कहे गए. इन्हें क्षेत्ररक्षक देवता भी कहा गया. इनकी पूजा सेम-मुखेम के जागरों में और कुमाऊं में रमोल गाथाओं के रूप में होती है. रामगंगा घाटी में इनकी पूजा होती है. कुमाऊं में भेड़-बकरी खोने पर चरवाहे इन्हीं का आव्हान करते हैं. ये सर्वमान्य आराध्य देव माने जाते हैं. Gangu Ramol Sem Mukhem and Siduaa Biduaa
पयारों-बुग्यालों व पशुओं के अधिदेवता. बीमार पशुओं के स्वस्थ होने के लिए इन्हीं की मनौती मानी जाती है. सिदुआ को सिद्ध बाबा के रूप में भी पूजा जाता रहा. उत्तराखंड के चौरासी सिद्धों में सबसे अधिक पूजा जिस सिद्ध की होती है वह सिदुआ ही है. कोटद्वार का सिद्धबली और गंगा सलाण में सिद्धखाल व देवलगढ़ में सत्यनाथ मंदिर इन्हीं का रूप है. चौरासी सिद्धों की तपस्या का मुख्य स्थल सिद्धनाथ ने घोल्या उड्यारी को बनाया जहां गुरू गोरखनाथ ने तप किया था. भोटिया जनजाति द्वारा पूजित साही देवता भी सिदुआ ही माना जाता है. माणा और वेलाकुली ग्राम में मारछा अपने बुग्यालों-पयारों को बनाये बचाये रखने के लिए इनको ही जगाते हैं. तभी समस्त पहाड़ में सेम मुखेम, गंगू रमोला, सिदुआ -बिदुआ आव्हान करते रहे हैं नागराजा का :
ॐ जै ईष्टदेवता !महाबली देवता !श्री भूमिया देवता! नागराजा देवता! सूता जगोंदों! रूठा मनोँदों! पयेडी पराज हिएड वाडुलि! श्रीकुल की भगवती झालीमाली देवी! श्री सत्यनारायण देवता! चारबुवंड की चंद्रवदनी! दयूलगढ़ की देवी! सुरकंडा माता! उत्तराखंड धाम का बद्रीविशाल भगवान! खांडा जस दे. माथा भाग दे! कंठ राग दे! माँगन का वर दे! पूजन का फल दे! श्री नागेंद्र देवता! Gangu Ramol Sem Mukhem and Siduaa Biduaa
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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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