यूँ तो हमारे आसपास होने वाले घटनाक्रमों के बीच कई बार ऐसा भी होता है कि कोई अंजान शख़्सियत किसी ख़ास शख़्सियत से इस क़दर मेल खाती है कि लोग असल शख़्सियत का नाम इस अंजान शख़्सियत को दे बैठते हैं. धीरे-धीरे वह अंजान शख़्सियत असली शख़्सियत का ऐसा नाम रोशन करती है कि समाज उस अंजान का नाम भूल उसे असली समझ कर असली वाले को भूल जाता है. आज बात एक ऐसे ही शख्स की जो हमारी आंखों के सामने बरस नब्बे या उससे भी पहले आया होगा. करीब पाँच फीट का गठीला, ताकतवर, होमो सैपियंस या चिम्पांजी सरीखा एक नेपाली नौजवान जो ‘चार्ली चैपलिन’ की चाल चलता अपने आप में मगन रहकर चुपचाप बोझा उठाने का काम किया करता. शायद इसका एक कारण यह भी रहा हो कि वह स्थानीय पहाड़ी या हिंदी भाषा से अनजान था. (Stories of Almora)
जो भी रहा हो यह नेपाली एकदम सिक्स पैक वाले गठीले बदन का मालिक था जिसकी गर्दन और घुटने के नीचे पिंडलियों पर ‘मछली’ देखकर ही उसकी ताकत का अंदाज हो जाता था. वह अपनी पाज़ामा को परत-दर-परत घुटनों तक मोड़ कर पहनता. पर हमारा उस से वास्ता गैस सिलेंडर व कोयला मंगाने तक ही था. वह 2 सिलेंडर या एक क्विंटल कोयला आसानी से ले आ सकता था. इसके अगले पाँच-सात सालों में मुझे यह नेपाली जिसका असली नाम ‘लाल बहादुर’ हुआ करता, कभी कभार छुट्टियों पर मेरे घर आने पर दिखता. सीधा- सादा, ईमानदार, कर्मठ, अल्पवाक लालबहादुर वक़्त के साथ और ताकतवर हो चला था और अब एक साथ तीन-तीन भरे गैस सिलेंडर उठाने लगा था. सबसे मजेदार बात यह हुई कि इसकी ताकत व गुणों को देखकर इसका नया नामकरण किया जा चुका था. हमें नहीं पता कि यह नाम किसका दिया हुआ था पर ‘लालबहादुर’ का यह नाम था ‘हनुमान!’ ‘हनुमान’ लगातार हमारी नज़रों के सामने रहा और हम उसकी मेहनत, ईमानदारी और ताकत के का़यल रहे. लेकिन यह बात भी सच है कि हमारे ही सामने लगातार हमारे समाज ने ‘हनुमान’ नाम देकर भी इसे बार-बार छला. नतीजतन वक्त गुज़रने के साथ हनुमान को चीजें समझ आनी शुरू हुईं और वह हमारे समाज के ही आईने के रूप में ढलने लगा. अब वह हिन्दी, पहाड़ी व नेपाली मिश्रित भाषा भी बोलने लगा और साथ में वाज़िब मजूरी व अपनी मर्जी के काम को वरीयता देने लगा.
देखते-देखते नब्बे का दशक बीत गया और इकीसवीं सदी शुरू हुई पर हनुमान अब भी लगातार बोझा उठाते हुए अपने में मगन रहता. अब तक हनुमान एक ही किराये के कमरे में कई नेपालियों के समूह में रहता आया था, जहाँ वह खाना बनाने के अलावा भी कई काम कर दिया करता. अपने खाने का पैसा चुकाता और रात को वहीं सो जाया करता. इन नेपालियों में कुछ स्थानीय सब्जी मंडी में काम करने लगे जहाँ कच्ची शराब का ठेका था, नतीजतन उसमें कुछ दिलजले शाम को लौटते हुए ग़म गलत करने लगे. रात को यही दिलजले नशे में हनुमान को परेशान करते. कभी पीने को जबरदस्ती करते तो कभी अपने हिस्से का काम कराते. कई बार तो उस पर पैसे चोरी करने का इल्जाम भी लगाते. एक रात तो उत्पात मचाकर हनुमान को कमरे से बाहर कर दिया गया. ऐसे में सुबह काम पर जाते हुए गली के छोर पर हनुमान ने अपनी आपबीती न जाने क्या सोचकर मुझे बताई. मैंने उन मेटों को हनुमान को परेशान न करने की चेतावनी दी. दो-चार दिन की शांति के बाद फिर हनुमान ने मुझसे पैसे चोरी व मारपीट की शिकायत की तो मैनें उसे हमारी रिश्ते की बुआ से शिकायत करने को कहा जिनके मकान में यह सब नेपाली रहा करते थे. बुआजी ने सुनकर दबंग रुख अपनाया और उन मेटों को निकाल बाहर किया पर अफसोस अब शराब के खुले चलन के चलते यह सिलसिला रुका नहीं. कोई न कोई मेट पीकर सीधे-सादे हनुमान को परेशान कर ही देता.
फिर एक ऐसी ही रात हनुमान से मारपीट कर उसका सामान कुछ शराबी मेटों ने बाहर फेंक दिया और रातभर हनुमान अपने बोरिया बिस्तर के साथ ठंड में पड़ा रहा. ऐसे में बेचारे ‘हनुमान’ को दया भावना से भरी हमारे मुहल्ले के पास रहने वाली एक दीदी, जिन्हें उनके पीछे,पर प्यार से सब ‘थापुली’ पुकारते, ने मानवीय संवेदना से भरकर अपने बड़े मकान की खोली में जगह दे दी. प्यार, मानवता व भावनाओं से भरी ‘थापुली’ दी बड़ी खुशमिज़ाज व खूब बोलने वाली थी. बस फिर क्या था ‘हनुमान दी गड्डी’ चल निकली. वह दिन में बोझा ढोता, गैस सिलिंडर सारता पर अब सिर्फ तीन मुहल्लों के काम किया करता. खाली वक्त में वह ‘थापुली’ दी के खेतों की देखभाल भी करता. दीदी व उनकी ईजा खुद भी अपनी क्यारियों में लगीं रहतीं पर ‘हनुमान’ की मेहनत विशेषकर निराई, गुड़ाई, खाद-पानी आदि से हरे सागपात, हल्दी, लहसुन, नींबू, गल्लर की ऐसी फसल लहलहाई कि हम देखते रह गए. बदले में थापुली दी भी हनुमान का ख़ूब ख़्याल रखती. उसे दाना-पानी दे दिया करती और गोठमाल में एक बड़ा सा मेज तो हनुमान के सोने के लिए था ही लत्ते-कपड़े कहीं से मिल ही जाते.
यूँ ही वक्त गुजरता रहा. एक बरस होली की छलड़ी पर हनुमान को ऊपर मुहल्ले के उसके एक भगत ने थोड़ा-थोड़ा करते जमकर पिला दी और हनुमान हमारी होली टोली के साथ हो लिया और नशे में सही गलत ताली बजा व गाकर लोटपोट हो गया. उस दिन थापुली दीदी ने उसकी ख़ूब ख़बर ली और जैसे-तैसे लड़कों से पकड़वा कर नहलाया-धुलवाया. इस तमाशे के बाद हनुमान सारे मुहल्ले वालों से खुल गया पर उसके मुंह में खून सा लग गया और अब वह छिप-छिपाकर पीने लग पड़ा. मौका मिलते ही एक पव्वा सुड़का लेता.
इसके बाद हुआ यह कि आसपास के मुहल्ले वाले चोरी-छिपे हनुमान से शराब मंगवाकर बदले में दस-बीस रुपये उसे दे देते और एक आध पैग अलग. अब “पटवारी-मास्टर का है..!” कहता हनुमान रोज़ शाम बोतल लिए दौड़ लगाता हुआ मिलता. अब हनुमान की ख्याति दूर-दूर तक फैलने लगी. इन तीन मुहल्ले में ही उसे इतना काम हो गया कि उसे काम की कमी न होती विशेषकर उसके अपने दिन मंगलवार को तो वह अलसुबह तीन बजे से गैस सिलेंडर, गैस स्पाॅट तक पहुँचाने लगता. ऐसे में उसे जरूरत हुई एक सहायक की जो स्पाॅट पर लाइन में लगे सिलेंडरों की देखभाल कर दें क्योंकि दो एक बार उसके सिलेंडर चोरी हो गए. ऐसे में हनुमान की संकटमोचक बनी थापुली दी जिन्होंने उसका यह मैनेजमेंट सम्भाला. .लोग कहते कि दीदी ने उससे पाटनरशिप की थी पर सच पता नहीं, पर जो भी हुआ अच्छा हुआ.
यूँ ही कई साल गुजर गए और हनुमान की इज़्जतअफ़जाई बढ़ती गई और उसका हौसला व आत्मविश्वास दोनों ही थापुली दी के सानिध्य में बढता रहा. अब वह सबसे बोलता चालता पर पव्वे का चस्का भी उसने अपना लिया. इधर हमारे मुहल्ले को ‘हनुमान वाली गली’ कहा जाने लगा. मुहल्ले से बाहर के लोग ‘हनुमान’ को ‘हनुमानजी’ कहते. उन तीन मुहल्ले के बीच से गुजरने वाले कई सीधे सादे ग्रामीणों को मैंने हनुमान के पैर तक छूते देखा. बदले में हनुमान आदमी हो या औरत..”हों तो बाउजी आ गया. किदर को जाता. हां बाउजी… बजार को जाता… अल्ले मील खाना नी खाया, आप खाया. ओहौहह..!” जैसे तकियाकलाम हर एक से हर मुलाकात पर कहता. सुबह तीन से पाँच बजे तक के सिलेंडर अपने पास रखता और फिर छह बजे वाले घरों के गेट से आवाज “बाउजीईईईईईईईईईई..!” ऐसे लगाता जैसे कोई उसे पीट रहा हो और वह आपके दरवाजे पर बचाने की गुहार लगा रहा हो. हनुमान की यूँ ही ‘मौज़ ए मेहनत’ चल रही थी, न जाने किसकी नज़र लगी कि अचानक थापुली दी सख़्त बीमार हुईं और दो एक महीने के वक्फ़े में चल बसी. अब लोगों को हनुमान से सहानुभूति सी हुई, इस चक्कर में कुछ लोग सिबौ-लिबौ कह कर दो-चार पैग जबरन पिला देते.
हनुमान को अब कोई रोकने या डाँटने वाला न था, लिहाजा वह जम कर पीने लगा. थापुली दी के घरवालों ने उसके ज्यादा पीने पर एतराज किया तो हनुमान बोरिया-बिस्तरा लेकर हमारे मुहल्ले के ‘पंडितजी’ के दरवाजे पहुचँ गया. उदारदिल पंडितजी ने कहकहा कर मुहल्ले के एक पुराने मकान का गोठ खुलवा दिया. यहाँ भी हनुमान पीने लायक कमा कर भट्टी से कच्ची की बोतल उठा लाता और किसी भी समय श्रीगणेश कर लेता. पंडित चाचा व बुआजी सवेरे चाय से लेकर रात के खाने की पूर्ति कर देते और समझाते, पर हनुमान कहाँ माने. एक दिन नशे में धुत्त हनुमान पंडितजी से बोला- “पंडजी रात को सोए में कोई मेरा गला दबाता है.” चाचा हसँकर बोले..”कुछ नहीं हनुमान तुझको भैम हो रहा है. वह बोला “मैं नई सोयेगा अंदर बाबूजी.” बस उस दिन के बाद हनुमान अंदर न सोकर गोठ के बाहर गोठम्वाल में सोने लगा. सोता क्या धुत्त होकर बिस्तर लगाकर उस पर अचेत हो जाता. कई दफा रात को कुत्ते, बिल्ली बिस्तर में घुस जाते. यहाँ तक कि कुकुरी बाघ तक उसके बिस्तर से कुत्ते उठा ले जाता. फिर उस बरस होली की रात को जब हम धुनी में आग जलाकर बैठे थे तो हनुमान अपनी गली को पार कर चैपलिन की अपनी चाल चलकर हम तक पहुँचा और एक किनारे बैठ चाँद की ओर देखकर बड़बड़ाता रहा था. होली की उस अंतिम रात गाने-बजाने के बाद हमने हनुमान को निकट बैठा कर पूछा कि चाँद को देखकर क्या कह रहा था तब वह थापुली दी का नाम लेकर बोला कि वह वहाँ पर है, सब लोग उसकी उन इमोशनल बातों को एकटक सुनते हुए दुखी हो लिए.
इसके बाद शहर में रात को गुलदार के खौफ़ के चलते ‘पंडित चाचा’ ने पुराने सोफे व फोल्डिंग चारपाई की बाढ़ लगानी शुरू की जिससे उसका खासा बचाव हुआ. लेकिन इसके बावजूद दो-तीन बार गुलदार से उसका पाला पड़ा, ऐसा हनुमान बताता. अब पीने की आदत से लगातार उसकी ताकत में कमी आती गई और वह एक-एक कर सिलेंडर ढोता. इसका तोड़ हनुमान ने यह निकाला कि वह कबाड़ इकट्ठा करने लगा जिसमें बोतलें, लोहा, प्लास्टिक आदि शामिल रहता. जिसे हनुमान अपनी भाषा में ‘क्वाड़’ कहता और मैं हनुमान को ‘हनुमान क्वाड़ी!’ इसमें उसका समय भी पास होता और पीने के अतिरिक्त रुपये भी मिल जाते. इधर कबाड़ के व्यापारी भी हनुमान को बड़ी इज़्जत देते और ‘हनुमान जी का कबाड़’ कह कर ईमानदारी से पैसा देकर विस्मिल्लाह करना पसंद करते कि इससे बिजनिस में बरकत आएगी.
अब भी हनुमान होली मनाता है और सुबह से कच्ची, पक्की के ऊपर दम भी लगा लेता है फिर हँसकर विक्षिप्त सा हो जाता है. दिन भर इधर-उधर समय बिता वह आज भी रात में पंडित चाचा के दरवाजे पर आकर कुछ खाकर गोठम्वाल में सोता है. भोग के नाम पर उसे झुलसैन मिर्च वाली तीखी नमकीन और ढेर सारा गुड़ चहिए होता है जो वह खुश होने पर आपसे कभी भी माँग सकता है.
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फिर आई कोविड महामारी. हनुमान बचा रहा पर पीने को मरा रहा. हैरान-परेशान हनुमान जैसे-तैसे शुरू में जुगाड़ने में सफल रहा फिर कई माह बिना पिए भी रहा. उसके बाद आई दूसरी लहर जिसमें अच्छे-भले निबटे और हम भी बाल-बाल बचे. एक दिन गोकुल चाचा आवाज़ लगा बोले – “यार लगता है हनुमान का वक्त आ गया. पक्का कोरोना है पता नही कहाँ प्राण छोड़ दें. कितनों को संक्रमित करे. कदम-कदम पर गिरकर अचेत सा हो जा रहा है. क्या करें..?” उसकी हालत वाकई हालत गम्भीर थी आनन-फानन में मेजरनामा बनाया कि मानवीय आधार पर संक्रमित नेपाली हनुमान को इलाज दिया जाय और समाज सेवी प्रकाश दा को लेकर लोकल थाने पहुँचा. रात आठ बजे बेस हस्पताल से फोन आया कि आधा घंटे में ऐम्बुलेंस पहुँचेगी मरीज तैयार रखें. खोली में जाकर देखा हनुमान अपना बिस्तरा ओढ़कर खाँसी से दोहरा हुआ जा रहा था. हुक्का क्लब तक ऐम्बुलेंस आ पहुंची. अब हनुमान को समझा-बुझा उसके कंबल सहित मैं और पंडित चाचा पीछे-पीछे चले. हजारों जज़्बातों के साथ सुबकते हुए यूँ लगा कि हनुमान की अर्थी कंधे पर लिए जा रहे हैं. मेरे पीछे पंडित चाचा मंत्रोचार के साथ चल रहे हैं. अंत में कम्बल डाले हनुमान को ऐम्बुलेंस में बैठाकर चलने पर हमने हाथ हिलाकर ऐसे विदा किया लगा कि जैसे हनुमान अपनी अंतिम व अनंत यात्रा पर निकल पड़ा हो. वापस लौटते हुए शोकाकुल हम दोनों में बात तक न हुई.
दूसरे दिन सारे ग़मगीन मुहल्ले को अपनी दिनचर्या शुरू करने में खासी अबेर हो चुकी थी और सब जैसे हनुमान के जाने का ग़म मना रहे हों. सारा दिन यूँ ही अनमने भाव में गुज़र गया. तीसरे दिन सुबह हनुमान के चल दिए जाने की हवा उड़ी. नहीं-नहीं भागने की हवा थी. दिल जोर से धड़कने लगा. अचानक अख़बार की ख़बर पर किसी की नज़र पड़ी. ‘एक नेपाली कोरोना मरीज बेस हस्पताल से भागा. कइयों की नौकरी खतरे की जद में.’
दिन के साढ़े ग्यारह बजे अचानक मुहल्ले में हलचल मची और जोर-जोर से बोलने की आवाजे आने लगी. नीचे उतर कर मुहल्ले की तरफ देखा तो मुहल्ले वाले अपने घरों से निकल उसके आने से खुश हो रहे थे. अपनी खोली की दीवार पर बैठे हनुमान ने चाय की सुड़ुप लेते हुए मुझे देखकर मुस्कुराते हुए उल्टा मुझसे ही पूछा – “हौं तो बाउजी, आ गया?”
-कुमार सुशील तिवारी ‘सुकुमान’
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आप सच में बहुत सुंदर लिखते हैं 💐👌👏