उनकी उम्र के बारे में ठीक-ठीक कुछ कहना मुश्किल है. गाँव के खांटी किसान. कद-काठी-काया ऐसी कि इस तरफ से देखो तो बमुश्किल पैंतालीस पचास के और उस तरफ से सत्तर के कम के तो क्या रहे होंगे. उन्होंने बड़े सलीके से पन्नी के अंदर अनेक परतों में सहेजे कागज़ को निकाल सहलाते हुए दिखाया था जिससे पता चलता था कि वो ‘आज़ाद हिंद फौज’ के सिपाही रहे थे और वहाँ से होते हुए सन उन्नीस सौ चौवन में फौज से रिटायर हुए थे. आप उम्र का अंदाज़ा लगाना चाहें तो इतना भर काफी नहीं होगा न. (Statement of a Soldier of Azad Hind Fauj)
हमारी कुछ घण्टों की मुलाकात नई अँखुवाती हुई सदी के शुरुआती साल में हुई थी… 2002. स्थान था अलमस्त बनारस. बनारस की कचहरी के उस बूढ़े बरगद की छांव में, ट्रांजिट होस्टल के एक कमरे में. उनकी उम्र जो थोड़ी देर बाद मुझपर खुली थी वो उस बूढ़े बरगद के जितनी थी. उस बरगद की उम्र का अंदाज़ा लगाना भी तो मुमकिन नहीं है. राम अधार भी पक्के बनारसी थे. अलमस्त, औघड़ और ठेठ. कुछ घण्टों में जन्म भर का खुल जाने वाले. कुछ पलों में सब बिसरा कर चल देने वाले. न! झोला उठा कर नहीं, भले उनके झोले से आती मिट्टी और पसीने की गंध बूढ़े बरगद की उम्र की हो चली थी, वो फिर भी झोला भी दे देने वाली पीढ़ी के थे. मुझे भरपूर रस आ रहा था उनसे बात करने में. आह! जब वो रंगून का ज़िक्र करते तो बरौनियों में बिल्कुल समाई हुई उनकी आँखे चहक के चमक उठतीं. जब वो नेताजी का नाम लेते तो मुझे लगता उनकी रीढ़ पर कोई झटका लगा है और शायद उसके सीधा होने से उनका कद थोड़ा बढ़ गया है. क्योंकि वक्त या उम्र या हालात का भार उनके कंधों पर अपने भारी हाथ रख-रख कर ज़रा सा झुका हुआ सा बना रहा था. वो झुक कर चल रहे थे, अब आप उम्र का अंदाज़ा लगा सकते हैं.
राम अधार के हाथ में उनके कद से लंबी लाठी थी जो मेरे ख्याल से अक्सर गोली बारी में भी कारगर रहती है, बल्कि उससे बेहतर साबित होती है. ये तो शायद बनारस के पंडे या फिर गुंडे शायर तेग अली भी इस शे’र में कहते हैं- रहला टीका से जे हांथ भर बढ़ल रमधै चलल हौ ऊ कबौं गोली के मार में गोजी! (ये जो टीका, भाल या मस्तक से ऊंची मेरी गोजी यानी लाठी है, राम कसम खा के कहता हूँ कि कभी गोली की बौछार में भी सफलता पूर्वक चल चुकी है.) हमने घण्टों बातें कीं. अपनी उम्र और उत्साह के रौ में जितना पूछ सकता था, और ये उन दिनों की पढ़त में शामिल की बिपिन चंद्रा की किताब की चार दीवारी के भीतर ही रहा होगा, पूछता रहा और जितना वो बताते जाते उससे ज़्यादा सुनता रहा.
लेकिन जिस शानदार बात के लिए मैं इतनी लंबी भूमिका बांध रहा हूँ वो बहुत पिद्दी सी है, आपको ज़रा-ज़रा सी फ़िल्मी भी लगेगी पर है पूरी-पूरी सच. तो हुआ यों कि एक दफ़ा आज़ाद हिंद फौज के सिपाहियों के बीच खाने को लेकर तक़रार हो गई. टकराहट झटका और हलाल को लेकर हुई थी और आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि इस में कौन से दो पक्ष आमने-सामने थे. अंदरखाने की इस सुगबुगाहट की ख़बर नेताजी को भी हो गई. होनी ही थी. अंदर की हर बात की ख़बर ख़ुफ़िया तंत्र से लैस नेता से ज़्यादा उनको होती है जिन्हें अपने लोगों की फिक्र होती है. नेताजी ने उसी रात ‘बड़ा खाना’ का आयोजन करवाया. राम अधार ने पता नहीं उस साझे पल्टन भोज का नाम ये बताया था या नहीं पर अपनी सिखलाई के हिसाब से मैं ये कहने में सहज महसूस कर रहा हूँ. खानसामे का नाम भी बताया था राम अधार ने पर पीढ़ियों की बेशर्मी लपेटे हुए मैं यही कहता हूँ कि मैं भूल गया.
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तो साहब नेताजी ने खस्सी कटवाई. अलग-अलग. एक कमांडर से कहा कि वो झटका करे और दूसरे से हलाल करवाया. फिर एक बड़ा कड़ाहा मंगवाया और चीफ शेफ से कहा कि सारा शिकार इसमें डाल दो और चलाओ, हिलाओ-डुलाओ ठीक से मिलाओ. अच्छी तरह मिल जाने के बाद वो कतारबद्ध जवानों से मुख़ातिब हुए और कहा कि अब जानकार साथी बताएंगे कि कौन सा पीस झटके का है और कौन सा हलाल का. बक़ौल राम अधार- ‘ह ल ल! गजब होई ग… जे जे ई बकवास करत रहा सब चुपाई गएन. सबके साँप सूँघि ग! फिर केउ कभौं न बोलेस! आह! नेताजी!’खड़ी बोली में इस बात का तर्जुमा यूँ है कि- गजब हो गया जी! जो भी ऐसी बकवास कर रहा था चुप लगा गया. साँप सूंघ गया जी सांप! उसके बाद तो कोई कभी ऐसा नहीं बोला! ‘आह नेताजी!’ का खड़ी बोली-भोजपुरी-मैथिली-बंगाली-मराठी किसी भी भाषा-बोली में एक ही मतलब है- विश्वास! ठोस, गहन और उजला विश्वास. वो विश्वास जो नेता और जनता के बीच रहना चाहिए. इस विश्वास को हासिल करने के लिए ‘चोला-चेला-चकचक’ की नहीं चरित्र की ज़रूरत होती है. वहाँ ऐसा विश्वास था कि जब उन्होंने वो प्रमाण पत्र दिखाया तो गांठों से भरी अपनी बेहद सख़्त उंगलियों को रूई के फाहों की तरह मुलायम करते हुए जिस नाम पर फिराया था वो नाम उनका अपना नहीं ‘आज़ाद हिंद फौज’ का था!
जौनपुर में जन्मे अमित श्रीवास्तव उत्तराखण्ड कैडर के आईपीएस अधिकारी हैं. अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी तीन किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता), पहला दख़ल (संस्मरण) और गहन है यह अन्धकारा (उपन्यास).
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क्या वाकई ऐसा हुआ श्रीवास्तव जी ! यदि हां तो फिर आज ऐसा झगड़ा क्यूं ?