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मुफ्त में लिखा गया उत्तराखण्ड का राज्यगीत

“कहाँ हो बंकिम, कहाँ हो रवीन्द्र! आओ, उत्तराखंड का राज्यगीत लिखो

ये वाक्य उत्तराखंड के एक प्रगतिशील समझे जाने वाले पाक्षिक अख़बार में छपी एक न्यूज का शीर्षक है. सामान्यतः इस शीर्षक में छिपे व्यंग्यात्मक टोन को पकड़ पाना आसान नहीं है. किसी को भी लग सकता है कि बंकिम चन्द्र और रवीन्द्रनाथ टैगोर जैसे महानायकों के नाम पर क्या मजाक भी किया जा सकता है?

लेकिन बुद्धिजीवियों के हमारे नवजात राज्य में क्या संभव नहीं है! (इस प्रदेश के सांस्कृतिक चरित्र को जानना है तो इसकी पुरातन राजधानी अल्मोड़ा के बारे में लिखे हमारे ही लेखकों – मनोहरश्याम जोशी, मृणाल पांडे, शम्भू राणा और नवांकुर अशोक पांडे की रचनाओं को पढ़कर विस्तार से जान सकते हैं.)

मुझे अपने जीवन में पिछले पचास वर्षों तक कहानियाँ और वैचारिक टिप्पणियाँ लिखकर या 24 वर्षों तक कुमाऊँ यूनिवर्सिटी का हिंदी विभागाध्यक्ष और डीन के रूप में काम करके इतनी प्रसिद्धि नहीं मिली जितनी वर्ष 2015-16 के सिर्फ दो वर्षों में. यहाँ तक कि मैं तीन वर्ष तक पूर्वी यूरोप के खूबसूरत देश हंगरी में हिंदी का विजिटिंग प्रोफ़ेसर था, वहाँ से ऑस्ट्रिया, जर्मनी, चिकसेरदा, प्राग, फ़िनलैंड, चेक रिपब्लिक तक जाकर भाषण दे आया, तब भी मुझे इतनी ख्याति नहीं मिली. इन दो वर्षों में तो मैं रातों-रात स्टार बन गया. इसलिए इस अखबार का मुझे आभार मानना ही चाहिए.

पिछली सरकार ने जब उत्तराखंड के लिए एक राज्यगीत तैयार करने का प्रस्ताव रखा तो सौभाग्य या दुर्भाग्य से उसके निर्माण के लिए जो समिति गठित की गई, उसका अध्यक्ष मुझे नियुक्त किया गया. शुरू में तो मैंने ध्यान नहीं दिया मगर जब मैंने स्थानीय अख़बारों और सोशल मिडिया में इस पर एकाएक विवाद खड़ा देखा तो मेरी समझ में ही नहीं आया कि ये हो क्या रहा है. बिना सन्दर्भ और पृष्ठभूमि के अनेक अख़बारों और फेसबुक में धमकी के स्वर में कहा गया कि “ये राज्यगीत की बात कौन उठा रहा है?… जैसे इस राज्य की राजधानी हम लोग पहले ही गैरसैण तय कर चुके हैं, हम लोगों ने अपना राज्यगीत भी उसी दिन गिर्दा के गीत को मान लिया था.” बिना गीत रचे ही यह आरोप लगाये जाने लगे कि जो गीत उत्तराखंड की लोक-भाषाओँ में नहीं होगा, उसे हम अपना राज्यगीत कैसे मान सकते हैं. इसके विरुद्ध जन-आन्दोलन खड़ा किया जायेगा. (स्वप्नदृष्टा उत्तराखंड को सपने में ही मालूम हो गया था कि राज्यगीत किसी विदेशी भाषा में लिखा जाने वाला है.) कुछ संवाद सुनें :

“एक राज्यगीत लिखा जा रहा है बल.”
“मैंने भी सुना ठैरा.”
“कौन लिख रहा है हो?”
“कोई बटरोही है बल.”
“कौन हुआ ये बटरोही?”
“कुमाऊँ यूनिवर्सिटी में मास्टर है बल.”

कुछ दिनों के बाद उन्हें मालूम हुआ कि इस उद्देश्य से वर्ष 2015 में उत्तराखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री के द्वारा राज्यगीत की रचना को लेकर एक समिति का गठन किया गया था, जिसका मुझे अध्यक्ष बनाया गया था. सह-अध्यक्ष के रूप में प्रसिद्ध लोक-गायक नरेंद्रसिंह नेगी को और उत्तराखंड के विभिन्न क्षेत्रों से इन सुपरिचित साहित्यकारों तथा संस्कृतिकर्मियों को नामित किया गया: हीरासिंह राणा, जहूर आलम, अतुल शर्मा, दिवा भट्ट, नीता कुकरेती, रतनसिंह जौनसारी (अब स्वर्गीय), अमर खरबंदा और जिया नहटोरी.

समिति की पहली ही बैठक में तय किया गया कि चयन समिति का कोई भी सदस्य गीत की रचना नहीं करेगा. एक सदस्य ने कहा कि वह गीत लिखना चाहता है अतः उन्होंने समिति से त्यागपत्र दे दिया. इसके बाद 30 अप्रेल 2015 को हमने भारत के अनेक प्रतिष्ठित लोकप्रिय हिंदी अख़बारों के सारे संस्करणों में विज्ञापन दिया कि जो लोग राज्यगीत लिखने के इच्छुक हों, 15 जुलाई, 2015 तक अपनी प्रविष्टियाँ भेज सकते हैं. कुछ नियम निर्धारित किये गए जैसे कि “गीत हिंदी भाषा से प्रारंभ होकर उत्तराखंड की प्रमुख क्षेत्रीय भाषाओँ में प्रवेश करेगा.” लिखा गया कि राज्यगीत का आकार स्थायी और अन्तरा सहित 20 पंक्तियों से अधिक नहीं होना चाहिए और समिति को गीत की पंक्तियों को आवश्यकता के अनुसार बदलने और उसका क्षेत्रीय भाषाओँ में अनुवाद का अधिकार होगा. गीत को टाइप किया हुआ मंगाया गया और स्पष्ट किया गया कि उसमें कहीं भी लेखक का नाम या ऐसा चिह्न नहीं होना चाहिए जिससे कि उसके रचनाकार का पता लगता हो. लेखक का नाम, पता, फोन और ईमेल पता अलग से लिखे हुए मांगे गए. अंतिम तिथि तक 203 गीत प्राप्त हुए और उन्हें पहचान-चिह्न हटाने के बाद प्रत्येक सदस्य को उनकी राय के लिए भेज दिया गया.

चार-पांच दफे की छटनी के बाद अंततः नैनीताल के हेमंत बिष्ट का गीत चुना गया और फिर से अनेक बैठकों के बाद उसमें सभी लोगों ने मिलकर संशोधन किया. अब गीत की धुन बनाने का काम था. समय कम था इसलिए हमने अपने परिचित लोगों से धुन आमंत्रित की. तीन धुनें प्राप्त हुई, जिनमें से नरेंद्रसिंह नेगी की धुन ठीक पाई गयी और उन्हें काम सौंपा गया.

मंत्रिमंडल के सामने गीत प्रस्तुत किया गया और उनकी स्वीकृति के बाद 6 फ़रवरी, 2016 को देहरादून में मुख्यमंत्री के आवास पर गीत का सार्वजनिक लोकार्पण कर दिया गया.

इस बीच खूब आरोप लगाये गए. कुछ लोगों ने गीत को अपने गीत की नक़ल बताने के बाद न्यायालय की शरण में जाने की भी बात की. गीतकार हेमंत की भूमिका को लेकर कुछ सदस्यों ने आरोप लगाया कि इसमें चूँकि सभी दस सदस्यों ने संशोधन किए हैं इसलिए गीतकार के रूप में सबका नाम जाना चाहिए. जब उन्हें समझाया गया कि गीतकार तो एक ही होगा, समिति का नाम गीतकार के साथ होगा ही, उनको चुप कराया तो एक दिन हेमंत उदास और उखड़ा-उखड़ा-सा घर पर आया.

“सर, सी.एम. साब से कह दीजिए, इससे मेरा नाम हटा दें. मेरा रात-दिन जीना हराम कर रखा है. बड़े गंदे-गंदे आरोप लग रहे हैं. आप लोग जिसका चाहे नाम डाल दीजिए. मैंने गीत लिखा है, मेरे लिए यही बहुत है. गीत में भावनाएं तो मेरी ही हैं. आप लोग जिसका भी नाम डालना चाहें, मेरी ओर से सहमति है.”

मैंने हेमंत को समझाया कि सीएम चाहें तो भी वो किसी का नाम नहीं डाल सकते, न हटा सकते. फिर यह न तुम्हारा निर्णय है, न मेरा और न किसी एक आदमी का. जो भी तय होगा, सामूहिक सहमति से होगा.

एक सदस्य ने सुझाव दिया कि इसका पारिश्रमिक सभी सदस्यों में बराबर-बराबर बाँट दिया जाए. चूँकि यह बात तय ही नहीं हुई थी कि गीतकार को कितना पारिश्रमिक दिया जायेगा, यह बँटवारा भी नहीं हो सका. हालाँकि मुख्यमंत्री की ओर से आदेश भी जारी कर दिए गए थे कि राज्यगीत सभी शिक्षण संस्थाओं और सरकारी आयोजनों में गाया जायेगा, कुछ अवसरों पर गाया भी गया, मगर तब तक सरकार के स्तर पर भी अनिश्चय मंडराने लगा.

उन्हीं दिनों फेसबुक पर रोचक टिप्पणी पढ़ने को मिली :

“बन गया बल राज्यगीत.”
“हाँ, बन गया बल.”
“कौन बना गीतकार हो?”
“कोई हेमंत बिष्ट है बल.”
“कहाँ का हुआ ये?”
“वहीँ नैनीताल का.”
“अध्यक्ष कहाँ का हुआ?”
“वो भी नैनीताल का.”
“गायक कौन हुआ?”
“नरेंद्र सिंह नेगी.”
”संगीतकार कौन हुआ?”
“नरेंद्र सिंह नेगी.”
“ये नेगी दा संगीतकार कब से बन गया यार?”
“वैसे ये कुछ ज्यादा नहीं हो गया... कुछ कम नहीं हो सकता था यार...?”
“अरे चार-छः महीने की तो बात है. ऐसी मुंहकी खायेगा कि फिर कभी खड़ा नहीं हो पाएगा.”

खैर, यह तथ्य इतिहास में दर्ज तो हो ही गया है कि एक राज्य का राज्यगीत मुफ्त में लिखा गया था. वह मंत्रिमंडल की स्वीकृति और गजट नोटिफिकेशन के बाद भी राज्यगीत का दर्जा हासिल नहीं कर सका. हो सकता है कि यह बात गिनीज बुक में रिकॉर्ड होने वाली खबर भी हो.

लक्ष्मण सिह बिष्ट ‘बटरोही

(बटरोही की फेसबुक वॉल से एक पुरानी पोस्ट)

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फ़ोटो: मृगेश पाण्डे

लक्ष्मण सिह बिष्ट ‘बटरोही‘ हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं. काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

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