गांगी तैयार मझौल आगौ

गंगा गिरी और दीवान सिंह के माता-पिता ने निर्णय लिया कि बच्चों की पढ़ाई के लिए वो पहाड़ छोड़कर तराई-भाबर में ऊधम सिंह नगर जिले के एक छोटे से गाँव मझोला में घर बनाएँगे और बच्चों की आगामी जिंदगी के सुनहरे भविष्य की इबारत लिखेंगे. पहाड़ की जिंदगी में रचे बसे गंगा और दीवान ने इससे पहले तराई-भाबर का नाम भर सुना था. जहाँ एक ओर मन में भाबर जाने का कौतुहल था वहीं दूसरी ओर इस बात का असमंजस भी कि पहाड़ के इतर भाबर की जिंदगी में घुलेंगे मिलेंगे कैसे! बहरहाल कौतुहल के बीच पहली बार बस में बैठकर माता-पिता के साथ दोनों बच्चे पहाड़ की घुमावदार सड़कों से होते हुए तराई का गेटवे कहे जाने वाले कस्बे टनकपुर पहुँचे. अभी टनकपुर पहुँचे ही थे कि भाबर की प्रचंड गर्मी से सामना हुआ. अनायास ही गंगा के मुँह से निकला “ओ ईजा! मरनझो गरम हैरो ये भाबर त” (ओ मेरी माँ! मरने जैसी गर्मी हो रही है इस भाबर में तो).
(Story Kamlesh Joshi)

“तब त रूनि भयाँ हम आपन पहाड़ों में यार. ये भाबर में गरम, माक्ख, और मच्छरेत भय. एत्ति ज़रूर भै कि शिक्षा और स्वास्थ्ये सुविधा ठीक भै याँ. तबे लाया भयाँ तुमू” (तभी तो रहने वाले हुए हम अपने पहाड़ों में यार. इस भाबर में गर्मी, मक्खी और मच्छर ही तो हुए. इतना जरूर हुआ कि शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधा ठीक हुई यहाँ. तभी तो तुमको लाए ठैरे)-पिताजी ने बच्चों की भाबर आने की उत्सुकता को ऐसा आघात दिया कि उनका मन हुआ टनकपुर से ही वापस पहाड़ की उन ठंडी वादियों में लौट जाएँ जहाँ भाबर के लोग छुट्टियों में घूमने आते हैं और वाओ-वाओ, ऑसम जैसा कुछ अटपटा सा बोलते हैं. बहरहाल बात शिक्षा पाने की थी इसलिए वापस लौटने की जिद भी नहीं कर सकते थे. सिर्फ बच्चों के लिए तो पाई-पाई बचाकर भाबर में घर बनाया था पिताजी ने.

ईजा (माँ) हमेशा यही तो कहती थी “भाबर जाला, पढ़ला-लेखला और एक दिन भल और ठुल आदिम बनला च्यालौ” (भाबर जाओगे, पढ़ोगे-लिखोगे और एक दिन अच्छे और बड़े आदमी बनोगे बेटों). बड़ा आदमी बनने का तो पता नहीं लेकिन दीवान को यही समझ में नहीं आ रहा था कि ये भाबर की सड़कें इतनी सीधी क्यों हैं और ये हजारों हजार गाड़ियाँ सरपट कहाँ दौड़ी चली जा रही हैं. हमारे पहाड़ में तो दिन भर में इक्का दुक्का गाड़ियाँ ही नजर आती हैं. दीवान ने गंगा के कान में फुसफुसाते हुए कहाँ “यार गांगी! ये भाबर में हमर बसे ना भै ल रून” (यार गंगा! इस भाबर में हमारे बस की नहीं है रे रहना). इससे पहले कि गंगा कुछ बोलता उसके पिताजी उनके मन की अकुलाहट को समझ गए और बोले “थ्वाड़ दिनोंकि समस्या छ यार फिर तुम ले ये भाबरा है जाला” (थोड़े दिनों की समस्या है यार फिर तुम भी इसी भाबर के हो जाओगे).

उन दिनों पहाड़ के इंसान के लिए भाबर का हो जाना ठीक वैसा ही हुआ जैसे मछली का तालाब से बाहर मैदान का हो जाना. पहाड़ से भाबर आए इंसान का यहाँ मन ही नहीं लगता था. वह रह रहकर वापस पहाड़ जाने के बहाने ढूँढता था. गंगा और दीवान का दाखिला मझोला से 4 किलोमीटर दूर नानकमत्ता के सरस्वती विद्या मंदिर में करवा दिया गया. दोनों के लिए तराई-भाबर कालापानी की सजा जैसा हो गया. तमाम तरह के लोगों, उनकी भाषाओं, रहन-सहन, खान-पान, मक्खी और मच्छरों के बीच तालमेल बिठा पाना उन दोनों के लिए मुश्किल होने लगा. कुँमाऊनी में बोलने वालों के बीच तो वो सहज महसूस करते थे लेकिन हिंदी बोलने वालों के बीच अटपटा जाते थे. बहुत से कुँमाऊनी के शब्दों को वो हिंदी बोलने के दौरान मिक्स कर देते थे तो लोग हँस पड़ते थे. एक बार ऐसे ही गुरू जी ने दीवान से स्कूल में पूछ लिया कि गृहकार्य कर के क्यों नहीं लाया रे दिवान? तो उसने कहा “आचार्य जी लैट (लाइट) नहीं थी और लंफू (लैंप) बिना तेल के निमा (बुझ) गया था” इसलिए काम नहीं कर पाया. इतना सुनते ही पूरी क्लास जोर से हँस पड़ी. दीवान को समझ नहीं आया कि उसने ऐसा क्या गलत बोल दिया कि सब हँस पड़े हैं. लैट, लंफू और निमा जाना जैसे शब्द पहाड़ में उसके दैनिक जीवन के हिस्से थे लेकिन भाबर के बच्चों के लिए तो ये नए और कुछ अजीब थे.

हिंदी भाषा बोलना और सीखना उतनी बड़ी समस्या नहीं थी जितनी कि प्राइवेट पैसेंजर बस से स्कूल आना-जाना. पहाड़ से आए इन दोनों लड़कों के लिए बस से स्कूल आने जाने का सफर हिंदी बोलने से अधिक सफरिंग हो गया. शुरुआती दिनों में तो उन्हें पता ही नहीं चलता था कि बस कब कहाँ रूकी और उन्हें कहाँ उतरना था. कई बार ऐसा हुआ कि उतरना मझोला में होता लेकिन पता न चलने और कंडक्टर से पूछने में झिझक महसूस होने के कारण मझोला से 3-4 किलोमीटर आगे निकल जाते और फिर पैदल घर को वापस आते. ईजा को लगता था कि ये जानबूझकर बस में घूमने की मंशा से आगे तक जाते हैं और फिर वापस पैदल घर को आते हैं. गंगा और दीवान के साथ यह घटना आए दिन घटने लगी तो दीवान ने इससे निजात पाने का एक उपाय निकाला. उसने गंगा से कहा “बहुत हैगे यार गांगी रोजेकि ड्रामेबाज़ी” (बहुत हो गई यार गंगा रोज की ड्रामेबाज़ी). सुन स्कूल से वापसी के दौरान हम दोनों बस की सीट में एक साथ नहीं बैठेंगे. तू बस के आगे वाले दरवाजे के पास की किसी सीट में बैठेगा और मैं पीछे वाले दरवाजे के पास वाली सीट में. जैसे ही मझोला आने वाला होगा मैं जोर से चिल्लाऊँगा और तू बस्ता लेकर उतरने के लिए तैयार हो जाना.
(Story Kamlesh Joshi)

गंगा को स्कीम समझा दी गई. अब पूरा दारोमदार दीवान के कंधों पर था. उसे बहुत ही बारीक नजर से बस की खिड़की के बाहर देखना होता था और जैसे ही वह उस घर को देखता, जिसे उसने मझोला आने से पहले एक निशानी के तौर पर चुन रखा था, जोर से चिल्लाता “गांगी तैयार! मझोल आ गौ” (गंगा तैयार! मझोला आ गया). दीवान की आवाज और इशारे की ओर कान लगाए गंगा जैसे ही “गांगी तैयार” सुनता, अपना बस्ता लेकर बस के अगले दरवाजे की सीड़ियों पर खड़ा हो जाता. उतरने की चेतावनी देते ही दीवान भी पिछले दरवाजे की सीड़ियों पर खुद के पैर जमा लेता. इतने दिनों से बस की यात्रा के दौरान दोनों समझ गए थे कि अगर आपको किसी स्टेशन पर उतरना है तो उसके लिए बस की सीड़ियों पर आकर खड़ा होना होगा जिससे कंडक्टर को समझ आ जाए कि आप अगले स्टेशन में उतरने वाले हैं. गंगा और दीवान के स्कूली साथियों को उनकी इस शानदार सूझबूझ पर हँसी आती थी और वो हमेशा उन दोनों को “गांगी तैयार” कहकर चिढ़ाया करते थे.

समय के साथ गंगा और दीवान भाबर की जिंदगी के आदी हो गए और बाद के दिनों में दीवान को बस से उतरने के लिए “गांगी तैयार” भी नहीं कहना पड़ता था. समय गुजरता रहा और उन्होंने हिंदी के साथ ही कुछ-कुछ अंग्रेजी भाषा भी सीखी. पहाड़ में मंडुआ और गहत खाने वाले गंगा और दीवान ने भाबर में चाऊमीन और गोलगप्पे खाना भी सीख लिया. धीरे-धीरे दोनों पहाड़ से अधिक भाबर के हो गए. भाबर में रचे बसे इन दोनों बच्चों के लिए इनके पिता ठीक ही कहते थे “थ्वाड़ दिनोंकि समस्या छ यार फिर तुम ले ये भाबरा है जाला” (थोड़े दिनों की समस्या है यार फिर तुम भी इसी भाबर के हो जाओगे).
(Story Kamlesh Joshi)

कमलेश जोशी

नानकमत्ता (ऊधम सिंह नगर) के रहने वाले कमलेश जोशी ने दिल्ली विश्वविद्यालय से राजनीति शास्त्र में स्नातक व भारतीय पर्यटन एवं यात्रा प्रबन्ध संस्थान (IITTM), ग्वालियर से MBA किया है. वर्तमान में हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय के पर्यटन विभाग में शोध छात्र हैं.

हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online

इसे भी पढ़ें: दर्दभरी खूबसूरत कहानी ‘सरदार उधम सिंह’

Support Kafal Tree

.

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

View Comments

Recent Posts

नेत्रदान करने वाली चम्पावत की पहली महिला हरिप्रिया गहतोड़ी और उनका प्रेरणादायी परिवार

लम्बी बीमारी के बाद हरिप्रिया गहतोड़ी का 75 वर्ष की आयु में निधन हो गया.…

1 week ago

भैलो रे भैलो काखड़ी को रैलू उज्यालू आलो अंधेरो भगलू

इगास पर्व पर उपरोक्त गढ़वाली लोकगीत गाते हुए, भैलों खेलते, गोल-घेरे में घूमते हुए स्त्री और …

1 week ago

ये मुर्दानी तस्वीर बदलनी चाहिए

तस्वीरें बोलती हैं... तस्वीरें कुछ छिपाती नहीं, वे जैसी होती हैं वैसी ही दिखती हैं.…

2 weeks ago

सर्दियों की दस्तक

उत्तराखंड, जिसे अक्सर "देवभूमि" के नाम से जाना जाता है, अपने पहाड़ी परिदृश्यों, घने जंगलों,…

2 weeks ago

शेरवुड कॉलेज नैनीताल

शेरवुड कॉलेज, भारत में अंग्रेजों द्वारा स्थापित किए गए पहले आवासीय विद्यालयों में से एक…

3 weeks ago

दीप पर्व में रंगोली

कभी गौर से देखना, दीप पर्व के ज्योत्सनालोक में सबसे सुंदर तस्वीर रंगोली बनाती हुई एक…

3 weeks ago