फरहत का परिवार हमारे पड़ोस में रहता था. चूल्हे-चौके की तमाम गोपनीयता के बावजूद दोनों परिवार लगभग एक ही छत के नीचे थे. ब्रिटिश प्रशासकों ने तालाब के किनारे के बाज़ार बनाए ही उन भारतीयों के लिए थे, जो उनके लिए रोजमर्रा की चीजें मुहय्या करा सकें. छोटे-छोटे कमरों और संयुक्त गुसलखानों वाले ये दुमंजिले घर एक लाइन में बने रहते जिनकी छतें एक-दूसरे से जुड़ी रहतीं. घरों के सामने की ओर आधार तल में मुख्य बाज़ार था, जिसमें मकान-मालिकों की दुकानें होतीं, जिन्हें कुछ लोग किराए पर भी उठा देते, दुमंजिले में और पिछवाड़े की ओर उनके आवास होते. पिछवाड़े के नीचे की नालियों में गंदा पानी बहता रहता जो बाज़ार के अंतिम छोर पर एकत्र होकर मुख्य सीवर से जुड़ता था. गंदगी के बीच रहने के आदी इन भारतीयों के बड़ी उम्र के लोग अमूमन अस्थमा, टीवी या हड्डियों के रोग से ग्रस्त रहते. फरहत की मां भी इसी का शिकार हो गई थीं. उन्हें एकाएक मालूम पड़ा कि उन्हें छाती का कैंसर है. फरहत की अम्मी की कोठरी बैठक के पश्चिम की ओर थी – लकड़ी और टीन ठोक कर बनाई गई एक डिब्बेनुमा कोठरी, जिसका दरवाज़ा हमारे घर की ओर खुलता था. बड़े बाबजी को एक दिन मालूम पड़ ही गया कि फरहत की अम्मी को कोई लाइलाज बीमारी है.
फरहत की अम्मी, जो कुछ ही महीनों पहले तक बिना झिझक हमारे घर आ-जा सकती थी, सिवई, मिठाई और मठरी भेजती थीं, हम लोगों के बीच ऐसी दीवार बन गई जिसकी कल्पना ही करना हमारे लिए कठिन था. बड़े बाबजी को उन्हीं दिनों ख्याल आया कि हम हिंदू हैं और हमारे पड़ोस में एक विधर्मी रहता है. उन्हें फरहत के चूल्हे का उल्टा तवा और हलाल का मीट याद आ गया और तभी हमने भी जाना कि फरहत और हमारे बीच कितनी दूरी है. फरहत ने खतना किया है, वह भगवान को नहीं, खुदा को मानता है और खुदा भगवान का दुश्मन होता है. फरहत के पूर्वजों ने हमारे मंदिर तुड़वा दिए थे और वे लोग तो विदेशी हैं, इस देश के रहने वाले तो हम ही हैं…
बड़े बाबजी ने एक दिन फरहत के अब्बा मकबूल साहब से कह ही दिया ‘मियांजी, अपनी बीवी को कहीं अस्पताल-वस्पताल दिखाओ भाई, घर में रह कर तो वह दो-चार और लोगों को ले डूबेंगी. मुझे तो छूत की बीमारी लगती है, मरहम-पट्टी से काम नहीं चलेगा.’
‘सोच तो मैं भी रहा हूँ लाला जी. मगर क्या करुँ, डॉक्टर लोग इस रोग को लाइलाज बताते हैं. अपनी तरफ से जो हो सकता है कर ही रहे हैं. आगे खुदा की मर्जी…’
‘खुदा की मर्जी का इसमें क्या है, मियां. अपना परहेज नहीं करोगे तो खुदा भी क्या कर लेगा ? आप तो डूबोगे ही, अड़ोस-पड़ोस के लोग भी डूबेंगे.’
‘अब आप ही बताओ लालाजी, क्या करें ? बीवी को सड़क पर तो फैंक नहीं सकता. इसी मकान में ज़िंदगी काटी है. अच्छे-बुरे दिन यहीं देखे हैं. अच्छा-बुरा जो भी होगा, इसी घर में होगा…’
‘हमको इसमें ऐतराज है मियां’, बड़े बाबजी जरा सख्ती से बोले, ‘तुम लोग जैसे भी रहो, हमको तो अपना डर है. हम जानबूझ कर अपने सिर मुसीबत नहीं ले सकते.‘
‘अरे भाई, कोई रास्ता तो बताओ…’ मकबूल साहब खीझकर बोले.
‘रास्ता क्या है, कोई दूसरा मकान तलाश करो.’
‘यह आप क्या कह रहे हैं लालाजी ? अच्छे दिनों में साथ निभाया है आपने. दो-चार बुरे दिनों में भी साथ दीजिए किसी तरह. दिन हमेशा एक से तो रहते नहीं. फरहत मियां की वाल्दा क्या सोचेंगी ? उनको भी मालूम है, रोग लाइलाज है. वह खुद भी अपने दिन गिन रही हैं.’
‘हमसे तो यह नहीं निभेगा मियां,’ बड़े बाबजी ने अपना निर्णय सुनाया, ‘हमें भी अपने बाल-बच्चों को देखना है. जानबूझ कर हम अपने-आपको मुसीबत में नहीं डालना चाहते.’
म्हान की सीढ़ियां उतर रहे थे बड़े बाबजी, सामने से सीढ़ियां उतरता मोत्दा च्चा दिखाई दिया. हाथ में एक पोटली थी. देर से ही बदबू का एक भभका-सा महसूस हुआ बड़े बाबजी को. मोत्दा च्चा ने पोटली को भरसक छिपाने की कोशिश की.
‘क्यों, कहाँ जा रहा है मोती ठाकुर ?’ सहज ढंग से बड़े बाबजी बोले.
‘कहीं नहीं, ऐशे ही…’ अपनी सदाबहार हकलाहट में थोड़ा घबराहट घोलता हुआ मोत्दा च्चा बोला.
‘ये हाथ में क्या ले जा रहा है ?’ आगे बढ़ते हुए बड़े बाबजी बोले, तो उसी सहजता से मोत्दा च्चा ने जवाब दिया, ‘जरा कूड़ा-कबाड़ फैंक आता हूँ बाहर.’ बड़े बाबजी को मोत्दा च्चा के पास बदबू का भभका फिर महसूस हुआ, मगर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया उन्होंने.
‘इस घर में तो रहना हराम हो गया है…’, बड़े बाबजी बड़बड़ाते हुए बैठक में घुसे तो सीधे पीछे की तरफ के अंधेरे कमरे में चले गए.
न जाने क्या सोचते रहे अँधेरे कमरे में बड़े बाबजी, करीब आधे घंटे बाद एकाएक चिल्लाए, ‘मोती ठाकुर आया कि नहीं ?’
‘आ तो गया है, जरा बाज़ार भेजा है उसे. सब्जी काट रहा है.’ बुआ जी ने रसोई से ही जवाब दिया.
झटके से एक डंडा लेकर रसोई में घुसे बड़े बाबजी और जोर से एक डंडा पड़ा मोत्दा च्चा की पीछ पर बरसाते हुए चिल्लाए, ‘कहाँ गया था तू बता ? साले, झूठ बोलता है सुअर के बच्चे, हरामी की औलाद…’
घबराहट में उठ खड़ा हुआ मोत्दा. उसकी समझ में नहीं आया कि एकाएक यह क्या हो गया है ? ‘मैं… मैं… मैं…’ मोत्दा च्चा की हकलाहट और बढ़ गई थी.
‘क्यों ऐसे पीट रहे हैं उसे ? क्या किया उसने,’ बड़े बाबजी के सामने कभी न बोलने वाली बुआ जी से जब नहीं रहा गया तो मोत्दा च्चा की पीठ अपने हाथों से ढकती हुई बोलीं.
‘पूछो इस हरामी साले से, कहाँ गया था ये ?’ बड़े बाबजी डंडा मारने वाले ही थे कि बुआ जी ने उसे अपने पीछे धकेल दिया.
‘क्यों, कहाँ गया था रे ?’ बुआ जी मोत्दा च्चा से बोलीं. फिर खुद ही जवाब देने लगीं, ‘जरा झाड़ पात फैंकने के लिए भेजा था इसे सड़क पर.’
‘झाड़-पात फैंकने गया था या कहीं और ?’ झटके से बड़े बाबजी ने मोत्दा च्चा को बुआ जी के हाथों से छीना और एक डंडा फिर जमाते हुए चिल्लाए, ‘बोल, कहाँ गया था ?’
‘श-श-श-ड़क के नल पर…’ घबराहट में मोत्दा च्चा इतना ही बोल पाया था.
‘क्या करने गया था ?’ कान खींचते हुए बड़े बाबजी फिर चिल्लाए.
‘क-क-कपड़े…’ मोत्दा च्चा बड़ी मुश्किल से इतना ही बोल पाया और फिर रोने लगा.
बड़े बाबजी ने उसके बाल पकड़कर जमीन पर पटकते हुए पूछा, ‘बोल, किसके कपड़े ?’
‘फ-फ-फर-हत की इजा के…’ अपनी हकलाहट के बीच बड़ी मुश्किल से मोत्दा च्चा बोल पाया और फिर दहाड़ मार कर रोने लगा.
‘क्या…’ बुआ जी भी झटके से पीछे हट गईं, जैसे कोई जहरीला कीड़ा सामने आ गया हो, ‘तभी तो मैं सोच रही थी, झाड़-पात फैंकने में इतनी देरी कैसे लगी ? इस नाशी ने तो हमारा धरम-करम हमारा धरम-करम सब चैपट कर दिया. अब हम सब को कोढ़ी बनाएगा ये….’
‘जा, निकल जा अभी हमारे घर से! आइंदा पाँव रखने की जरूरत नहीं है इस घर में. साला अच्छा आस्तीन का साँप निकला ये…‘
मोत्दा च्चा चुपचाप सिसकियाँ भरता रहा.
‘जाता है या यहीं इस डंडे से सिर फोड़ूँ तेरा ?’ बड़े बाबजी का गुस्सा चरम पर पहुँच गया था. बुआ जी भी बड़बड़ाती हुई रसोई के कामों में लग गई थीं. मोत्दा च्चा की काटी हुई सब्जी और मले हुए बरतनों को उसने दुबारा पानी से धोया.
एकाएक बड़े बाबजी ने मोत्दा च्चा का कान पकड़ा और बकरी के बच्चे की तरह उसे खींचते हुए बाहर ले गए, और बैठक के दरवाजे से उसे बाहर की ओर धक्का दे दिया. दरवाज़ा बंद किया और अँधेरे कमरे में चले गए.
तीन-चार घंटे के बाद रात जब गहरा गई थी, हम भाई बहन जिज्ञासावश बाहर निकले तो धीरे से आवाज़ देकर हमने फरहत को बुलाया. फरहत की अम्मी की कोठरी से क्षीण-सी आवाज़ आ रही थी, ‘या खुदा, अब उठा क्यों नहीं लेता ?… हाय रे, क्या रखा है इस ज़िंदगी में…’
फरहत ने जल्दी ही हमारी आवाज़ सुन ली थी. वह भी हमारी तरह मोत्दा च्चा की ही चिंता में था. हम लोग सीढ़ियों से नीचे उतरे. मोत्दा च्चा को खोजने की कोई तरकीब सोच ही रहे थे कि सड़क के लैंप पोस्ट से आती हुई रोशनी में हमने देखा, सीढ़ी के नीचे अँधेरे में, जहाँ कभी-कभी कूड़ा-कबाड़ भर दिया जाता था, मोत्दा च्चा अपने घुटनों पर माथा रखे, गुड़मुड़-सा बैठा था. सबसे पहले फरहत की ही नज़र उस पर पड़ी…. ‘मोत्दा च्चा…’ उत्तेजनावश एक दबी-सी चीख निकल गई उसके मुँह से.
फरहत ने बताया कि उसके वालिद साहब बड़े नाराज हुए अम्मी पर. मोत्दा च्चा से अपने कपड़े धुलवाने को लेकर बहुत गालियाँ दीं अब्बा ने अम्मी को. गुस्से में पीटने भी लगे. आखिर में एक तरकीब सोची हम लोगों ने. मैं बुआ जी से और फरहत अपनी आपा को किसी तरह मना कर आज का खाना मोत्दा च्चा को यहीं दे जाएंगे और आज रात वह यहीं सो जाएगा. हालांकि कोशिश काफी करनी पड़ी, लेकिन बुआ जी भी मान गईं और फरहत की आपा भी. बड़े बाबजी और फरहत के अब्बा दोनों जब सो गए तो हम लोग चुपके से मोत्दा च्चा को खाना दे आए.
जिन सीढ़ियों के नीचे मोत्दा च्चा सोया हुआ था, वह इतनी छोटी जगह थी कि उसमें कोई भी व्यक्ति सिर्फ बैठ सकता था, सोने का तो कोई सवाल ही नहीं था. रात को बिना ओढ़े-बिछाए, बिना पाँव फैलाए, पता नहीं किस तरह पड़ा रहा मोत्दा च्चा. किसी को मालूम भी नहीं पड़ा कि वे घर पर ही हैं. बड़े बाबजी ने भी उनके बारे में पूछा, न फरहत के अब्बा ने. दूसरे दिन फरहत और हम लोग जब मोत्दा च्चा के पास पहुँचे तो उनका एक नया रूप देखा. सिर, चेहरा, हाथ-पाँव और सारे कपड़े धूल की मोटी परत से भरे हुए थे. आँखों में धूल-सनी कीचड़ और नाक से बहती रेंट चेहरे के इर्द-गिर्द फैलकर जम गई थी.
बुत की तरह बैठा था मोत्दा च्चा, जैसे कि मिट्टी की धूल भरी कोई पुरातात्विक मूर्ति हो. तभी टाट के पर्दे से अपना चेहरा थोड़ा-सा बाहर निकाल कर, धीमी आवाज़ में वह फरहत से बोला, ‘तु-तु-म्हारी इजा के कपड़े बहौत भीग गए होंगे यार…. कुठड़ी के आगे पेटी में सुखाने डाल रखे हैं. वो कपड़े दे आओ अपनी इजा को. भीगे हुए कपड़े ले आना.‘
‘छी‘छी-छी…!’ फरहत घृणा से अपनी नाक दबा कर बोला, ‘मैं नहीं छूता वो कपड़े. मैं तो अम्मी की कोठड़ी में जाता भी नहीं.’
‘तेरी इजा है शाले वो. अपनी इजा के कपड़े नहीं ला शक्ता तू ?’ बुजुर्गाना अंदाज़ में मोत्दा च्चा बोला.
‘तू ही क्यों नहीं चला जाता च्चा ?… बड़ा आया गंदगी फैलाने वाला….’ फरहत पीछे हटता हुआ बोला.
‘अपनी दीदी से कह दे. वो लाकर मुझे दे देगी. कल के कपड़े शूख गए होंगे, वो तो दे आओ यार!…’
‘चल हट, आपा भी नहीं छूती अम्मी के कपड़े. अपने को भी सड़ाना है क्या ?’
‘ले आ दो यार, तुम्हारी इजा रो रही होंगी. भौत दरद हो रहा होगा उनको.’
‘बक-बक मत कर च्चा, मुझे अब्बा के हाथों पिटना नहीं है.’
चौथे दिन फरहत की अम्मी चल बसीं. इस बीच मोत्दा च्चा बड़े बाबजी और मकबूल साहब से नजर बचाकर गंदे कपड़े धोता रहा और उन्हें धुले कपड़े भी पहनाता रहा. चौथे दिन सुबह को जब फरहत की अम्मी की कोठरी में मोत्दा च्चा की चीख सुनाई पड़ी तो दौड़े-दौड़े मकबूल साहब कोठरी में गए. मोत्दा च्चा तो वहाँ नहीं था, अलबत्ता उनकी बीवी एक ओर लुढ़की पड़ी थी. बदबू के भभके के बीच उनके ऊपर मक्खियाँ भिनभिना रही थीं.
मकबूल साहब के साथ शाम को जब मोत्दा च्चा लौआ तो बिना सीढ़ियाँ चढ़े नीचे अपनी कोठरी में घुस गया. वहाँ से उसे न बड़े बाबजी ने बुलाया, न मकबूल साहब ने. धीरे-धीरे मोत्दा च्चा की कोठरी बन गई वह जगह. शाम का खाना बुआजी मेरे हाथों भिजवा देतीं. दोपहर को फरहत या उसकी आपा नसीम बानो उसे खाना दे जातीं.
दो-ढाई सालों तक मोत्दा च्चा उसी कोठरी में रहे. इस बीच आड़ी-तिरछी पानी की बौछारें भी मोत्दा के ऊपर पड़ी होंगी, बर्फीली हवाएँ भी बेझिझक घुसी होंगी; मगर मोत्दा च्चा ने ये सारे कष्ट अपनी एकमात्र झुलस गई कमीज़ और मैल के चीकटों से भरी नेकर में झेले. कुछ दिनों बाद हम लोग अलबत्ता उस कोठरी में मोत्दा का बिस्तर डाल आए थे और कोठरी के आगे मोटी दरी का परदा ठोंक आए थे. हर सुबह जब हम मोत्दा च्चा को देखने जाते तो वह अपनी सदाबहार रहस्यमय मुस्कराहट में दिखाई देते. हमारे लिए उन्हें देखना चिड़ियाघर में कैद किसी विचित्र जानवर को देखने के समान बन गया था…
…चिता में जोर की आवाज़ हुई…. शायद मोत्दा च्चा बड़बाज्यू का घुटना तड़का था. एकाएक खयाल आया कि बरसों तक एक ही तरह से मुड़ा, सर्दी, बरसात और गरमी के असह्य थपेड़े सह चुका घुटना कितना सख्त हो चुका होगा! चटखने में इसीलिए इतनी तेज़ आवाज़ हुई है. कफन अधिकांश जल गया है. छाती और चेहरे पर कफन का जो हिस्सा बचा हुआ है, उसका रंग भी सूख कर मटमैला हो चुका है. चारों ओर आग, मांस, लकड़ी, कपड़ा और घी की मिली-जुली अजीब-सी गंध फैली हुई है जिसे सिर्फ एक ही नाम दिया जा सकता है – मोत्दा च्चा गंध. फरहत और काली सिंह बाँस के डंडों से चिता के अंदर हवा जाने का रास्ता बना रहे हैं, गिरे हुए अधजले भारी-भरकम लकड़ी के गिंडों को नदी के पानी में भिगा कर फिर से चिता के ऊपर डाल रहे हैं. आग की ऊँची लपटों के बीच जैसे मोत्दा च्चा बड़बाज्यू का अस्तित्व वायुमंडल में रेशे-रेशे बिखर रहा है… शांत और चुपचाप!…
मोत्दा च्चा बड़बाज्यू की दैहिक कहानी यहीं खत्म हो गई थी, मगर अज़ीब-सा इतिहास रच गए थे वो. उनकी अस्थियाँ लेकर फरहत, मैं और काली सिंह एक पंडित के साथ हरिद्वार गए थे, यह जानते हुए कि यह सब फालतू कर्मकांड है. इससे न मोत्दा च्चा को कोई फर्क पड़ने वाला है और न बड़े बाबजी, मकबूल साहब या मुझे और काली सिंह को. सब अर्थहीन था, मगर फरहत के लिए इसका महत्व था. अगर यह कर्मकांड न किया गया होता तो फरहत को लग रहा था कि उसकी मृत्यु के बाद मोत्दा च्चा को मोक्ष मिले, न मिले, उसकी बेचैन आत्मा भटकती रहेगी. जिस दिन मोत्दा च्चा की मृत्यु हुई, फरहत बार्डर के कस्बे में पुलिस कप्तान के पद पर था. खबर मिलते ही उसने छुट्टी के लिए आवेदन दिया, तो भी सारी कार्यवाही होने में दो दिन का वक्त तो लग ही गया. अधिकारियों की समझ में नहीं आ पा रहा था कि एक हिंदू घरेलू नौकर की अंत्येष्टि में कप्तान साहब क्यों हिस्सा लेना चाहते हैं ? लेकिन फरहत ने रात दिन दौड़धूप की. उन दिनों मोबाइल का जमाना नहीं था, फोन काॅल मिलने में भी घंटों लग जाते थे. मोत्दा च्चा के साथ फरहत का सच्चा प्रेम ही रहा होगा, कि वह दो-तीन जगह टेक्सियाँ बदल कर तीसरे दिन नैनीताल पहुँच ही गया. मोत्दा की इच्छा के मुताबिक हम लोग फरहत के आने तक रुके रहे, और फरहत की इच्छा के मुताबिक उसी ने मोत्दा च्चा को मुखाग्नि दी.
लक्ष्मण सिह बिष्ट ‘बटरोही‘ हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं. काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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बहुत अच्छी कहानी थी जो दिल को झकझोरने वाली