एक कस्बा था जहाँ सारी चीजों की मनाही थी. (Story Bagawat Ki Wajah)
अब चूँकि सिर्फ गुल्ली-डंडा का खेल ही इकलौती-सी चीज थी जिसकी मनाही नहीं थी, तो सारे लोग कस्बे के पीछे के घास के मैदान पर जुटते और गुल्ली-डंडा खेलते हुए अपने दिन बिताते.
और चूँकि चीजों को प्रतिबंधित करने वाले कानून हमेशा बेहतर तर्कों के साथ और एक-एक कर बनाए गए थे, किसी के पास न तो शिकायत करने की कोई वजह थी और न ही उन कानूनों का आदी होने में उन्हें कोई मुश्किल आई.
सालों बीत गए. एक दिन हुक्मरानों को समझ में आया कि हर चीज की मनाही की कोई तुक नहीं है तो उन्होंने सारे लोगों तक यह बात पहुँचाने के लिए हरकारे दौड़ाए कि वे जो चाहे कर सकते हैं.
हरकारे उन जगहों पर गए जहाँ जुटने के लोग आदी थे.
‘सुनो, सुनो’ उन्होंने ऐलान किया, ‘अब किसी चीज की मनाही नहीं है.’
जनता गुल्ली-डंडा खेलती रही.
‘समझ में आया?’ हरकारों ने जोर देकर कहा, ‘तुम जो चाहो वो करने के लिए आजाद हो.’
‘अच्छी बात है,’ लोगों ने जवाब दिया. ‘हम गुल्ली-डंडा खेल तो रहे हैं.’
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हरकारों ने जल्दी-जल्दी उन तमाम अनोखे और फायदेमंद धंधों की बाबत उन्हें याद दिलाया जिनमें कभी वे सब मसरूफ हुआ करते थे और अब, वे एक बार फिर से उन्हें कर सकते थे. मगर लोगों ने उनकी बात नहीं सुनी और वे बिना दम लिए, प्रहार दर प्रहार गुल्ली-डंडा खेलने में लगे रहे.
अपनी कोशिशों को जाया होते देख हरकारे यह बात हुक्मरानों को बताने के लिए गए.
‘सीधा-सा उपाय है,’ हुक्मरानों ने कहा. ‘गुल्ली-डंडा के खेल की ही मनाही कर देते हैं.’
यही वह बात थी जिस पर लोगों ने बगावत कर दी और हुक्मरानों को मार डाला और बिना वक्त बर्बाद किए वे फिर से गुल्ली-डंडा खेलने लगे. (Story Bagawat Ki Wajah)
(इतालो काल्विनो की कहानी अनुवाद – मनोज पटेल)
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